Friday, September 25, 2020

चमकते सितारों वाली आज़ाद दुनिया की तलाश...

 


अंकिता शाम्भवी

 

अपनी अस्मिता की खोज करती हुई, रूढ़ियों को तोड़ने की चाह रखती हुई स्त्रियाँ इधर की फ़िल्मों में लगातार नज़र आ रही हैं। फिर अलंकृता श्रीवास्तव निर्देशित 'डॉली किट्टी और वो चमकते सितारे' में ऐसा क्या है जो उसे बाक़ी स्त्री-केंद्रित फ़िल्मों से अलग और नये तरह का बनाता है?

दरअसल ये फ़िल्म न सिर्फ़ स्त्री की आज़ादी और उसके सपनों की बुनावट को बारीक़ी से दर्शाती है, बल्कि समाज में पहले से व्याप्त कई तरह के स्टीरियोटाइप्स को बिना शोर मचाए तोड़ती भी जाती है। धर्म, जाति, लैंगिक समानता जैसे कई ज़रूरी मुद्दों पर प्रश्नचिह्न अंकित करती है यह फ़िल्म।

 


दो चचेरी बहनें हैं, डॉली और किट्टी(काजल), डॉली शादीशुदा है, कामकाजी है, उसके दो बेटे हैं, लेकिन अपनी शारीरिक ज़रूरतों को लेकर वो संतुष्ट नहीं है। उसकी चचेरी बहन काजल या किट्टी है, जो गाँव से दिल्ली आकर एक नौकरी की तलाश में है, वो ज़्यादातर अपनी डॉली दी के साथ ही रहती है, पर अपना ख़ुद का कमरा भी लेना चाहती है, वो कुँवारी है और अपनी शर्तों पर जीना चाहती है।

 

जाति और जेण्डर का जुड़वा सच   

इधर की फ़िल्मों में शायद पहली बार कोई 'यादव' उपनाम वाली स्त्री-चरित्र फ़िल्म के मुख्य किरदार में है। डॉली कामकाजी है, उसके बॉस घनश्याम पाण्डे हैं, जिनका नेमप्लेट फ़िल्म में हाईलाइट करके दिखाया गया है, यहाँ ध्यान से देखा जाए तो समझ आता है कि, समाज में जाति के आधार पर जो ऊँच-नीच का मुद्दा है उसे काफ़ी सटल तरीक़े से निर्देशक ने नेमप्लेट हाईलाइट करके दिखला दिया है। ऑफ़िस में चाय बनाने का काम डॉली ही करती है, क्योंकि वो पुरुषों की नज़र में कमतर है। और यूँ भी रसोई का काम तो आख़िर स्त्री के ही जिम्मे होता है! काजल को भी जूते की फैक्ट्री में काम मिल जाता है, उसे हॉस्टल लेने के लिए पैसों की ज़रूरत होती है, अपने बॉस से सैलरी की माँग करने पर उसे अदना-सा जवाब मिलता है कि "औकात में रह! ये फैक्ट्री है, तबेला नहीं!"

 

सेक्शुअल ओरिएंटेंशन का सवाल 

डॉली के बेटे पप्पू में लड़की जैसी आदतों और गुणों का होना भी समाज की उस मानसिकता से सवाल करता है जिसे एक लड़के का गुड़िया से खेलना, गुलाबी रंग की चीज़ें पसन्द करना, फ्रॉक पहनना कभी भी उचित नहीं लग सकता। छिप-छिप कर वो अपनी मम्मी का मेकअप लगाता है और ब्रा पहनता है। ये सारी आदतें ख़ुद डॉली को भी रास नहीं आतीं।  डॉली का पति उसे यही यकीन दिलाता है कि माँ के शारीरिक दोषों के कारण बच्चे की भी शारीरिक और मानसिक बनावट पर असर पड़ता है। लेकिन वो जिस स्वास्थ्य पत्रिका से पढ़कर ऐसा कहता है, उसमें कहीं भी पिता के शारीरिक दोषों का ज़िक्र नहीं होता! लड़का-लड़की के बीच शारीरिक और मानसिक फ़र्क की घुट्टी जो हमें बचपन से पिला दी जाती है, वो कभी भी हमें अपने जेण्डर से भिन्न आदतें रखने और उसके तौर-तरीके अपनाने की छूट नहीं दे सकती। उसे दोष या विकृति की तरह ही देखा जाता है।

 

आज़ादी का स्वाद

कितनी स्त्रियाँ आज अपनी शादी में नाख़ुश होने पर सबकुछ छोड़कर जाने का फ़ैसला बहुत आसानी से कर सकती हैं? माँ, पत्नी, बहू होने पर एक आज़ाद व्यक्तित्व वाली स्त्री होने का भाव दरकिनार क्यों हो जाता है ? बहुत सारे सवाल इस फ़िल्म को देखने के बाद हमारे मन में दर्ज हो जाते हैं।

डॉली को इस बात की खीझ रहती है कि उसकी माँ ने उसे बहुत कम उम्र में छोड़ कर अपने सुख की परवाह की, लेकिन क्या ख़ुद डॉली भी अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी से परेशान होकर, सबकुछ छोड़कर ओस्मान के साथ अपना जीवन सुख से बिताना चाहती थी ? शायद हाँ, इसलिए उसका गुस्सा और खीझ यहाँ हर उस औरत की खीझ बन जाता है जो शादी के बाद एक समर्पित स्त्री की तरह अपने पति, बच्चों और गृहस्थी को सम्भालने में ख़ुद की ज़रूरतों को ही ताक पर रख देती है। लेकिन अपने वैवाहिक जीवन को बचाए रखने के लिए ही डॉली पति की तमाम हरकतों पर चुप रहती है। इस फ़िल्म में एक से बढ़कर एक स्त्री चरित्र हैं, शाज़िया भी उन्हीं में से एक है जो काजल को शहर में खुलकर जीना, घूमना-फिरना सिखाती है, उसे आज़ादी का स्वाद चखाती है। लेकिन ये बात जब डॉली को मालूम पड़ती है तब वो काजल से बेहद नाराज़ हो जाती है, क्योंकि उसे मालूम होता है कि एक लड़की अपने मन के मुताबिक जीने से किस तरह सबकी नज़र का काँटा बनने लगती है।

 

स्त्री की शारीरिक ज़रूरतों को भिन्न कोणों से संवेदनशीलता के साथ एड्रेस करती नज़र आती है

 

स्त्री और पुरुष की लगभग समान ज़रूरतें होती हैं, फिर भी पुरुषों में सेक्स को लेकर शर्म या झिझक शायद ही देखने को मिले, लेकिन वहीं यदि स्त्री अपनी सुख-सुविधाओं और शारीरिक ज़रूरतों की बात करे तो लोग उसे बदचलन, कुलटा, रंडी और ना जाने क्या-क्या बना देते हैं, ये हमारे तथाकथित सभ्य समाज का दोगलापन ही तो कहलाएगा!

