-आर. अनुराधा
खबर विश्लेषण की पीठ पर खबर विश्लेषण! मेरा कोई दोष नहीं। अखबारों ने इसे खूब छापा। हम तो सिर्फ ज़िक्र कर रहे हैं। अब अखबार कौनसी खबर क्यों और कैसे छापते हैं, यह चर्चा किसी और दिन। खबर संक्षेप में यह कि दिल्ली में दो बहनें शनिवार को सुबह अपने काम पर जाने के लिए निकलीं तो गली के तीन लड़कों ने उनके साथ शर्मनाक बर्ताव किया, लोगों के बीच उनके कपड़े तक फाड़ डाले। ये लड़के रोज़ उनमें से एक लड़की को छेड़ते, परेशान करते थे। लेकिन उस घटना के रोज़ उनमें से एक, जो कराटे जानती थी, ने विरोध जताया जिससे बिफरे लड़कों ने उन पर हमला ही बोल दिया।
खबर पढ़ने के बाद मेरे जेहन में जो बात सबसे पहले दर्ज हुई वो ये कि उस दिन कराटे जानने वाली लड़की ने रोज़ रोज़ सताए जाने का विरोध (पहली बार?) किया। नतीजतन लड़के जो अब तक अपने आनंद के लिए उन्हें रास्ते में आते-जाते सताया करते थे, नाराज हो गए। लड़की, तेरी ये मजाल कि हमारे आनंद में खलल डाले! ये ले आगे के लिए सबक। लेकिन इन लड़कियों ने ऐसा कोई सबक सीखने की बजाए उन लड़कों को ही उनके इंसान होने के सबक याद दिलाने की कोशिश की। नतीजे में उनके कपड़े फाड़ डाले गए, बेइज्जत किया गया।
लेकिन लड़कियों, विश्वास करो, इस हाल में भी जीत तुम्हारी हुई है क्योंकि तुमने विरोध किया है। तुम दोनों अपनी लड़ाई लड़ती रहीं और पच्चीसों लोग तमाशा देखा किए। उस अभद्र व्यवहार, कमजोर पर अत्याचार को देखकर एक भी व्यक्ति आगे नहीं आया- इसका भी खयाल न करना। क्योंकि उन तमाशबीनों का जमीर उन्हें कभी-न-कभी इस बात के लिए जरूर कुरेदेगा भले ही इसके लिए उन्हें अपनी मां-बहन-बीवी के साथ यह होने तक इंतजार करना पड़े।
तुम शायद डर रही होवोगी कि वो तीनों गिरफ्तार होने के बावजूद जल्द ही छूट जाएंगे और फिर शायद और भी बुरे तरीके से बदला लेने की कोशिश करेंगे। यह डर तो हमें भी है क्योंकि इसे हटाने का उपाय भी तो आसान और छोटा नहीं है न! मौजूदा व्यवस्था हमें इतना भरोसा कहां देती है कि बीसियों चश्मदीद गवाहों के सामने दिन-दहाड़े हुए इस अनाचार में शामिल जाने-पहचाने, हमारे अपने लोकल अपराधियों को जल्द और पूरी सज़ा मिल पाएगी ताकि समाज में उन जैसे लोग फिर ऐसा कुछ करने से डरें और पीड़ितों को पूरा न्याय मिले।
इसके बावजूद तुम्हें विश्वास रखना होगा अपने पर, अपने जैसों पर। और इस विश्वास को अपने तक सीमित रखने की बजाए, मैं तो कहती हूं, अब वक्त आ गया है, इसे बढ़ाने का, जोड़ने का, जुड़ने का। व्यक्ति के खिलाफ व्यक्ति अपनी लड़ाई चाहे लड़ और जीत पाए, संगठित हुए बिना व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई नहीं जीती जा सकती। इसके अल्पकालिक नतीजे भले ही मिल जाएं, पर इसके जारी रहने और दीर्घकालिक परिणाम पाने के लिए ज्यादा-से ज्यादा लोगों को जुड़ना पड़ेगा।
हम सब पढ़ लिख गई है। पढ़ती भी रहती हैं- पढ़ाई के अलावा अखबार-किताबें भी। टीवी-सिनेमा देखती हैं और बहुत कुछ जानती भी हैं, सिर्फ ज्ञान से नहीं हुनर, अभ्यास से भी। विषय की जानकारी होना एक बात है, उसके बारे में सचेत और जागरुक होना इसके आगे की बात। तो क्यों न अपने ज्ञान को जागरुकता के स्तर पर ले आएँ, आपस में बांटें और पा ले अपने लिए वह सब जो हमारा हक है, जो हमेशा मारा गया है, जो हमें मिला भी तो दया या अहसान की तरह। जो हमें उम्मीदें सजाने का कारण दे, सपने पूरे करने का रास्ता दे और दे एक भरपूर जिंदगी देने का मौका।
आइए हाथ उठाएँ हम भी/
हम जिन्हें हर्फ़े दुआ याद नहीं/
हम जिन्हें सोज़े मोहब्बत के सिवा/
कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं
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12 comments:
everything u said is correct ...we will have to fight for ourselves...without waiting others for help...
