
उमडतीँ रहतीं , जो मन् में ,
" नीर भरी बदली सी " ,
बिरहन की , वो अनकही यादें !
भोगी जो हर उर्मिला ने
पाषाण वत अहिल्या ने ~
शकुंतला ने , जो वन में ,
हर माँ ने , प्रसव पीड़ा में !
वो अनकही यादें !
कैसे अश्रू को कोई समझाए ?
कैसे मन् के भावों को दिखलाये ?
ऐसा वाणी में सामर्थ्य कहाँ ?
जो, रंगों को बोल कर दर्शाए ?
आह ! ये , अनकही यादें !
रह जातीं हैं अनकही ही
लाख समझाने पर भी ,
कितनी ही भीष्म प्रतिज्ञा सी ,
धरती के गर्भ में दबी दबी
भावि के अंकुर सी , "अनकही यादें "-
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--लावण्या शाह -
फेब २८ , २००६
3 comments:
बहुत सुंदर भाव और शब्द ।
ममता जी,आपको, कविता पसँद आयी ..धन्य्वाद !
एक स्त्री , ही,
मेरे भावोँ को सही सही समझ सकी .
aapki kavita man ko chuti hai ,ek stri ki peedaa ek stri hi behatar samaj sakti hai . me bhi ek blog likhne ki kosish kar rahi hu please jarure dekhe.
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