 

ओस्मान से प्यार और सेक्स पाकर उसे यक़ीन हो जाता है कि ठंडापन उसमें नहीं उसके शादीशुदा जीवन में है। फ़िल्म के अंत में डॉली अपने पति को ओस्मान के बारे में सबकुछ सच-सच बता देती है, इसके अलावा अपने पति द्वारा काजल को molest करने की बात जिसे वो अबतक छुपा रही थी, आज साफ़-साफ़ बता देती है, वो पति की माफ़ी भी स्वीकार नहीं करती। अपने एक बेटे पप्पू को साथ लेकर वो अपना घर, पति और दूसरे बेटे को छोड़कर चली जाती है। ये उसके नए जीवन की शुरुआत कही जा सकती है, जिसे वो बिल्कुल अपनी शर्तों पर जियेगी, पप्पू को आज वो ख़ुशी-ख़ुशी पिंक हेयरबैंड पहनाती है।

एक रात दोनों बहनें साथ में अपना दुःख-सुख साझा करती हैं, शराब पीती हैं। डॉली यहाँ कहती है कि सारी सुविधाएँ मर्दों के लिए होती हैं, काश हम औरतों के लिए भी ऐसा रोमांस एप्प और कॉल सेंटर वाली सुविधा होती। ये बात यहाँ सुन्न कर देती है कि सचमुच स्त्रियों के अकेलेपन, उनकी ज़रूरतों का ख़याल इस समाज में किसी को भी नहीं होता।

 

डॉली की बहन काजल यानी किट्टी जिस कॉल सेंटर में काम कर रही होती है, वहाँ तोड़-फोड़ मच जाती है। इस काम को कालाधंधा और रंडी बाज़ार जैसे नामों से नवाज़ा जाने लगता है। ये सब देखकर काजल दुःखी होती है मगर कॉल सेंटर के बॉस को इसे फिर से बनाने की हिम्मत देती है, वो कहती है कि ये उसकी रोज़ी-रोटी का काम है। वो रोमांस बेचती है क्योंकि आजकल की दुनिया में लोग ख़ुद को अकेला महसूस करते हैं, ये एप्प उनके लिए मददगार है। इसी के साथ वो ये ऐलान करती है कि अब से ये सर्विस औरतों के लिए भी शुरू की जाएगी और तालियों की गूँज के साथ फ़िल्म समाप्त होती है।

 

ख़ुद को स्वीकारना ज़रूरी है

ये फ़िल्म एक ही साथ कई ज़रूरी पहलुओं को महज़ छू कर नहीं गुज़रती बल्कि विस्तार से उन सबसे संवाद करती नज़र आती है। फ़िल्म का अंत एक तरह से डॉली और किट्टी की शारीरिक और मानसिक आज़ादी की जीत के साथ होता है, लेकिन ज़रूरत है हमारे समाज में भी स्त्रियों की आज़ादी को पूरी स्वाभाविकता के साथ सेलिब्रेट करने की, दुनिया इतनी बदल चुकी है मग़र समाज आज भी स्त्रियों की वास्तविक आज़ादी को समझ नहीं पाया है, उसे लेकर कुंठित है, सवाल है कि ये स्थिति कब बदलेगी? स्त्रियों को हमेशा से दोहरी मार झेलनी पड़ती है, आज के समय में उसकी ज़िम्मेदारियाँ घर-बाहर सब जगह एक जैसी हैं, ऐसे में वो अपनी ख़्वाहिशों, और चाहतों को लेकर कितना खुल पाई है, ये हम सभी से छुपा नहीं है।

अब वो घड़ी आ चुकी है जब हम बेबाक होकर इन सभी सवालों का ठोस जवाब ढूँढें, स्त्री-अस्मिता को नए आयाम दें, ताकि हम एक मुकम्मल दुनिया कायम कर सकें।

 


 

अंकिता शाम्भवी, हिन्दी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय से शोधरत हैं और संगीत और चित्रकला में विशेष रुचि रखती हैं।

Sunday, September 13, 2020

भीड़ का न्याय न्याय नहीं लिंचिंग है

 

वह स्क्रीन पर रो-रोकर सम्वेदनाएँ जुटा सकती थी, जैसा कि मर्दवादी समाज कहता है औरतें झूठा आरोप लगाती हैं, रिया विक्टिम-कार्ड खेल सकती थी; लेकिन उसने मज़बूती से तमाम घिनौने आरोप झेले और जेल-जेल चिल्लाते समाज के जल्लाद चेहरे ने उसे भावशून्य कर दिया। उसे ड्रग्स के लिए जेल की हवा खिलाकर पत्नियों से शाम की महफिल में चखना और बर्फ मंगवाने वाले शायद संतुष्ट हों लेकिन यह वीभत्स प्रकरण इस देश की लड़कियों को कभी नहीं भूलना चाहिए। पढिए युवा साथी कशिश नेगी की एक टिप्प्णी। 

                                                                                                                                                                              - सम्पादक   


- कशिश नेगी 

 

भारतीय पत्रकारिता अभी अंतिम सांसे ले ही रही थी कि 14 जून 2020 को मशहूर अभिनेता सुशांत राजपूत की आत्महत्या के साथ साथ भारतीय मीडिया ने भी दम तोड़ दिया। सुशांत राजपूत के आत्महत्या डिप्रेशन के कारण बताई जाने लगी लेकिन धीरे धीरे इसकी दिशा कृति सेनन और अंकिता लोखंडे को कोसते हुए रिया चक्रवर्ती पर ठहर गयी। रिया चक्रवर्ती एक स्ट्रगल अभिनेत्री हैं जिन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत 2008 से टीवी के छोटे पर्दे एमटीवी से की। उन्होंने दक्षिण भारतीय फिल्म्स में भी काम किया। बाद में उन्होंने बॉलीवुड फिल्म में भी छोटे रोल किये, उन्होंने बतौर अभिनेत्री 4 बॉलीवुड फिल्मों में काम किया, 2018 में उन्होंने "जलेबी" फ़िल्म में लीड रोल किया। लेकिन उनका कैरियर सफलता न पा सका।



वे आम प्रेमी-जोड़े की तरह ही ख़ुश थे

सुशांत राजपूत और रिया चक्रवर्ती किसी पार्टी में मिले थे, वे जिम भी साथ ही जाते थे। दोनों को साथ साथ देखा जाता था, अन्य प्रेमी युगलों की भांति ही वे ख़ुश थे। सुशांत की आत्महत्या के बाद सोशल मीडिया में रिया पर सवाल उठने लगे। रिया का मीडिया ट्रायल होने लगा इन सब के बीच रिया की मुसीबत तब बढ़ गयी जब दिवंगत सुशांत के पिता ने पटना के राजीव नगर के थाने में रिया के खिलाफ एफआईआर कर दी। रिया पर 16 गम्भीर आरोप लगाए गए। सुशांत के डेबिट और क्रेडिट कार्ड यूज़ कर आर्थिक शोषण, मानसिक बीमारी का ओवर डोज़ देना, ब्लैकमेल करना और परिवार वालों से न मिलने देने, जैसे आरोप मुख्य हैं।

 

मीडिया का पितृसत्तात्मक चेहरा

अचानक ही सोशल मीडिया और मीडिया में बिना तथ्यों के अनर्गल आरोप रिया पर लगने लगे। मीडिया तो इसे काले जादू तक का एंगल दे कर लोगों में अंधविश्वास परोसने लगा। कुछ वक्त बाद केस में ड्रग्स का मुद्दा उछाला जाने लगा, रिया पर आरोप लगाए गए कि वो सुशांत को ड्रग्स देती थी।

मीडिया ने रिया के बहाने न सिर्फ  पितृसत्तात्मक मानसिकता, महिलाओं के प्रति दुर्भावनापूर्ण एवम पूर्वाग्रहों को मजबूत बनाने का मौका पा लिया बल्कि  सोशल मीडिया के माहौल को भी ज़हरीला बना दिया। जो सोशल मीडिया और मीडिया कुछ वक्त पहले तक डिप्रेशन पर बात कर संवेदनाएँ प्रकट कर रहा था वह अब ऐसे गिद्ध में परिवर्तित हो चुके थे जो एक ज़िंदा लडकी को नोच डालना चाहते थे। जो समाज, मीडिया मानसिक बीमारी की बड़ी बड़ी बातें कर रहा था वो एक अकेली लड़की को मानसिक प्रताड़ित करने में को कमी नहीं छोड़ रहा।

 