झकझोरने वाली पोस्ट अनुराधा. तुम्हारी खासियत यह है कि तुम्हारा लेखन दिल और दिमाग दोनों जगह करीब-करीब एक साथ पहुंचता है और पाठकों को किसी भी सूरत मे अछूता नही रहने देता.
'उन तमाशबीनों का जमीर उन्हें कभी-न-कभी इस बात के लिए जरूर कुरेदेगा भले ही इसके लिए उन्हें अपनी मां-बहन-बीवी के साथ यह होने तक इंतजार करना पड़े।'
और
'इस विश्वास को अपने तक सीमित रखने की बजाए, मैं तो कहती हूं, अब वक्त आ गया है, इसे बढ़ाने का, जोड़ने का, जुड़ने का। व्यक्ति के खिलाफ व्यक्ति अपनी लड़ाई चाहे लड़ और जीत पाए, संगठित हुए बिना व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई नहीं जीती जा सकती।'
तुम्हारे सटीक विश्लेषण ने इस पोस्ट को व्यापक दायरा प्रदान किया है. ह्रदय से आभार.
बहुत सही बात कही अनुराधा जी ,
वाकई यह बडी बात है कि लडकियों ने विरोध दर्ज किया ।
वर्ना दिल्ली पुलिस तो अब तक पुरुष तारण हारों का ही आह्वान कर रही थी । आत्मरक्षा में आत्मनिर्भरता कहाँ सिखाते हैं हम अपनी बेटियों को । उन्हें तो करवाचौथ और रक्षा बन्धन के माध्यक़्म से पुरुष निर्भरता के ही पाठ पढाये जाते हैं । अपनी बेटियों को विवेकी और आत्मनिर्भर बनाना बहुत ज़रूरी है ।
धन्यवाद , एक उम्दा पोस्ट पढाने के लिए ।
जी छेड़ा जाना उतना ही 'स्वाभाविक है' जितना चुपचाप इसे सहन कर लेना। जब सबकुछ 'स्वाभाविक' हो रहा था तो इन लड़कियों ने इस व्यवस्था में नाहक हस्तक्षेप कर समाज के सामने सवाल खड़ा कर दिया जाहिर है समाज को नागवार गुजरा।
लोग चुपचाप रहे इसे रेखंकित कर संकेत किया जा रहा मानो समाज तटस्थ था, नहीं वह इस अपराध में शामिल है, उसकी स्वीकृति है।
आभार कि आपने ये सब लिखा।
धन्यवाद साथियो, यह पोस्ट मेरी जरूर है लेकिन इसमें बात सबके मन की है, उन सबकी जो इस मुद्दे के प्रति संवेदनशील हैं।
नि:शब्द हूँ......
