हम भी हैं जोश में
आभा
सात मार्च के अमर उजाला में छपे सुजाता नेवतिया के आलेख में अपना नाम देख कर अच्छा लगा। पूरा लेख पढ़ने के बाद लगा बेजी, घुघूती, नीलिमा सब बिल्कुल सही कह रही हैं...वहीं प्रत्यक्षा और मनीषा से असहति भी नहीं जताई जा सकती......क्योंकि उनकी बातों में कहीं न कहीं दम भी है...
फिलहाल यही कहना चाहूँगी कि लगी रहो सब 'मुन्नी बहन' बात खुद ब खुद निकल कर आएगी। और जब बात लिकनेगी तो दूर तक जाएगी......गई भी है सुजाता के इस आलेख से....चोखेर बालियों की धमक वे भी सुनेंगे जो अपने कान में रुई डाल कर पड़े हैं....यानि वे भी सुनेंगे जिन्हें अपनी घरेलू दिन चर्या के अलावा दुनिया जहान से कोई लेना-देना नहीं है... एक बार फिर कहूँगी लगी रहो मुन्नी बहन...बातें बहुत हैं फिर कहूँगी....आज मेरी बहुत पुरानी लेकिन एक छोटी कविता पढ़े-
औरत एक पंछी
एक औरत
पंछी की तरह उड़ना चाहती है
वह भूल गई है
कि वह एक औरत है
वह पाना चाहती है
वह सब कुछ
जो खो गया था कहीं
या छूट गया था किसी डाल पर
किसी घोसले में
वह उड़ती है बार-बार
गिरती है बार-बार
वह औरत है
वह ढीठ है...
वह निर्लज्ज है
बेहया है वह...कि
मार धिक्कार और फटकार के बाद भी
उड़ती है बार-बार
गिरती है बार-बार
पंख कट रहे हैं...
दम घुट रहा है
पर
उड़ने का सपना कभी नहीं छूट रहा है...
एक औरत
पंछी की तरह उड़ना चाहती है
वह भूल गई है
कि वह एक औरत है।
५ अप्रैल 2003
अपनाघर ,आभा,उडान,औरत ,पंछी
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10 comments:
बहुत बढ़िया ।
सही है..अति उत्तम.
सही है। सपने साकार हों।
हम भी हैं जोश में
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यह पंक्ति बहुत अच्छी लगी :-)
सुन्दर कविता है ।
भूले नहीं तो जिंदा कैसे रहे।
बहुत बढ़िया!!
चाहत उड़ने की पूरी होगी ही
आसमान होगा कभी तो मुट्ठी में
सुन्दर रचना है।
आभा जी, बोलने व असम्मति में शामिल होने के लिए धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
chalie, aap ke mukh se na sahii, dekhane v padhne ko to mil gaii. badhaaii.
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