रिया को निशाना बना पितृसत्ता के कई पूर्वाग्रहों को हवा दी जा रही है। "लड़कियां लड़कों को पैसों के लिए फंसाती है", "लड़कियां, लड़कों को घरवालों से अलग कर देती है", " लड़कियां सिर्फ अमीर लड़कों से रिलेशन में रहती है", "लड़कियां पैसों के लिए धोखा देती है", "लड़कियां लड़कों को दबा कर रखती हैं" जैसे अनेकों पुरुषसत्तात्मक जुमलों को मजबूत करने का कार्य मीडिया कर रही है। रिया सुशांत केस के बाद महिलाओं पर जोक्स की जैसे बाढ़ ही आ गयी। मधु किश्वर ने रिया (और उन जैसी लड़कियों) को Sex bait  कहा।

 

पुरुषवादी समाज के लिए महिलाएं सॉफ्ट टारगेट रही हैं

मीडिया, सोशल मीडिया और समाज का लैंगिक भेदभाव स्पष्ट नज़र आता है, 25 साल की जिया खान के खुदकुशी करने पर कोई बवाल नहीं हुआ यहां तक कि जिया की मां ने सूरज पंचोली पर खुले आम शक जताया लेकिन कोई खास कार्रवाई नहीं। श्री देवी की आकस्मिक मृत्यु पर भी दाह संस्कार के बाद विराम लग लग गया। 1999 में रेखा को भी ऐसा ही दंश सहना पड़ा जब उनके पति मुकेश अग्रवाल ने उन्हीं के दुप्पटे से फांसी लगाई थी, वो दुपट्टा रेखा का ही था? आज तक साबित नहीं हुआ। लेकिन पुरुषसत्तात्मक समाज उस वक़्त भी रेखा जी को दोषी मान चुका था। मीडिया ट्रायल से दुःखी रेखा जी ने टाइम्स ऑफ इंडिया को इंटरव्यू देने के प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकरा दिया। अंत मे उन्होंने किसी विश्वसनीय पत्रकार से बात कर सिर्फ इतना कहा, "मैंने मुकेश को नहीं मारा"

 

बलात्कारों पर खून क्यों नहीं खौलता ?

पुरुषवादी समाज के लिए महिलाएं सॉफ्ट टारगेट रही हैं। आये दिन हो रहे सैंकड़ों बलात्कार और महिलाओं पर हो रही हिंसा पर हमारे समाज का खून नहीं खौलता। बलात्कार पीड़िता और उसके परिवार को जान से मार देने पर भी किसी को फर्क नहीं पड़ता। इन पीड़िताओं के लिए किसी को न्याय नहीं चाहिए। पुरुषसत्ता समाज को क्यों लगता है कि जब कोई आदमी सुसाइड करता है तो उसका कारण उसकी पत्नी या प्रेमिका ही होती है जबकि जब कोई औरत आत्महत्या करती है तब ये धारणा ही बदल जाती है। वैसे भी डायन, चुड़ैल, मनहूस और पति को खाने वाली कुलक्षिणी की उपाधियां सिर्फ और सिर्फ औरत को ही मिली है, पुरुषों को नहीं। डायन और चुड़ैल के नाम पर सिर्फ महिलाओं पर ही हमले होते हैं और उन्हें ज़िंदा तक जलाया जाता है।

 

पॉपुलर न्याय ? 

रिया पर अभी तक कोई आरोप सिद्ध नहीं हुए लेकिन उसे ड्रग्स के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया है। अगर ड्रग्स मामले में कायदे और ईमानदारी से गिरफ्तारी की जाए तो आधा हिंदुस्तान शायद जेल में दिखे। जो समाज बॉलीवुड के संजय दत्त और रणवीर कपूर के ड्रग्स आरोपों को आसानी से भुला देता है वही समाज रिया के मामले में न्याय चाहता है।

मीडिया ट्रायल से तंग आ कर रिया ने एक वीडियो जारी किया जिसमें उन्होंने कहा, "मुझे देश के न्यायतंत्र पर भरोसा है" जिस पर विपक्ष के वकील विकास सिंह का बयान आया कि जो सलवार कमीज रिया ने वीडियो में पहनी है, शायद पहले कभी न पहनी हो। रिया खुद को आम महिला दिखाने की कोशिश कर रही है। वकील विकास सिंह का ये बयान पूर्णतया पितृसत्ता मानसिकता से लबालब था। वे लोगों का ध्यान रिया के परिधान की ओर आकृष्ट करना चाहते थे। वे केस को पितृसत्तात्मक तरीके से मजबूत करते दिख रहे थे।

 

 रिया अभी दोषी साबित नहीं हुई, मीडिया को तथ्यों पर रिपोर्टिंग करनी चाहिए न कि कल्पनाओं पर। रिया दोषी है या नहीं ये तय करना न्यायालय का कार्य है, आपका, हमारा, किसी मीडिया या सोशल मीडिया पर बैठे पोस्टकर्ता का कार्य नहीं। न्याय-पालिका हो ही काम करने दीजिए। भीड़ का न्याय न्याय नहीं लिंचिंग है।

 

लेखिका हिंदी में, दलित साहित्य में एम ए हैं और फिलहाल सी बी एस एस ई में कम्प्यूटर असिसटेंट हैं। चोखेरबाली पर उनका यह पहला लेख है।  

Friday, August 21, 2020

सलाम इस्मत आपा !


- सुजाता

 

फिल्मों की भीड़ में थिएटर अब कोई भूली हुई सी चीज हुई जाती है. किसी वक्त इप्टा और दूसरे संगठनों ने जिस थिएटर को एक आंदोलन की तरह विकसित किया था, आज वह कुछेक महानगरों और दूसरे केंद्रों तक ही सिमट गया है. 2017 फरवरी की, शनिवार की, बेरंग शाम आज अचानक कोरोना के इन दिनों में याद आ गई. मन उदास था और किसी कल चैन नहीं पड़ता था. होना तो यह था कि वह शाम भारतीय रंग महोत्सव के किसी भव्य नाटक को देखते हुए गुजारी जाती, लेकिन अपनी जांबाज पुरखिन इस्मत आपा के नाम ने शहीद थिएटरकर्मी सफदर हाशमी की याद में बने ‘स्टूडियो सफदर’ में खींच लिया था.

 

कहानी की कहानी इस्मत की जुबानी- 

मशहूर उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई के जीवन और लेखन पर ‘कहानी की कहानी इस्मत की जुबानी’ ब्रेख्तियन मिरर और इप्टा के सहयोग से नूर जहीर के निर्देशन में तैयार कोई डेढ़ घंटे का एक शानदार नाटक है. अपनी जीवनी अधूरी ही छोड़ गयी थीं इस्मत आपा, जिसे नूर ने उनकी कहानियों और उनके वक्त के दूसरे लेखकों की उन पर लिखी तहरीरों को जोड़ कर तैयार किया है यह नाटक, जो गुजिश्ता वक्त के संघर्षों की कहानी तो है ही, हमारे वक्त के लिए एक आईना भी है.

आधुनिक स्त्रीवादी लेखिका- इस्मत चुगताई जिस वक्त उर्दू की दबंग और ताकतवर लेखिका के रूप में उभरीं उस वक्त का समाज भारतीय और खासतौर से मुसलिम समुदाय के लिहाज से एक बेहद रूढ़िवादी समाज था, जहां औरतों को लिखने या बोलने की ही नहीं, पढ़ने की भी आजादी नहीं थी. खुद अपनी पढ़ाई के लिए इस्मत को संघर्ष करने पड़े और तोहमतें झेलनी पड़ीं.


