ज़िन्दगी का अनुवाद
चौथा भाग
आज तक आपने जो जाना -समझा मेरे बारे में वह सबकुछ मेरे बारे में दूसरे घराने के ऋषिजनों ने लिखा था और वह सब कुछ यह नही था कि मैं क्या हूँ,मेरे सपने क्या हैं,मेरी खुशियाँ किसमें हैं बल्कि यह था कि मुझे क्या होना चाहिये। मेरे बारे में बहुत सी व्यवस्थाएँ दी गयी थीं कि इस स्थिति में मुझे यह करना चाहिये,उस स्थिति में वह करना चाहिये । मैं मानती हूँ कि बेहद ताकतवर लोगों ने सालों लगाकर अपने पूरे होशो-हवास में ,बेहद कुशाग्र-चालाक दिमाग का उपयोग कर के ये व्यवस्थाएँ दीं। सुन्दर-सबल मुहावरेदार भाषा में यह सब कुछ लिखा गया और इतने सालों से आपने इसे पढा और सुना। आपको मेरे बारे में यही सच लगा,सुन्दर लगा और ज़रूरी भी लगा ।
अब इस प्रचारित सच के खिलाफ मेरे पास इतनी शिक्षा-दीक्षा भी नही है,भाषा भी कुछ खास अच्छी नही है और मुहावरे और प्रतीक तो बिल्कुल भी नही समझ नही पाती मैं। इतना वक़्त ही नही था कि भाषा सवारती मैं और वक़्त मिलता तो भी भाषा से पहले ज़िन्दगी सवारना ज़्यादा ज़रूरी था।
लेकिन कुछ है मेरे पास-शायद् मेरी तलाश या फिर मुझे मेरी तलाश की तलाश है । मुझे कुछ करना है-कुछ खास,कुछ अपना,कुछ बड़ा और कुछ ऐसा जिसकी गन्ध इन तीन कमरों के बाहर भी फैले-और इस "कुछ" को करने की इच्छा इतनी ज़बर्दस्त है कि एक बार एक पचास साल की भरे पूरे घर की, पति-पुत्रों की महिमा से मण्डित महिला ने मुझसे कहा कि अगर मुझे पापड़ बेल कर भी कुछ पैसे कमाने को मिले तो मैं करूंगी । मत सोचिये कि उन्होने कोई खास बात नही कही- और कोई खास काम करना नही चाहा-चाहा वही पापड़ बानाने; जो कि वह शादी से पहले से अपनी माँ के साथ बनवाती रही और 18 साल की उम्र में शादी होने के बाद पचास साल तक उन्होने पापड़ ही बनाए- आलू के पापड़ ,साबूदाने के पापड़, चावल के पापड़ और न जाने किस किस चीज़ के पापड़ सेंके तले और घर-बाहर को खिलाए।कभी पापड़ की सब्जी बनाई ,कभी उसकी कढी बनाई और फिर भी इस पचास साल की औरत का दिल नही भरा और उसने कहा कि -"अगर मौका और मोहलत मिले तो मैं ...."
फिर , एक बार, एक सम्पन्न घर की बहू ने जो सुविधाओं में डूबती-उतराती है कहा कि- अगर चपरासी बनकर भी जीना पड़े तो इस जीवन से बेहतर है।
अब समझे आप यह कुछ करने की इच्छा क्या है ? कैसी है ?मुझे मालूम है कि एक यही सवाल आप मुझ पर दागने वाले हैं,मुस्करा रहे हैं अपने अचूक निशाने पर। आप पूछने वाले हैं 'अगर मौका और मोहलत मिले तो......' है न ! और ये मौका और मोहलत देंगे आप !दान की तरह |फिर तरह-तरह की शर्तें लगायेंगे फिर इअन मोहलतों की राह में काँटे बिछायेंगे फिर इन काँटों पर प्यार का फूल चिपकायेंगे और मैं फिर एक बार झांसे में आ जाऊंगी, फिर मेरे हलक़ में उंगली डालकर कबूलवायेंगे कि मुझे अपने मालिकों से प्यार है, उनके बच्चों से प्यार है,उनके घर से बेहद मोहब्बत है ।उनके कपड़ो तक से इश्क़ है ।यहाँ तक कि उनके छींकने,खाँसने ,थूकने तक से लगाव है । बात यहीँ खत्म नही होती यह प्यार और आगे बढेगा और होते-होते मुझे पर्दों से, सोफों से, बर्तनों से,पाँव-पोश से ,झाड़ू से,पोंछे से ,सबसे प्यार हो जायेगा। मेरे सवाल घटते जायेंगे ,प्यार बढता जायेगा ।सदियों से यह मेरे भीतर कईं तरीकों और रास्तों से उतारा गया है यह प्यार जिसके नशे में मैं आज झूम रही हूँ नाच रही हूँ गा रही हूँ । या खुदा ! किसने भरा मेरे अन्दर इतना प्यार । बिना किसी बड़े कारण ,किसी उद्देश्य के,लक्ष्य भ्रष्ट यूँ ही हो जाने वाला प्यार !