मसिजीवी जी की बात से सहमत हूँ कि ऐसे में "तटस्थ रहना अपराध में शामिल होना है" लेकिन इस तटस्थता को जीतने में भी समय लगेगा । इसी तरह आवाज़ों का उटते रहना ज़रूरी है ।
घर में होने वाले भेद भाव से तो अधिकांशत: निजी स्तर पर ही लड़ना होगा लेकिन इस तरह की घटनाओं में लड़ाई व्यवस्था से है और उस के लिये संगठित प्रयास लाभदायक होंगे ।
अनूप जी, व्यवस्था से मेरा मतलब सिर्फ न्याय व्यवस्था, कानून व्यवस्था या प्रशासन कतई नहीं है। मोटे अर्थों में यह पूरी-की-पूरी मानसिकता है जिसको बदलने की जरूरत है। इसकी शुरुआत घर से होती है और यहां भी लड़ाई सामूहिक हो तो दूर तलक जाएगी। सामूहिक से मेरा मतलब अनिवार्यतह महिला मोर्चा जैसा कुछ नहीं है (जरूरत पड़े तो वह भी हो सकता है) लेकिन समाज के सोच में बदलाव की कोशिश तो जितनी व्यापक हो, उतनी प्रभावी होगी। बहस जारी रखें। धन्यवाद।
अनुराधा जी :
आप की बात से काफ़ी हद तक सहमत हूँ । अन्त में तो मानसिकता ही बदलनी होगी । मेरा कहने का अर्थ सिर्फ़ इतना था कि भेद भाव अगर घर के अन्दर हो रहा है तो कठिन ज़रूर है लेकिन पहली आवाज़ घर के अन्दर से ही उठनी होगी । हां ये ज़रूर है कि हम संगठित रूप में उस अन्दर से उतनी वाली आवाज़ को तैयार कर सकते हैं , उसे सही शब्द दे सकते हैं । इसीलिये मैनें अपने कथन में ’अधिकांशत:’ ('mostly') शब्द का प्रयोग जान बूझ कर किया था ।
लेख अच्छा और संतुलित लगा ।
अगर
लड़कियों को डरना नही चाहिये ,उनसे जो बन परे करना चाहिये । एक दिन एषा जरुर आएगा की मूक-दर्शको को ख़ुद बा ख़ुद शर्म आएगी।
मै उन लोगो से पूछना चाहती हू की आज आप दूसरो की इज्जत से खिलवाड़ होते देख रहे है और सोचते है की हम क्यों कचरे मै पड़े पर क्या गारंटी है की कल ये सब आपकी इज्जत के साथ नही हो सकता । टू तब् क्यों आप दूसरो को गाली देते है.
Indeed a very good article, emotional and rational at same time. It is actually psychology of all hierarchies which makes exploited feel that only exploiters can save them from other exploiters. I am vey much supporter of proper self defence training for every adolescent irrespective of gender(given as integral part of education). Not lesser physical power but submissive and helpless image of women(we all have in our minds) is root cause of most of the evils.
इस तरह की घटनाओं में एक बात जो चकित करती है वह है सामुहिकता। हमारे समाज के दस मर्दो में नौ स्त्री को माल कहते है। उनमें से बचे एक को अपने आप और लोगो से लगातार लड़ना पड़ता है। उन नौ में से छ: रोज आखों और हरकतो से छेड़कर मजा लेते है और दो मौका ढुढते है, एक बलात्कार करता है। लेकिन सामुहिक रुप से किये जाने वाले ये कर्म समाज के मानसिक दशा को दर्शाता है। ये बताता है की कैसे हम उपरी तौर पर तो आधुनिक हो रहे है लेकिन मानसिक तौर पर बर्बर होते जा रहे है। इस तरह का सामुहिक दुस्साहस और सामुहिक मुकदर्शिता समाज के लगातार बिमार होते जाने का द्योतक है। हम या तो स्त्री को देवी की तरह पुजेंगे नहीं तो जानवर से भी बत्तर सलूक करेंगे। संस्कृति और सभ्यता की दुहाई देकर दर्बे में और सिमाओं में बांधना चाहेगे नहीं तो आधुनिकता का ताना देकर इसी लायक हो का नारा देंगे। वो कभी भी नही चाहेगे कि स्त्री में आत्मविश्वास आये। इन लड़कीयों का आत्मविश्वास हि था जिसने इन्हें विरोध के लिए प्रेरित किया। ये आत्मविश्वास हि है जिसे बनाये रखना है।
अन्त में उन सब स्त्रीयों से(जिन्हे कभी भी किसी भी तरह के अपमान के बाद शर्मशार किया गया हो)एक बात की शर्म उन्हे नही आनी चाहिए शर्म तो हमारे समाज को आनी चाहिए की इस तरह कि गन्दी सोच वाले भेड़िये इन्सान की शक्ल में समाज में बिना बंदिश के मुस्कुराते हुए घुम रहे है और समाज सभ्यता व संस्कृति की दुहाई दे रहा है।
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