हजार वर्षों की गलाजत के चेहरे से नकाब हटायीतो समाज के अशराफ के सीनों में दर्द लाजिम ही था- 

ऐसे में जब अपनी अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने कहानी का माध्यम चुना, तो स्वाभाविक था कि वह अपने आस-पास के विभिन्न मुद्दों को उठातीं, जो बाकी लोगों के लिए बेमानी से थे. जब उन्होंने गैरमामूली मुद्दों को पूरी बेबाकी से उठाया, तो खलबली मच गयी. उनकी सबसे ज्यादा उल्लेख की जानेवाली कहानी ‘लिहाफ’ के लिए तो 1941 में लाहौर हाइकोर्ट में अश्लीलता के लिए उन पर मुकद्दमा भी चला. मुकदमे के सहअभियुक्त बने उस दौर के ऐसे ही एक और बेबाक लेखक और इस्मत के अजीज दोस्त मंटो. शरीफ घरानों में जन्मे इन दोनों लेखकों ने हजार वर्षों की गलाजत के चेहरे से नकाब हटायी, तो समाज के अशराफ के सीनों में दर्द लाजिम ही था.

लिहाफ’ उस दौर में स्त्री यौनिकता और समलैंगिकता के मुद्दे को बेहद संवेदनशीलता से उठाती है, जिस पर आज भी बात करना विवादों और मुसीबतों को बुलावा देना है. वह अपनी दीगर कहानियों और उपन्यासों में भी विभिन्न स्त्री मुद्दों को उठाती हैं और कहीं भी किसी एक्स्ट्रीम में गये बिना बेहद सहज और चुलबुले तरीके से मार्मिक बातों को कह जाती हैं. तंज उनका अचूक हथियार है. वे उन स्त्रियों के बीच पैठती हैं, जिन्हें हम पतित, पिछड़ी और असभ्य कहते हैं. एक परंपरागत समाज में ऐसी औरतों के बीच से जीने की इच्छा, साहस व बेबाकी को निकाल कर आपा ने अपनी कहानियों में ढालने की जुर्रत की. वे अपने वक्त की आधुनिक स्त्रीवादी लेखिका हैं.



प्रगतिशील स्त्री-लेखन  - 

इस्मत को लेखन की परंपरा डॉ रशीद जहां से मिली, जो उनकी सीनियर थीं और जिन्हें वे अपना आदर्श मानती थीं. उनके आरंभिक लेखन पर रशीद जहां का प्रभाव कहा जाता है.

रशीद जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ की सक्रिय कार्यकर्ता भी थीं और इस लिहाज से वे भारतीय उर्दू साहित्य की पहली विद्रोही लेखिका थीं. डॉ रशीद ने अपने कथा सहित्य में मुसलिम समाज के भीतर प्रचलित कट्टरपंथ और स्त्री मुद्दों को उठाया. रजिया जहीर (नूर जहीर की मां और उस्ताद), रशीद जहां और इस्मत चुगताई मिल कर उस जमाने में प्रगतिशील स्त्री लेखन का एक ऐसी तिकड़ी बनाती हैं, जिनकी खींची कई लकीरें अब तक पार नहीं की जा सकी हैं.


 बहुत कुछ लिखा ज़रूरी लेकिन ‘लिहाफ’ लेबल की तरह उनके नाम से चिपक गयी- 

बंबई में रह कर आपा फिल्मों से भी जुड़ी रहीं. ‘गर्म हवा’ विभाजन की राजनीतिक सामाजिक विभीषिका पर बनी फिल्म थी, जिसकी कहानी उन्होंने लिखी थी. अनुवाद न होने से इस्मत को हिंदी में पढ़ा जाना काफी बाद में संभव हो सका. खुद इस्मत भी देवनागरी की हिमायती हुईं. बीबीसी को दिये एक साक्षात्कार में उनकी पुत्री सबरीना ने बताया कि वे चिंतित थीं कि अगर उर्दू साहित्य को देवनागरी में नहीं लिखा गया, तो उर्दू दम तोड़ देगी.

मुसलिम समाज का हिस्सा होते हुए इस्मत ने स्त्री के लिए बनाये चौखटे इस दम-खम से ढहाये कि अक्सर विवादों में घिरीं रहीं. लेकिन, स्त्री-लेखन की यही वह विद्रोही परंपरा है, जो उर्दू में आनेवाली लेखिकाओं को मिली और इस मायने में हिंदी कथा साहित्य में स्त्री की उपस्थिति देर से और कम मजबूत दिखायी दी.

निवाला’ में एक सीधी-सादी दाई का काम करनेवाली अविवाहिता सरलाबेन को अड़ोस-पड़ोस वालियां मिल कर लाली-पाउडर, कपड़े-लत्ते की अपने-अपने हिसाब से तमीज सिखा कर पुरुष को लुभाने के गुर सिखाने लगती हैं. सरलाबेन रोते हुए सोचती है- ‘क्या औरत होना काफी नहीं. एक निवाले में इतना अचार, चटनी, मुरब्बा क्यों लाजिमी है... और फिर उस निवाले को बचाने के लिए सारी उम्र की घिस-घिस .’ इस कहानी से एक पल में मानो आपा न केवल सौंदर्य की अवधारणा पर चोट करती हैं, बल्कि शादी के रिश्ते में पति-पत्नी वाली सारी असहज युक्तियों को भी निशाने पर ले आती हैं. यह उनकी विशेषता है कि गंभीर बात कहते हुए भी चुटकी लेना नहीं भूलतीं.

लिहाफ’ तो इतनी प्रसिद्ध हुई कि लेबल की तरह उनके नाम से चिपक गयी. एक तरफ उनकी कहानियां पितृसत्ता के चरित्र को उघाड़ती हैं, तो वहीं स्त्री के विद्रोही तेवर भी देखने को मिलते हैं.

घरवाली’ जैसी कहानी में अपनी कामवाली लाजो को काबू में करने के लिए मियां उससे निकाह करते हैं और मस्तमौला लाजो को जब तलाक देते हैं, तो लाजो की जान में जान आती है. आपा की कहानियां पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पली-बढ़ी औरतों के विभिन्न रंग भी दिखाती हैं. ‘बिच्छू मौसी’ हो ‘सास’ हो या चाल में रहने वाली, धंधा करनेवाली औरतें या ‘दोजखी’ जैसी मार्मिक कहानियां हों, वे अपने समाज की सच्चाइयों को संवेदनशीलता, चुटीलेपन और बेबाकी से कह देने की कला जानती हैं.


स्त्री लेखन में बोल्ड लेखन के नाम पर जो भी लिखा जाता है, उसे इस्मत के लेखन से सरोकार के साथ बेबाक होना सीखने की जरूरत आज भी कतई कम नहीं है. आज जो हमारे हाथों में एक हद तक आजाद कलम है, तो उसमें इस्मत आपा जैसी पुरखिनों के पसीने और लहू का बड़ा योगदान है.

