हमारी पाँच साल की गुड़िया कागज़ पर कार बना रही थी। बनाकर पापा पास जाकर दिखाया। मैं दूर से देख रही थी। कार में लाइन से चार पहिये थे,दो खिड़कियाँ,एक ड्राइवर। पति ने बड़े प्यार से पास बुला कर पूछा...., “क्या इस कार में आठ पहिये हैं?”
गुड़िया बोली , “नही...चार ही हैं.....वन,टू,त्री,फोर....”
पति ने खिलौने वाली एक कार ली...साइड़ से दिखाया और पूछा..... “कितने पहिये दिखते हैं बेटा....?”
“टू पापा....”
“चार पहिये वाली गाड़ी में दो ही पहिये साइड़ से दिखते हैं ” ,वे समझाते हुए बोले।
थोड़ा घुमा कर पूछा...., “अब बताओ”
“त्री”
कार उलटा पकड़ पर पूछा.... “अब?”
“फोर....
आई अन्डरस्टुड पापा । ”
दृष्टिकोण एक अहम बात है। बात अलग ऐंगल से अलग दिखती है। गलत कोई नहीं होता ....पर अक्सर सब के पास अधूरा सच होता है।
चोखेर बाली....
पता नहीं इसका एजेंडा क्या है।
पर जहाँ तक मैं समझती हूँ यह विभिन्न् दृष्टिकोण से एक सच देखने का प्रयास है ताकि इस सच में जो बदलाव लाना चाहते हैं ला सकें।
जाहिर है अलग अलग जगह से यह सच अलग ही दिखेगा। जिंदगी और इसके अनुभव सभी के लिये अलग हैं।
किन्तु हर आवाज़ के पीछे समान दृष्टिकोण रखने वाले कई लोग मूक होकर खड़े हैं। एक आवाज़ पता नहीं कितने लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है। इसीलिये हड़बड़ाहट में सही आवाज़ और सही दिशा चुनने में जल्दबाजी सही नहीं है।
पतनशीलता को लेकर पिछले दिनों इतनी बहस हुई। शब्दों के हेरफेर को अगर नज़रअंदाज़ करें तो सभी एक ही बात चाहते हैं। स्त्री की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार। जिसने जितनी मेहनत से यह हासिल किया ....वो उतने ही प्रभावशाली तरीके से अपनी बात कह गया।
बचपन में वादविवाद प्रतियोगिता होती थी। जो ज्यादा स्मार्ट होता था वो हमेशा मुश्किल पक्ष ले लेता। फिर शब्दों की ताकत से अपनी बात साबित करता।
शब्दों में यह ताकत हमेशा रही है। कोई भी वकील इस बात से इंकार नहीं कर सकता। सही को गलत...और गलत को सही साबित करना ..शब्दों के जरिये.....कोई मुश्किल काम नहीं है....। कभी तो इन्हे लेकर इतना उलझाया जा सकता है कि पता ही नहीं चलता कि बात सच में क्या थी।
पर यह मंच शब्द की ताकत के लिये नहीं है। बात की प्रासंगिकता के लिये है। ऐसी बात जो कि कोई ऐसे सच को बतला सके जिसकी रौशनी में हम स्वयं को, अपने रवैये को ....अपने समाज को बेहतरी के लिये बदल सके। हर बार बात की प्रासंगिकता तोल कर बोलना कठिन है। कई बार जिज्ञासा, आतुरता हमें व्यर्थ बातों पर ध्यान बाँटने पर विवश करती है। पर मंच तो तभी सफल हो सकता है जब बात को बात से काटें या जोड़े...संयत रह कर....तभी सार्थक बहस हो सकती है।
चोखेर बाली स्त्री को पुरुष बनाने की लड़ाई नहीं है।
स्त्री पुरुष नहीं है। होना भी नहीं चाहिये। पुरुष भी स्त्री नहीं हो सकता।
कई बातें लाइन से कही जा सकती है... पर सिर्फ एक ही कहूँगी....