यह प्यार मेरे अन्दर नैसर्गिक तरीके से नही पनपा बल्कि मुझे बाकायदा इसी तरह शिक्षित किया गया । मैनें बताया था न कि मै व्यवस्थाओं में पली हूँ । नियमों की खुरदरी रस्सियों में मुझे इस तरह जकड़ा गया कि मैं अपनी इच्छा से एक इंच भी इधर से उधर नही हो सकती फिर कैसे मैं अपने तरीके से प्यार करना सीख पाती। लेकिन आज सोचती हूँ कि अगर मैं प्रयास करूँ और प्रेम करने की सारी शिक्षा उलट दूँ तो.......
कोशिश करके ,सोच समझ कर प्यार करूँ तो? जिस प्यार को इतना बड़ा कर के मेरे सामने खड़ा किया गया है उसे उसके वास्तविक छोटे रूप में देखूँ तो ?जानती हूँ मालिकान ! आपके मुँह से वर्षॉ से संचित आप्त वचन ही निकलने वाले हैं --कुलटा,कलंकिनी,कुलबोरनी ,बेहया...!!जिस नज़र से अप मुझे देखेंगे उसमें बेइज़्ज़ती है, बेदखली है और यह नज़र वही है सदियों पुरानी संचित बाह्मणी नज़र जो विरोध को जला कर राख कर देना चाहती है।यह नज़र सदा से मेरे भीतर अकेलेपन का ,जातिबहिष्क़ृत होने का, मौत का खौफ भरती है ।
लेकिन इसके बावजूद अक्सर मेरी आँखों में एक सपना कौन्धता रहता है कि भयंकर रूप से स्थापित इस परिवारवाद के भीतर से छलांगे मारती हुई निकल जाऊँदो-दो,चार-चार सीढियाँ चढती हुई सबसे ऊँची छत पर पहुँचूँ, अपने सिर का पल्ला छुटाऊँ और ज़ोर ज़ोर से अपना बनाया कोई गीत गाऊँ। अगर मैं ऐसा कर पायी तो आस-पास की हर छोटी-बड़ी छत मुझ जैसी ही औरतों से भर जाएगी। शायद वही मुक्ति का गीत और नृत्य होगा ।
सपना चमड़िया
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11 comments:
सपना का सपना
सपना न रहे
हकीकत बने
सच की ताकत
खूब अच्छी जमे.
"अगर मैं ऐसा कर पायी तो आस-पास की हर छोटी-बड़ी छत मुझ जैसी ही औरतों से भर जाएगी। शायद वही मुक्ति का गीत और नृत्य होगा ।"
हरी ओम !!!!!! क्या बासी चाहत हे . २१ श्ताब्दी मे .
सपना, लगातार पढ़ रही हूं लेकिन यह हिस्सा पढ़ कर तो झुरझुरी आ गई। मैं कांप गई सोच कर कि काश, मैं कह पाती यह बात, जो जाने कितनी सदियों से मेरे भीतर थी, पर एकदम सहज ढंग से आपने कह डाली, बिना किसी आडंबर या आवरण के। क्या हममें इतना साहस है कि इन सहज सचों पर हां भी कर सकें। अगली किश्त का इंतज़ार भी है और फिर सिहर जाने की घबराहट भी। आपने अजीब उथल-पुथल पैदा कर दी है भीतर, जैसे कि पहला प्यार- दिल कहता है- हां, दिमाग सोचता है सारी दुनियादारी।
सहज ,सपाट सच....कितनी भी झालर लगायें इसपर...खूबसूरत बनाना मुश्किल है....