 


Sunday, August 16, 2020

स्त्रीत्व की नई छवि गढती हुई कवि- सुभद्राकुमारी चौहान

 

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी .... याद है यह पंक्ति आपको? यही वह पंक्ति है जिसे राजस्थान शिक्षा बोर्ड ने झाँसी की रानी कविता से मिटाकर स्कूलों में पढाया। राजस्थान क्या ग्वालियर में भी आपको इस सुप्रसिद्ध कविता का यह अंश सुनाई नहीं पड़ेगा। सिंधियाओं की अंग्रेज़ों से मित्रता और झाँसी की रानी के साथ हुआ विश्वासघात आप इतिहास से कितना ही मिटाने की कोशिश करें हिंदी की जानी-मानी कवि सुभद्रा कुमारी चौहान राजस्थान इसे अपनी कविता में बखूबी दर्ज कर गई हैं।

राष्ट्रीय काव्यधारा की यशस्वी कवि

16 अगस्त को 1904 में इलाहाबाद में जन्मी सुभद्रा कुमारी 9 बरस की उम्र में ही अपनी कविता से अपने पूरे स्कूल भर में प्रसिद्ध हो गई थीं लेकिन बस नवीं तक ही वे पढाई कर पाईं। 15 साल में उनका विवाह हो गया। लेकिन उनकी प्रतिभा और कविता की राह में यह रुकावट नहीं बन पाया। पति लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ ही 1923 में ये गाँधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में शामिल हो गई और दो बार जेल गईं।

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

राष्ट्रीय काव्यधारा में जिस कवयित्री का नोटिस लेने से कोई नहीं चूक सकता वे सुभद्राकुमारी ही हैं। लेकिन ख़ूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी के अलावा भी उनकी कई कविताएँ हैं जो स्वतंत्रता-आंदोलन की विरासत हैं। राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा और मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग जैसी पंक्तियाँ पढते हुए हमें एक पुरुष का दुनिया/समाज के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वाह को प्रेमिका से ज़्यादा तरजीह देना कितना स्वाभाविक लगता है।सच यह है कि स्त्री की ज़िंदगी में भी हर राहत वस्ल की राहत नहीं हो सकती। उसकी ज़िंदगी में भी समाज/ देश के प्रति कर्तव्यों की कई चुनौतियाँ होती हैं। उसके लिए कविता करना भी गृहस्थ-जीवन और प्रेम के समकक्ष चुनौती बनकर खड़ा हो सकता है। वीरों का कैसा हो बसंत और जलियाँवाला बाग पढ़ना चाहिए। एक अन्य कविता में पति के साथ इन्हीं भावनाओं का द्वंद्व दिखाई देता है। पति शृंगार रचना की कामना करता है, स्वभावत: दुनिया ही स्त्री से कोमल विषयों पर लिखने की उम्मीद करती है। वे स्त्रीत्व का नया मानक गढती हैं। स्त्री जो एक प्रेमिका ही नहीं माँ भी है और साथ-साथ राष्ट्र की एक नागरिक भी। 

 

मुझे कहा कविता लिखने को, लिखने मैं बैठी तत्काल।

पहिले लिखा- ‘‘जालियाँवाला’’, कहा कि ‘‘बस, हो गये निहाल॥’’

तुम्हें और कुछ नहीं सूझता, ले-देकर वह खूनी बाग़।

रोने से अब क्या होता है, धुल न सकेगा उसका दाग़॥

भूल उसे, चल हँसो, मस्त हो- मैंने कहा- ‘‘धरो कुछ धीर।’’

तुमको हँसते देख कहीं, फिर फ़ायर करे न डायर वीर॥’’

कहा- ‘‘न मैं कुछ लिखने दूँगा, मुझे चाहिये प्रेम-कथा।’’

मैंने कहा- ‘‘नवेली है वह रम्य वदन है चन्द्र यथा॥’’

अहा! मग्न हो उछल पड़े वे। मैंने कहा- सुनो चुपचाप

बड़ी-बड़ी सी भोली आँखें, केश पाश क्यों काले साँप                                        (मेरी कविता- सुभद्राकुमारी )

 

वे उस नवब्याहता का चित्र खींचती हैं जो इसी जलियावाला बाग हत्याकांड में अपने प्रिय को खो चुकी है जो हाथों की मेहंदी लिए, आँसू पोछ्ते हुए, रोज़ पागलों की तरह उस बाग की ओर जाती है और अपने सुख के दिनो को याद करती है, आँसू बहाती है। यह कविता पुन: पाठ की माँग करती है हमसे।

 




सुभद्राकुमारी के जीवन का हर चुनाव स्त्री के पक्ष में है, यद्यपि उसका गंतव्य राष्ट्रप्रेम है- सुमन राजे (हिंदी साहित्य का आधा इतिहास, p250)   

देश के प्रति कर्तव्य भावना को नारी की भगिनी, मातृ तथा प्रेयसी भावना के साथ समंवित करके उन्होंने कर्तव्य तथ्हा भावना का सुंदर सामंजस्य उपस्थित किया है। देश प्रेम की भावनाओं के अतिरिक्त उन्होंने वात्सल्य रस की सुंदर कविताएँ लिखी हैं। - प्रो. सावित्री सिन्हा (हिंदी की मध्यकालीन कवयित्रियाँ p.305)






वीर स्त्री को मर्दानी कहती हैं सुभद्रा ?

झाँसी की रानी को मर्दानी लिखने से बहुत से लोग आज प्रश्न करते हैं कि क्यों वे वीर स्त्री को मर्दानी कहती हैं? मैं पूछती हूँ वीरता के मानक क्या बनाए हैं समाज ने? क्या वे मर्दाना ही नहीं हैं? (एक अंग्रेज़ अफसर ने भी लिखा था कि लड़ने वालों में एक ही मर्द था- झाँसी की रानी।) अपने युग की चेतना और अभिव्यक्तियाँ प्रभावित करती ही हैं।

युद्ध और राजनीति माने की मर्दाना इलाके जाते हैं हमेशा से। पुलिस में शामिल होने वाली स्त्री से भी मर्दानी होने की अपेक्षा की जाती है। बहादुरी मार-काट है, युद्ध, आक्रामकता है। प्रसव वेदना सहना, अकेले परिवार का भरण-पोषण करना नहीं, मीलों दूर से चलकर पानी के मटके सर पर उठा लाना, खेतों में काम करना, मवेशियों का पानी-सानी करना, चक्की पीसना नहीं। श्रम का, बहादुरी का ऐसे ही जेंडर अलग कर दिया गया। हम भी तो 56 इंच के सीने वाला प्रधान मंत्री चाहते हैं। सबको अपनी सम्वेदना के दायरे में समेट लेने वाली जेसिंडा आर्डर्न जैसी प्रधानमंत्री नहीं ! अपनी ओर कभी सवालिया उंगली उठाते हैं हम?  

यह भी देखिए कि जिस समय सभी कवियों ने वीरों और महापुरुषों का प्रशस्ति-गान किया उन्होंने झाँसी की रानी को हीरो माना। साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय काव्य धारा के भीतर के प्रचलित रूपक नहीं लिए। अपने रूपक और मानक बनाए।

  

बेटी के जन्म को सेलीब्रेट करने वाली वे हिंदी की पहली कवयित्री

लेकिन याद रखना चाहिए कि बेटी के जन्म को सेलीब्रेट करने वाली वे हिंदी की पहली कवयित्री हैं। एक रूढिवादी ज़मींदार परिवार में जन्म लेकर, एक रूढिवादी समाज में जीते हुए मेरा नया बचपनकविता में बेटी को ही अपने व्यक्तित्व का विस्तार मानती हैं। गर्वित और प्रसन्न होती उनकी कुछ कविताएँ संकेत देती हैं कि उनके पति भी कन्या के जन्म से शायद प्रसन्न न थे। एक कविता इसका रोना पढिए-  

तुम कहते हो - मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है।

मैं कहती हूँ - इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है।

सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे।

बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे।।

 

ये नन्हें से होंठ और यह लंबी-सी सिसकी देखो।

यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो।

कैसी करुणा-जनक दृष्टि है, हृदय उमड़ कर आया है।

छिपे हुए आत्मीय भाव को यह उभार कर लाया है।

 

बालिका का परिचय एक अनूठी कविता है। बेटी को आंगन में खेलते हुए वे उसी में अपना कृष्ण, राम, ईसा मसीह, काबा, काशी सब देख लेती हैं। पुत्री के जीवन में होने को लेकर ऐसी प्रसन्नता और आश्वस्ति हिंदी कविता में निराली थी। क्रांतिकारी थी।