एक पुरुष अपने बच्चे के जन्म के बाद जब काम पर लौटता है...तो मिठाई के डिब्बे के साथ। एक औरत जब लौटती है तो ऐसी अवस्था में कि शिशु के ख्याल भर से दूध में भीग जाती है........
संवेदना , कोमलता, ममता.....यह कोई थोपी हुई धारणायें नहीं है....स्त्री के संयोजन से तत्त्वत: जुड़ी हुई हैं। अदायें नज़ाकत स्त्री ही क्यों......यह एक ऐसा कुदरती सवाल है जो शायद नाचते हुए मोर से भी पूछा जाना चाहिये...... । हॉरमोन्स के असीम उतार चड़ाव से बनते बिगड़ते व्यक्तित्व से जुड़ी कुछ बुनियादी स्वभाव है....जो अपने आप में एक सच है।
चोखेर बाली उन सच को कहने का मंच नही है। इसीलिये शायद पतन के उदाहरण, प्रेम के प्रसंग के अनुभव कहने का भी नहीं है।
और सच तो यह है कि इसमें कुछ रहस्यपूर्ण है भी नहीं। पुरुष का सोलह बरस का प्यार, कॉलेज और गली में की गई छेड़छाड़....वैश्यालय, शादी, बुढ़ापे का इश्क....इन सभी में एक स्त्री भी साथ है। किसी पुरुषों के ब्लॉग में ज्यादा उपयुक्त बहस हो कि पुरुष को ऐसी बातों की स्वीकारोक्ति से इतना परहेज क्यूँ है।
बहरहाल ....अच्छी बात है कि कुछ लोग आगे आये। बात करना चाहते हैं। कुछ सार्थक हासिल करना चाहते हैं। नज़रिया बदलना चाहते हैं।
एजेंडा कभी डिक्लेर नहीं किया....शायद अब होना चाहिये।
काफिला बना है....मंजिल कुछ कुछ पता है.....रास्ता ढूँढना है.....
कुछ जायके का अंदाज़ा है....धीमी आँच पर कुछ बात पकानी है.....बीच में बात चलाते रहना है....कहीं कुछ जल बिगड़ ना जाये....
और बात बन जाये.....
सवाल कई हैं जिनपर ध्यान जाना चाहिये.....
• स्त्री के जन्म से पहले उसकी हत्या
-क्यों,इसके लिये क्या कर सकते हैं, क्या बदल सकते हैं
• बेटी और बेटे के बीच में पक्षेपात
क्यों,कैसे बदलें
• स्त्री के रूढ़िबद्ध व्यक्तित्व की छवि
क्यों विकसित हुई,कैसे बाहर निकालें इस छवि से
• समाज में क्या बदलाव लायें की एक माँ बच्चे के शिशुकाल में भी समाज को अर्थपूर्ण योगदान दे सकें
• प्रतिभाशाली लड़कियों के रास्तों में से बाधायें घटाने में समाज में क्या बदलें
• सरकार की कौन सी नीतियों पर पुनर्विचार करें कि माता पिता को लड़की से भी वही सुरक्षा का अहसास हो।
• पश्चिम सभ्यता को देख समझ परख कर किस तरह ध्यान रखें की जिन परेशानियों ने उन्हे आ घेरा है....हमें नहीं घेरे।
समान अवसर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, उनमुक्त विचार......
इतना बेटी को देनें में जो अड़चनें हैं...उन्हे दूर करना होगा।
शायद कुछ पीछे जाकर अंतरावलोकन भी करना चाहिये कि समाज में ऐसी स्थिति का विकास किस अवस्था में हुआ । कारण जानने पर उपाय आसान होगा।
काफी हद तक यही लक्ष्य लेकर अभी तक चोखेर बाली चली है। पर अब शायद इसे एक स्वरूप की जरूरत है जहाँ इसके मकसद तक जाने के लिये कोई रेखाचित्र हो।
यह मंच भी उतना ही सक्षम और समर्थ हो सकता है जितना की इसको इस्तेमाल करने वालों के साथ खड़े रहने का सामर्थ्य......
