असामान्यता क्यों ?
विस्मृतियों के गर्भ से
यादों की अंजुरी भर लाई हूँ ........
कुछ यादें इसमें टिकीं हैं
कुछ इससे रिस रहीं हैं .........
ढलते सूरज की लौ सी
तपिश अभी भी बाकी है
इन यादों में ...........
तपती दुपहरी सा तुम बने रहे
बदली बन बौछारें मैं देती रहीं..........
सूरज सा तुम जलते रहे
चाँदनी बन ठंडक मैं देती रही............ .
जीवन संग्राम में
तुम मुझे धकेलते रहे
झाँसी की रानी सी मैं
ढाल तुम्हारी बनती रही............ ..
राम बने तुम
अग्नि परीक्षा लेते रहे
भावनाओं के जंगल में
बनवास मैं काटती रहे............ ..
देवी बना मुझे
पुरुषत्व तुम दिखाते रहे............ ...
सत्ती हो, सतीत्व की रक्षा
मैं करती रही............ .....
स्त्री- पुरूष दोनों से
सृष्टि की संरचना है
फिर यह असामान्यता क्यों ?
डाॅ.सुधा ओम ढींगरा
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5 comments:
सुन्दर कविता है ।
असमानता तो है! जो स्वतंत्रता स्त्री को मिली भी वो उसने स्वंय प्राप्त की है।जैसे एक तन्खाह से घर नही चलता तब,वह घर से निकती है। कारण आर्थिक होता है और मर्जी पुरुष की।परिवर्तन है भी तो तौर पुराना ,तरिका पुरुष का।
wow ...very nice poem..
स्त्री- पुरूष दोनों से
सृष्टि की संरचना है
फिर यह असामान्यता क्यों ?
असमान्यता हमारी नजरों का फ़ेर है बस...
एक बहुत पुरानी बात आप ने एक नए तरिके से कही. अच्छा लगा. अब में भी कहूं अपनी बात. क्यो देखते हैं असामनता हम स्त्री और पुरूष में? क्यों करते हैं तुलना हम स्त्री और पुरूष में? स्त्री-पुरूष दोनों मिलकर सृष्टि की संरचना करते हैं. कोई एक अकेला कुछ नहीं कर सकता. स्त्री-पुरूष ईश्वर के अर्धनारीश्वर रूप की प्रतिमूर्ति है. दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. यह ईश्वर का विधान है. पुरूष दोनों में अन्तर करके ईश्वर के विधान पर आक्षेप करते हैं. यह ग़लत है. उन्हें अपनी यह गलती सुधारनी चाहिए.
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