बीते हुए बालपन की यह, क्रीड़ापूर्ण वाटिका है

वही मचलना, वही किलकना, हँसती हुई नाटिका है।

 

मेरा मंदिर, मेरी मसजिद, काबा काशी यह मेरी

पूजा पाठ, ध्यान, जप, तप, है घट-घट वासी यह मेरी।

 

मिट्टी खाने वाले बाल-कृष्ण के मुख में जैसे यशोदा ने पूरा ब्रह्माण्ड देख लिया था कैसा अलौकिक दृश्य है।  सूरदास के यहाँ आई कृष्ण की  बाल-लीलाओं या तुलसी के वात्सल्य वर्णन से कहीं आगे जाता हुआ कितना सुंदर, सहज, मानवीय चित्र बनता है यहाँ। वात्सल्य ही नहीं प्रेम की भी सहज अभिव्यक्तियाँ इनके यहाँ मिलती हैं।   

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थी।

कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।।

 

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।

मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।।

 

मैंने पूछा 'यह क्या लाई?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'

हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'

 

 सुभद्राकुमारी चौहान और महादेवी वर्मा समकालीन थीं और दोनो भिन्न प्रतिभाओं की कवि थीं। दोनो का नाम हिंदी की आधुनिक कविता के इतिहास में अमिट हो गया।    

 

Monday, July 27, 2020

क्यों पुरुष नामों से लिखती थी लेखिकाएँ ?


 - सुजाता


एक वक़्त था उन्नीसवीं सदी में जब ब्रिटिश लेखिकाएँ छ्द्मपुरुष नामों से उपन्यास लिख रही थीं ताकि उन्हें गम्भीरता से लिया जाए। वे चाहती थीं कि उन्हें गम्भीरता से लिया जाए। चेर्लेट , एन्न और एमिली - तीनों ब्रॉण्टे बहनों ने ऐसे नामों से लिखा जिससे लेखक का जेण्डर स्पष्ट न हो या पुरुष लगे। एमिली ऑर्बेक ने खुद को जेन ऑस्टेन किया।
यह उन्नीसवी सदी की बात थी। लेकिन इसी सदी की शुरुआत में हैरी पॉटर उपन्यास-शृंखला की लेखिका जोन ने पहला उपन्यास लाते हुए अपना नाम जे.के.राउलिंग किया जिससे पता ही न चले कि लिखने वाली कोई स्त्री है। इससे वे लड़कों को भी अपने पाठक के तौर पर आकर्षित कर सकती थीं। द गार्जियन ने 31 जुलाई, 2015 के एक लेख में एक अध्ययन का उल्लेख किया है जिसके अनुसार स्त्री-लेखकों के लगभग अस्सी प्रतिशत पाठक स्त्रियाँ ही होती हैं।( पुरुष उसे अपने पढने लायक नहीं समझते या स्त्री को लेखक ही नहीं समझते ! ) जबकि पुरुष-लेखकों को सालों से स्त्रियाँ पढती-गुनती आ रही हैं।  

आलोचना स्त्री-लेखन को ख़ारिज करने की जल्दी में रहती है

स्त्री-लेखन को अगम्भीरमानने की एक प्रबल धारणा रही है जो हर नई लेखिका को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करती है। दूसरी यह कि स्त्री-लेखन के महज़ बीस प्रतिशत ही पुरुष-पाठक हैं। तीसरी भी बात है एक। स्त्री-लेखन को ही अगम्भीर माना जाता है तब उसपर टिप्पणी/ आलोचना/ समीक्षा लिखने वाली स्त्री को भी उतना ही अगम्भीर माना जाता होगा। पुरुष-आलोचकों में स्त्री-लेखन को ख़ारिज करने का दम्भ यूँ ही नहीं आया। उनकी बात सुनी जाती है। भले ही कितनी भी अगम्भीर हो। यह साहित्य की दुनिया में लेखिकाओं की जमात के ऊपर पुरुषों को एक सत्ता के रूप में ही स्थापित करता है।



आलोचकों का यह रवैया नया नहीं है

अपने प्रसिद्ध उपन्यास जेन आयर के लिए जानी जाने वाली चेर्लेट लिखती हैं- “हमने शुरु से लेखक बनने का सपना संजोया था। यह सपना, जिसे हमने तब भी नहीं छोड़ा जब दूरियों ने हमें अलग किया और खपाऊ कामों ने उलझा लिया, उसे अचानक एक ताकत और रवानगी मिल गई: उसने एक संकल्प का रूप ले लिया। हम अपनी कविताओं का एक छोटा सा संकलन तैयार करने पर सहमत हुए और सम्भव हुआ तो उसके प्रकाशित कराने के लिए।। नज़रों में आने से बचने के लिए हमने करर, एक्तन और एलिस बेल के नाम से अपनी पहचान ढंक ली; एक ऐसा अपष्ट सा चयन जिसके पीछे एक ईमानदार सी झिझक थी और यह धारणा कि ईसाई नाम अवश्य ही मर्दाना होंगे, हम भी यह घोषणा नहीं करना चाह्ते थे कि हम स्त्री हैं, क्योंकि हमें संदेह था कि हमारा लिखने और सोचने का तरीक़ा वह नहीं है जिसे स्त्रियोचितकहा जाए- हमें यह लगता था कि लेखिकाओं को पूर्वग्रहों से देखा जाता है; हमने देखा था कि कैसे आलोचक उन्हें दण्डित करने के लिए चरित्र को हथियार बनाते थे और पुरस्कृत करने के लिए चापलूसी, जोकि सच्ची प्रशंसा नहीं होती थी ”- चेर्लेट ब्रोंटे, 19 सितम्बर 1850 (उपन्यास वदरिंग हाइट्सके1910 जॉन मर्रे एडीशन से) 

ब्रोंन्टे बहनें , चित्र इंटरनेट से साभार


 स्त्री के लेखकत्व/ ऑथरशिप का संकट

 मन्नू भण्डारी अपनी आत्मकथा में स्त्री के लेखकत्व से जुड़ी तमाम परेशानियों पर बात करती हैं। राजेंद्र यादव का लेखक होना हम जानते हैं लेकिन लेखक-पति होना मन्नू भण्डारी की आत्मकथा एक कहानी यह भी से सामने आता है। ख़ैर, यहाँ लेख से जुड़ी बात। मन्नू भण्डारी की जो शुरुआती दो कहानियाँ जो कहानी नामक पत्रिका में छपी उन्हें खूब प्रशंसा मिली। मन्नू लिखती हैं- “यहाँ एक बात ज़रूर कहना चाहूंगी कि कहानी पत्रिका में छपी शुरु की दो कहानियों के साथ मेरा चित्र नहीं छपा था और नाम स्पष्ट रूप से लिंग-बोधक नहीं था सो अधिकतर पत्र तो प्रिय भाईसम्बोधन से आए...ख़ूब हँसी आई, पर एक संतोष भी हुआ कि यह प्रशंसा लड़की होने के नाते रियायती बिलकुल नहीं है...(उस समय इसका भी बड़ा चलन था) विशुद्ध कहानी की है”


सिमोन द बोवा की किताब द सेकेण्ड सेक्स के हिंदी अनुवाद का एक अजब किस्सा  

प्रभा खेतान ने जब स्त्रीवादी क्लासिक द सेकेण्ड सेक्सका अनुवाद किया तब वे ऐसे ही संशय में थी कि जाने एक स्त्रीवादी किताब के एक स्त्री द्वारा किए गए अनुवाद को कैसे लिया जाएगा पाठकों के बीच। वे एक मज़ेदार घटना बताती हैं। जब किताब के लोकार्पण के लिए अखबार में विज्ञापन दिया गया तो यह देखकर प्रभा खेतान की हालत ख़राब हो गई कि अखबार ने सेक्स शब्द देखकर ही किताब के विज्ञापन को सेक्स-विज्ञापनों वाले कॉलम में डाल दिया है।  