बहुत प्रभावशाली..।
सच लिखा है और प्रभावशाली तरीके से लिखा गया है। सिर्फ शिकायत करने से मिलने भी नहीं वाली मुक्ति, उसके लिए छत पर चढ कर अपने ही किसी गीत को गाने की हिम्मत जुटानी जरूरी है।
आपकी डायरी का हर भाग झकझोर देता है।
ग़ुलामी मे एक किस्म का आनन्द भी होता है, सहुलियत होती है, आर्थिक, समाजिक सुरक्सा भी है, इस मायने मे ये बेगारी नही है. और बहुत खुशी से हम मे से बहुत वो सुविधाये पाते है, जिनको अर्जित करने मे जनम लग जाता है. माना कि हमारा समाज ही किसी स्त्री या पुरुश को बनाता है, पर हम रोबोट नही है, हमारा अपना विवेक और अपना स्वार्थ भी होता है. और दिये गये कई विकल्पो मे हमेशा चुनाव हमारा होता है.
मैने आज तक किसी भी ग्रिहणी को तमाम विवशता के बाद भी गुलामो वाली मनस्थिति मे नही देखा. गुस्से मे देखा है, जद्दोजहद करते देखा है, अपनी बात मनवाने के लिये बात-बात पर रोते देखा है, परिवार और बच्चो को गोल्बन्द करते भी देखा है. भूत-प्रेत, देवी-देवता, सभी चडते देखा है, बेहोश होते भी देखा है. और ये सब उनकी अदम्य जीवनी शक्ती का प्रमाण है.
आज़ादी भी भीख मे नही मिलती और उसके अपने खतरे है, जिन्हे भी कुछ लोग जानबूझ कर चुनते है. ये दो तरह के पैकेज है जिन्दगी के, दोनो मे कुछ ठीक है, कुछ गलत है. दोनो तरह के सुख बिना जद्दोजहद के मांगना बेवकूफी है.
इतना ज़रूर है कि वर्तमान मे घर परिवार का ढाचा ज्यादा मानवीय और जनतांत्रिक बनाने की ज़रूरत है, जो असानी से किया जा सकता है. घर के लोग आपको प्यार करते है, एक बार खाना छोड् दो, दो दिन बात मत करो, पिता, पति, पूत्र सबकी हवा सटक जायेगी. पर घर मे भी अगर परेसानी है तो सम्वाद शुरु करने के खतरे तो उठाने ही पदेंगे???
उससे लम्बी लडाई और बहुत कठिन है समाज को बदलना, उसे मानवीय बनाना. पर वहा भी अपनी बात कहनी पडती है, लड्ना पडताहै.
स्वप्नदर्शी जी की बात से काफ़ी हद तक सहमत हूँ । शेष फ़िर ...
hi have u deleted notepad? i like that more ,but itz not there any more perhaps!
अरसे बाद चोखेरबाली को पढने का मौका मिला . सपना को पढ़ना एक ऐसे सच को जीने की तरह लगा, जिसे हम सभी जानते तो हैं लेकिन मान पाने में हिचकते हैं. सपना की पोस्ट के जवाब में आए तमाम कमेन्ट भी पढे. किसी की डायरी को बहुत आदर्शवादी घेरे में रखकर पढ़ना मेरे ख़याल से उसके प्रति ज्यादती है . एक स्थिति वो है, जिसमें हम हैं, चाहे अच्छी या बुरी और एक वो है, जिसे हम अपने लिए बनाना या गढ़ना चाहते हैं, इस बीच के संक्रमण काल में काफी कुछ गड्डमड्ड हो सकता है. क्या ये सही नही होगा कि पहले आगे की कडियाँ पढी जाएं तब कोई राय बनायी जाए.
रही प्यार की बात तो सभी औरतें इसके लिए जीती-मरती हैं, इसी में शिकायतें भी करती हैं, लड़ती भी हैं, बदलने की कोशिशें भी करती हैं ख़ुद को और अपने आसपास के परिवेश को , चाहे वो अपने घर का ढांचा हो या बाहर का समाज. एक समाज तो रोज़ हमारे भीतर भी बन रहा होता है, कभी बहुत सामंती तो कभी उदार, कभी दम्भी तो कभी संघर्ष करता हुआ. हम उम्र और अनुभवों के साथ-साथ ख़ुद को भी तो समझ पा रहे होते हैं . ऐसा न होता तो सपना के घराने की उस औरत को जीवन के एक मोड़ पर आकर यह क्यों लगता कि ज़िंदगी भर अन्नपूर्णा बनने से अच्छा था कहीं चपरासी की नौकरी कर लेना . यही वह बिन्दु है, जहाँ से बदलाव की शुरुआत होती है . इस महत्वपूर्ण बिन्दु को हलके तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए .
एकदम सपाट और स्पष्ट....साधुवाद.
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