देबाशीष बहुत सन्यत और संतुलित लिखते हैं । चैट पर भी बातचीत हुई है ,कई बार । उन्हें भी चोखेर बाली का सदस्य होने का निमंत्रण भेजा था ।
जवाब में उनका जो पत्र आया , उसे देख कर स्तब्ध थी । इतनी साफगोई ! गोया अब तक जो बाकी पुरुष कह नही पाए [पोलिटीकली इनकरेक्ट होने से चुप रहना बेहतर होता है न! ] उसका जवाब भी मिल गया हो।
जैसा का तैसा उस पत्र को छाप रही हूँ ,देबाशीष से पूछ कर ।
प्रिय सुजाता,
आमंत्रण के लिये शुक्रिया! चोखेर बाली (क्या ये कहीं कहीं वाली नहीं लिखा है?) बेहद अच्छा प्रयास है। मुझे अविनाश का बेटियों का ब्लॉग भी भला लगा, मन मसोस कर रह गया काश मेरी भी एक बेटी होती।
पर मैं शायद चोखेर बाली के दल में मिसफिट रहुंगा, क्योंकि मैं भी अफसोसनाक रूप से दकियानूसी और मॉडर्निटी का होपलेस हाईब्रिड हूं , सबूत के तौर पर मुझे बिना कोसे http://nuktachini.debashish.com/127 या http://nuktachini.debashish.com/60 देखें। मेरी बीवी नौकरीपेशा है पर सच्ची बात यह है कि मुझे यह फूटी आँखों पसंद नहीं। इसके बावजूद मैं उसको तालाबंद या बुर्कानशीं नहीं देख सकता। होम मेकर औरतें कामकाजी ओरतों से हज़ार गुना अच्छी होती हैं यह घुट्टी मैंने पी रखी है और उम्र के ऐसे पड़ाव में हूं जहाँ ऐब की ये विकृत पूँछ सीधी न हो सकेगी।
और इन सबसे बड़ी बात यह कि मैं दरअसल लिख ही कितना रहा हूँ, आपको नियमित लेखकों की तलाश जारी रखनी चाहिये। मेरा इस प्रयास को "बाहर से समर्थन" हमेशा रहेगा।
आभार और शुभकामनायें,
देबाशीष
शायद यह स्वीकार कर लेने के बाद ही पुरुष पत्नी , बहन , बेटी ,और चोखेर बाली को समझने और सराहने केलिए तैयार होगा अकुंठ भाव से ।
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17 comments:
देबाशीष की ईमानदारी बेहतर है, सचमुच बेहतर। प्रगतिशील होने, दिखने की नौटंकियों से कहीं ज्यादा बेहतर। स्त्रियों के प्रति संवेदनशील दिखना, स्त्री संबंधी मुद्दों पर मुंह चलाना, जेंडर कॉन्शस पुरुष होना भी एक किस्म का फैशन है। सुजाता, एक बहस इस पर भी होनी चाहिए, प्रगतिशीलता और संवेदनशीलता की नौटंकियों पर।
मैं मनीषा की बात से सहमत हूं !इस विषय पर पुरुषों द्वारा स्वीकारोक्तियों का प्रयास करती चर्चा चले तो संवाद कायम होगा!
अच्छा लगा.
वाकई!!!
हम भी तैयार है । खुब पोले खुलेंगी
लो हम ऐसे ही डर जाते हैं... :)
सही कहा है देबाशीष ने। हम मर्दों में अंतर्विरोध हैं जो हमारी निर्मिति की टकराहटों से उपजते हैं। अगर हम इन अंतर्विरोधों भर कोसामने रख दें तो शायद ये स्वीकृतियॉं अच्छे फेमिनिस्ट दस्तावेज सिद्ध होंगी
सहमत
imaandaar baat
नौटंकी से बेहतर है ऐसी ईमानदारी .. सही लेकिन कितनी दुखद ! जब एक तरीके की संवेदनशीलता और संतुलन के बावज़ूद देबाशीष ऐसी मानसिकता से छुटकारा नहीं पा सक रहे तो कम संवेदन वाले व्यक्ति से क्या उम्मीद ... कैसी बीहड़ लड़ाई है और हम टुकड़ों पर पलने को इतने आदी कि ऐसी ईमानदारी में भी खुश होने का बहाना ढूँढ लेते हैं । बट स्टिल वी आर नॉट राईटिंग यू ऑफ देबाशीष !
pratyaksha,
सही कहा । हम टुकडो पर पलने के आदि इसमे भी खुश हो रहे है कि चलो खुल कर स्वीकारा तो ...कि हम फ्यूडलिस्ट हैं .....
मनीषा और नीलिमा हैस अ पॉइंट !
काकेश ......!क्या अच्छा लगा ?
रजेश रोशन , मसिजीवी ,उडनतश्तरी , और विखण्डन तैयार रहें .....