यह जंग सिर्फ साहित्य की दुनिया में ही नहीं पत्रकारिता में भी थी

एलेन शोवाल्टर बताती हैं कि घर-परिवार के भीतर भी स्त्रियाँ जूझ रही थी। यह सिर्फ लेखिकाओं की ही समस्या नहीं है। स्त्री-पत्रकारों की भी है। उन्होने क्वार्टरली रिव्यू से एलिज़ाबेथ रिग्बी को उद्धृत किया है जो कहती हैं कि स्त्री-पत्रकारों को आरम्भ में बहुत अच्छा बर्ताव मिलता है जनता से जब वे अनाम लिखती हैं जिससे लगे कि किसी पुरुष का लिखा हुआ है।(लिट्रेचर ऑफ देयर ओन, पेज -49 ) एलिज़ाबेथ क्वार्टरली रिव्यू में नियमित रूप से लिखने वाली पहली स्त्री आलोचक और साहित्यकार थीं।
“द गार्जियन” के उस लेख में यह भी कहा गया है कि आज जब पुरुष उपन्यास पढना छोड़ डिस्कवरी और एच.बी.ओ को अधिक समय दे रहे हैं तब उपन्यास-कहानियों के पुरुष-लेखकों के लिए एक नया संकट उभरा कि वे अपनी कहानियाँ स्त्री-छ्द्म नामों से लिखें ताकि कम से कम स्त्री-पाठकों को वे विश्वसनीय लगें और उन्हें पढा जाए । छ्द्म स्त्री-मान से लिखने वाले तीन लेखकों का ज़िक्र लेख में है और वे तीनो अपनी स्थिति से संतुष्ट हैं।   तीन में से एक  शॉन थॉमस कहते हैं – “it arguably helps, these days, for fiction writers to be female, or at least not male.”


हिंदी की दुनिया में अभी ये प्रश्न प्रश्न ही नहीं हैं। अगर कुछ है तो कुछ और ही खेल हैं। 

हमारे यहाँ, कम से कम हिंदी में ऐसे आँकड़े निकालने और उनका अध्ययन करने की कोई ज़रूरत नहीं समझी जाती। छद्म-स्त्री-नाम से फेसबुक पर की जाने वाली कारस्तानियों को छोड़ दें तो असल में छद्म-स्त्री नाम से लिखने वाले कवियों का कोई कविता-संग्रह या उपन्यास हिंदी में अब तक नहीं आया है। स्नोवा बार्नो हंसमें छपी अपनी एक कहानी से एकदम चर्चा में आई लेकिन उनके स्त्री या पुरुष होने के बारे में अब तक कोई ठोस बात पता नहीं चली है। ऐसा संदेह लगातार जताया जाता रहा है कि वह कोई पुरुष है जो स्त्री-नाम से लिख रहा है।  न ही हिंदी लेखिकाओं-कवयित्रियों को स्वीकृति पाने और जगह बनाने के लिए पुरुष-नाम का सहारा लेकर लिखने की ज़रूरत पड़ी है। शायद हमारे यहाँ कवि/ लेखक की जगह बनाने में अभी पाठकों को इतनी बड़ी भूमिका नहीं मिली है। हमारे यहाँ अभी आलोचक, टिप्प्णीकार, साहित्यिक पत्रकारिता करनेवाले, बाज़ार और प्रकाशक ही यह काम कर रहे हैं।


(आने वाली किताब स्त्रीवादी आलोचना दृष्टि से एक अंश)

Tuesday, July 7, 2020

यह सुर्ख़ चांदऔरत के सपनों में उगा विद्रोही चांद है

‘एक औरत के लिए अपने पति से ज्यादा निज़ी क्या हो सकता है’ यह वाक्य धक से जाकर स्त्री के हृदय में लगता है। उसी हृदय में जहाँ पलते सपने, दुख, अपमान, अतीत, अवांछित सेक्शुअल कोशिशों के दंश और कामनाओं की जलती चिता रहती है। एकदम निजी। बगल में सोता पति उन्हें जीवन भर न जान पाता है, न जानना चाहता है। यह फिल्म का एक बेह्द सम्वेदनशील सीन है जब सर्वस्व अर्पित कर देने वाली पत्नी चौंक कर पलटती है। ऐसे ही पलटना है स्त्री को इतिहास के हर उस बयान पर जब उसके वजूद को नगण्य मान लिया गया।  रिएक्ट करना है। फ़िल्म को सब अपनी तरह से देखेंगे लेकिन जानना ज़रूरी है कि एक युवा छात्रा इसे किस तरह देख रही है।  चित्रा राज बुलबुल फिल्म के बारे में जो कहना चाहती हैं आइए पढें।

- सम्पादक




      हाल ही में नेटफ्ल‍िक्स पर रिलीज़ हुई फ़िल्म 'बुलबुल' बर्दाश्त न करने की कहानी है। मैं उसी के बारे में लिख रही हूँ। लिख रही हूँ क्योंकि जो महसूस किया है वह बताना चाहती हूं। बताना इसलिए नहीं है कि मन का कोई 'बोझ' उतर जाए, दरअसल 'बोझ' है ही नहीं। बताना इसलिए है ताकि और लोग भी बताएं। फिर बूंद-बूंद इकट्ठा होकर समुद्र बन जाए। 








स्त्रियों का अपनी बात ख़ुद ही कहना ज़रूरी है। इसलिए पहले तो बधाई क्योंकि 'Women telling women stories' अनविता दत्त ने फिल्म का निर्देशन किया है और स्क्रीनप्ले भी लिखा है। अनुष्का शर्मा फिल्म की निर्माता हैं। हम अपनी कहानी खुद बयां करें, किसी दूसरे की मौत ना मरे इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। ऐसे प्रयास मर्दों के फैलाए उस झूठ कि 'औरत ही औरत की दुशमन होती है' को नाश करने की तरफ बढ़ता कदम है।

कहानी का सेटअप है 1881 का बंगाल। अब कहानी भले ही पुराने वक्त के सहारे बुनी गई हो लेकिन जो सामाजिक त्रासदी है वह ज्यों का त्यों प्रासंगिक है।

कहानी शुरू होती है। एक छोटी बंगाली बच्ची बुलबुल की शादी हो रही है यानी बालविवाह हो रहा है। उसकी मां उसके पैर में बिछुए पहना रही है। बुलबुल अपनी मां से बिछुए पहनाने की वजह पूछती है। मां बताती है कि बिछुए लड़कियों को वश में करने के लिए पहनाया जाता है। बुलबुल फिर पूछती है 'मां ये वश में करना क्या होता है?'

ये दृश्य और फिल्म के दूसरे कई अन्य दृश्यों को देखते हुए आपको ईश्वर चंद्र विद्या सागर की याद आ सकती है जिन्होंने बंगाल में लंबे वक्त तक बाल विवाह, बेमेल विवाह, विधवा महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आंदोलन चलाया।

कहानी पर लौटते हैं। बुलबुल की विदाई होती है और डोली में लगभग उसी के उम्र का एक लड़का होता है सत्या। सत्या उसे कहानी सुनाता है। बुलबुल को लगता है सत्या से ही उसकी शादी हुई है लेकिन पहली रात को ही ये भ्रम टूट जाता है। बुलबुल को बताया जाता है कि उसकी शादी सत्या से नहीं बल्कि उसके बड़े भाई इन्द्रनील ठाकुर से हुई है...