बात कहने के लिये...ज़ोर से कहने की कभी जरूरत नहीं पड़ती.....
बात काटने के लिये भी नहीं....
गर बात में ही दम हो तो खुद अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है.....
मंच नया है....आकर्षक है...आसपास ध्यान खिंचने की सँभावना बहुत है...
मंच के निपात का भी कुछ लोग बेसब्र हो इंतज़ार कर रहे हों.....
ऐसे में .....चोखेर बाली अपनी तमाम संभ्रान्ति को साथ रख....आगे कोई मकसद पाने में सक्षम हो ऐसा आशावाद मैं रखना चाहती हूँ।
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16 comments:
सवाल क्या-क्या हों, इसका मुझे ठीक-ठीक अंदाज़ नहीं.. लेकिन यह स्पिरिट सही है.. इतनी लिखाई का शुक्रिया..
ह्ह्म्म्म्म...पढ़ा, अच्छा लगा।
मै आपकी बात से सहमत हूँ... :)
well said Beji
मुद्दो तो साफ करने की सार्थक कोशिश। बेजी. आपने बहुत अच्छा लिखा है। गर्द-गुबार उड़ाने के बजाय महिलाओं के सवालों को उठाने का एक मंच बनना होगा चोखेर बाली को।
सहमति
बहुत खूब.
विश्लेषण आपका बहुत सही है.
मैं पूर्णतः सहमत हूँ.
प्रमोदजी के शब्दों मे लिखाई के लिए धन्यवाद.
बहुत अच्छी और गंभीर बात कही है आपने। चीखने-चिल्लाने एक दूसरे को गरियाने से कुछ नहीं होने वाला। निसंदेह ऐसा किसी का मकसद भी नहीं होगा। जरूरत है सार्थक प्रयासों की। आपकी बात पढ़कर लगा कि आपकी सोच के पीछे पूरी गंभीरता है। ऐसा ही होना चाहिये। शुभकामनायें।
maine sirf first part wala kissa padha..
achha laga, bachho ko sikhaane ka ye tarika pasand aaya..!!
future me aajmaaunga. :)
बहुत सही. बहस में सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है धीरज की, मेरा मानना है कि अदालत की बहस और कॉफी हाउस की बहस में अंतर होता है और होना भी चाहिए. मुझे कॉफी हाउस वाली बहस में ज्यादा लुत्फ़ आता है. एक बात और, बहस में भाव ज़रूर हो लेकिन भावुकता कम हो तो आपके विरोधी भी आपको सुनेंगे.
बहुत अच्छा लिखा। यही व्याख्या हो सकती थी।
बहस में भाव हों , भावुकता से बचें। यह भी बात सही है अनामदास जी की , मगर इसके बावजूद लोग अजीब से बातें लेकर आते ही हैं न....! क्या किया जाए ?
आपने ठीक कहा ! एक बात और क्रेडिट के सवाल बहुत बेमानी हो जाते हैं जब हम बहुत मौलिक सवालों को -अपने ही सवालों को उठा रहे हों !
ab to bilkul hi spsht ho gya ki kuchh nhi yh mje-mje me bahas mjavad ke lie hi chl rhi hai...coffee ka pura mja mile islie... dad...imdad mile islie...
lge rhie...hme to chokherbali se bahut ummid thi pr ab lgta blogbaji chutiyapa hai sirf..
Aap ka (Chokherbali ka) agenda toe bahut badhiya hae..
Agar aap doosrae chithon per jaayen to patta chalega ki kayee chitthe aap ke agenda ke anooroop hi hein aur koye lekh mein, koyee kavita mein koye vyang mein... wahi baat keh raha hae jo aap kahana chaahte hein...
साफ-सुथरा और सार्थक हस्तक्षेप . बेजी के मूलभाव से सहमति है .
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