हमे ऐसी इमानदारी के गल्मारईज़शन से बचना चाहिये । रुधिवादिता का प्रचार जितना कम हो उतना अच्छा होगा । किसी की इमानदारी अगर एक ग़लत चीज़ को उजागर करती है तो ऐसी बातो को नज़रअंदाज कर के उन लोगो को सामने लाये जो पोलिटीकली हमेशा करेक्ट होते हैं ताकि लोग देख सके की वो जो कहते है वह केवल दूसरो के लिये होता है । हमारे नियम हमारे घर मे एक और बाहर दूसरे होते हैं । ये सच तो पहले ही जग जाहिर हैं बार बार कहने से क्या नया होगा ?? जो भी लिखना चाहे वह ये बताये की उन्होने अपनी "दी हुई " रुधिवादी सोच को कितना बदला है । कितना वो अपनी पुरानी पीढ़ी से आगे बढे हैं । जो हमे सिखाया जाता है वो उस समय के लिये सही होता है पर जैसे जैसे समय बदलता है "सिखाया हुआ " और निखारना होता है और इसके लिये हमारी "सोच" हमारा "निज" ही हमारा अपना होता हैं । संस्कार से मन शुद्ध होता है और विद्या से दिमाग । ब्लोग्गिंग मे ज्यादातर बहुत ही पढे हुए है फिर भी ऐसी दकयानुसी सोच को नहीं बदल सके है । समाज को क्या बदल पायेगे ।
रचना said...
जो हमे सिखाया जाता है वो उस समय के लिये सही होता है पर जैसे जैसे समय बदलता है "सिखाया हुआ " और निखारना होता है और इसके लिये हमारी "सोच" हमारा "निज" ही हमारा अपना होता हैं ।
**बिल्कुल सही कहा । अंतर्विरोधो को सामने लाने मे देबाशीष की पोस्ट सहायक हुई है । यह पोस्ट "ग्लैमराइज़ेशन" के लिए बिलकुल नही है ।
शायद आईना दिखाए । देबाशीष अब शायद होपलेसली हाइब्रिड न रहेंगे ।
इस तरह ईमानदारी से अपनी बात कहना अच्छा लगा.
सचमुच लगता है बीते हुए कल में हम चले गये हैं...मगर इस बात पर दुख नही की देबाशीष जी ने सच कहा,हमारे घर के बड़ो के विचार आज भी ऎसे ही हैं,उनकी नजर में औरत का नौकरी करने से ज्यादा जरूरी है घर संभालना...मेरे ख्याल से इसमे भी कुछ बातें समझ लेना बेहद जरूरी है कुछ औरतें मजबूरी में नौकरी करती हैं...कुछ औरतें अपने सुख की खातिर शौकिया तौर पर नौकरी करती हैं...अगर पति घर चलाने में सक्षम है तो औरत के लिये घर को घर बनाये रखने के लिये बहुत काम हैं,घर औरत ही से बनता है इसिलीये उसे माँ कहते हैं,इस तरह मै देबाशीष जी से सहमत हूँ,कि नौकरी करना औरत के लिये जरूरी तभी है जब पुरूष लाचार या नक्कारा हो...
एक बात और भी है आज नौकरी करना फ़ैशन सा हो गया है,नौकरी शुदा लड़कीयों को अच्छे रिश्ते मिल जाते है...एक और मुख्य बात जिस पर मै सभी का ध्यान आकर्षित करना चाहूँगी...औरत पर रात-दिन बढ़ते अत्याचार ने उसे नौकरी करने पर,अपने अधिकारों के लिये लड़ने पर विवश किया है,वरना औरत सौलह सिगांर कर घर में बहुत खुश थी,उसे घर से बाहर निकाला है उस पर होते जुर्मो ने...आखिर कब तक सहती??? एक न एक दिन तो उसे अपना यह रूप भी समाज को दिखाना ही था न कि वह भी किसी से कम नही है,पुरूष की तरह रह सकती है पैसा कमा सकती है देश की बागडोर सम्भाल सकती है सेना में भी भर्ती हो सकती है...क्या आज के बदलते परिवेश को देख कर भी देबाशीष जी यही कहेंगे की मै अपनी बेटी को यह राय नही दूँगा की वो नौकरी करे(मै जानती हूँ उनकी कोई बेटी नही)इश्वर न करे लेकिन अगर किसी गृहणी के सिर पर घर का खर्च उठाने की जिम्मेदारी आ जाये तो वह क्या करे???
अगर आपके पास जवाब है तो चाहूँगी अवश्य दें...
सुनीता शानू
देबाशीष जी का बेबाकपन अच्छा लगा। हाँ ये एक और चर्चा का विषय हो सकता है
devasheesh ki saafgoii bahut achchhi lagi... apane bheetar jhankana zyada aasan hoga...
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