समय बीतता है। बुलबुल बड़ी होती है। सत्या के साथ बुलबुल का लगाव जवानी में भी कायम रहता है। लेकिन ये लगाव बुलबुल के पति यानि सत्या के बड़े भाई इन्द्रनील ठाकुर को बर्दाश्त नहीं होता। लेकिन इस बर्दाश्त ना करने का परिणाम सत्या और बुलबुल दोनों के लिए अलग-अलग होता है।

परिणाम का यही अंतर पितृसत्तात्मकता समाज के एक बेहद ही घृणित पहलू को हमारे आंखों में बो देता है। शक से पैदा हुआ इन्द्रनील ठाकुर का मर्दवादी गुस्सा जहां सत्या को पढ़ने के लिए देश से बाहर भेज देता है, वहीं बुलबुल को इसकी अति पीड़ादायक कीमत चुकानी पड़ती है।

हम अपने घर-समाज में ऐसा हर रोज होता देखते हैं। हमारा समाज एक ही तरह की कथित गलती के लिए महिलाओं और पुरुषों को अलग-अलग सजा देता है और ये फैक्ट बहुत ही सहज रूप से स्वीकार्य भी है।उदाहरण से समझिए...

1. अगर किसी पिता को अपने बेटे के प्रेम संबंध के बारे में पता चलता है तो उसे 'इन सब' से बचाने के लिए शहर पढ़ने भेज दिया जाता है। लेकिन अगर बेटी के प्रेम संबंध के बारे में पता चलता है तो ऑनर किलिंग हो जाता है, अगर पिता दयालु हुए तो बिना मर्जी कहीं ब्याह कर दिया जाता है।

2. अगर किसी लड़के का संबंध एक से अधिक लड़कियों के साथ होता है तो हमारा समाज उसे 'स्टड बॉय' कहता है। लेकिन अगर किसी लड़की का संबंध एक से अधिक पुरुषों से होता है तो वही समाज उसे 'रंडी' कहता है।

3. हमारे समाज में लड़कों के सिगरेट-शराब पीने से उनका स्वास्थ्य खराब होता है लेकिन लड़कियों के सिगरेट-शराब पीने से उनका कैरेक्टर खराब हो जाता है।

फिल्म में कई ऐसे सम्वाद भी हैं जो आज भी समाज में मौजूद रहकर पितृसत्ता की जड़ों को पुष्ट कर रहे हैं। जैसे बुलबुल अपने पति के किसी सवाल के जवाब में कहती है ‘वो तो मेरा कुछ निजी काम था’ इस जवाब से हैरान पति कहता है ‘एक औरत के लिए अपने पति से ज्यादा निज़ी क्या हो सकता है’

जाहिर है जिस समाज में 'जोरू (स्त्री)' की गिनती 'जड़ (धन)' और 'जमीन' के साथ होती है वो समाज बुलबुल के सवाल से हैरान होगा ही। जिस समाज में स्त्रियों को पुरूष अपनी संपत्ति समझते हैं और देश का सर्वोच्च न्यायालय मैरिटल रेप के खिलाफ दायर की गई जनहित याचिका पर सुनवाई करने से इंकार कर देता है वहां के मर्दों का बुलबुल के जवाब पर हैरान होना तो बनाता है।

स्त्री को संपत्ति समझने की समझ पुरुषों में बचपन से पैदा की जाती है। बहन जब घर से दुकान भी जाती है तो छोटे भाई को साथ भेजा जाता है... संपत्ति की रक्षा के लिए। फिर वही बच्चा बड़े होकर किसी बुलबुल के जवाब पर इन्द्रनील ठाकुर की तरह हैरान होता है।

कुल मिलाकर फिल्म को तीन भागों में बांटा जा सकता है- पहला भाग बुलबुल का बचपन है। बीच में जवानी, आकर्षण, ख्वाहिश और विरह। अंत में है विरह से उत्पन्न हुई तड़प और यातना से उपजी न्याय की भावना। इस न्याय को कुछ लोग बदला भी समझ सकते हैं। समझने दीजिए।



फिल्म में एक बहुत ही हृदय विदारक घटना के बाद बुलबुल की देवरानी उससे कहती है 'बड़े महलों के बड़े राज होते हैचुप रहना कुछ मत कहनाथोड़ा पागल है लेकिन शादी के बाद ठीक हो जाएगासब मिलेगापति से ना सही उसके भाई से... सब मिल मिलेगागहने मिलेंगेरेशम मिलेगा। चुप रहना।


फिर बुलबुल चुपचाप सबको चुप करा देती है। सिस्टरहुड का असली नजारा तब मिलता है जब बुलबुल अपने जैसी और भी महिलाओं को अपने तरीक़े से इंसाफ दिलाती है।

'आधी आबादी' के खिलाफ जिन पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले पुरुषों ने पूरी जंग छेड़ रखी है उन्हें डर लगना चाहिए। शायद इन्हें भविष्य के भूचाल की आहट सुनाई नहीं दे रही? या शायद सुनकर भी अनसुना कर रहे हैं। जो भी हो मेरा तो यही सुझाव है कि डरना शुरू कर दो, क्योंकि बराबरी तो आप कभी ला नहीं सकते। पितृसत्ता की कब्र खुद रही है। अब 'आधी आबादी' अपना हक मांगेंगी नहीं छीन लेंगी।

फिर आप में से कुछ लोग हमें डायन और चुड़ैल कहेंगे... बचे खुचे कथित समझदार लोग हमारी 'न्यायिक प्रक्रिया' को क्रूर और बदला लेने वाला बताएंगे। हालांकि अब आपके कहने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।

पितृसत्ता के नशे में चूर आप मर्दों को शायद कोई खतरा नहीं दिख रहा होगा। नक्सलबाड़ी में उस सामंती को भी नहीं दिखा था, जब उसने एक भूखे बच्चे की मां के स्तन का दूध खेत में छिड़क दिया था। फिर जो हुआ उसे आज तक देश की आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में जाना जाता है।

 सिनेमा के जानकार लोग इसे हॉरर ड्रामा कैटेगरी की फिल्म है। यह बात सही है कि फिल्म डरावनी लगती है। लेकिन  शुतुरमुर्ग बने समाज के लिए उसकी सच्चाई तो डरावनी होगी हीखैर! फिल्म समीक्षक भी इस फिल्म में कई तरह की खामियां गिनवा सकते हैं (जिसमें से कई दुरुस्त भी हैं) लेकिन मैं समीक्षक नहीं हूं। मैं इस फिल्म को देखते हुए सिर्फ 'दर्शक' भी नहीं थी। मैं इस फिल्म को देखते हुए एक 'लड़की' 'भी' थी। जो कही गई वो मेरी कहानी थी। हमारी कहानी थी। 'हम' जिन्हें 'वे' हमेशा कम समझते हैं।

अंत में
फिल्म में एक चांद दिखाया गया है। वह चांद श्वेत या स्याह नहीं है बल्कि सुर्ख लाल है। वह लाल विद्रोही चांद सिर्फ बुलबुल का चांद नहीं है। वो चांद इस दुनिया की उन तमाम महिलाओं के सपनों में हर रात उगता है जो पितृसत्ता की शिकार हैं।






चित्रा राज दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा हैं। फिलहाल एसओएल से बीए प्रोग्राम की पढ़ाई कर रही हैं लेकिन मन हिंदी साहित्य में रमता है। 

अनुप्रिया के रेखांकन

स्त्री को सिर्फ बाहर ही नहीं अपने भीतर भी लड़ना पड़ता है- अनुप्रिया के रेखांकन

स्त्री-विमर्श के तमाम सवालों को समेटने की कोशिश में लगे अनुप्रिया के रेखांकन इन दिनों सबसे विशिष्ट हैं। अपने कहन और असर में वे कई तरह से ...