मेरी पिछली पोस्ट में जो मैंनें लिखा वो तकरीबन 25-30 लाइनों का लिखा था और महज़ इतने से शब्दों में हकीकत को बयां करना नाकाफ़ी है। मैं ब्लॉग को अंतरतम में उमड़ रहे विचारों को व्यक्त करने का एक सार्थक माध्यम मानती हूँ जिस पर सबकी राय जानना चाहे वो सराहनीय हो अथवा नहीं स्वीकार्य है। मैं ब्लॉगों की लड़ाई में अपना अंदाज़े बयां लेकिन अपने मन्तव्य को रखना भारतीय संविधान के तहत दिये गये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अन्तर्गत मानती हूँ।
कॉलेज में जब हमें माइक पकड़कर पी टू सी की प्रैक्टिस कराई जाती थी तो लगता था कि देश की व्यवस्था में हम कुछ न कुछ बदलाव ज़रूर लाएंगे आख़िर ऐसा सोचें भी क्यों न पत्रकार होता भी तो है देश का चतुर्थ स्तम्भ। लेकिन मैदान-ए-जंग की हकीकत कुछ और ही होती है, जहां टैलेन्ट के एवज़ में हर चीज़ स्वीकार्य है। जैसे सुन्दर शक्ल, अच्छी काया और अगर आप लड़के हैं तो ठीक-ठाक उच्चारण क्षमता से काम सचल जाएगा क्योकि माना जाता है कि लड़कों में लड़कियों की अपेक्षा ज़्यादा दिमाग जो होता है । बाज़ार का एक फण्डा होता है (बाज़ार शब्द का अभिप्राय पत्रकारिता है) - जो दिखता है वो बिकता है। लेकिन जनाब आज काम इन चीज़ो से भी नहीं चलता है क्योंकि अब केवल मोहनी सूरत नहीं बल्की एक सॉलिड एप्रोच यानी गॉडफादर होगा तो ही काम आगे बढेगा।
हम जिन्हें स्थापित पत्रकार मान चुके हैं चाहे वो रवीश हों, देबांग हों (ये फेहरिस्त ज़रा लम्बी है) अगर आप अपने टैलेन्ट का बखान उनके सामने करेंगे तो या तो आजकल का सबसे अच्छा तरीका वो आपको अपना मेल आईडी दे देंगे -अपना रिज़्यूम मेल कर दीजिए देख लेंगे।.........फिर महीनों बाद जब कोई जवाब नहीं मिलता तो अंतत: आप ख़ुद जवाब की चाह में उनका नंबर घुमा देंगे।उधर से सीधा-सपाट उत्तर मिलेगा- अभी अगले देढ- दो साल तक कोई जगह नहीं है।अगर कोई अप्रोच हो तो..................
दूसरी जगह भी बाकायदा आप रिटन एक्ज़ाम देकर आते हैं और कई महीनों बाद जब आपको ये विस्मृत क्षण स्मरण हो आता है तो आपकी उंगलियां अनायास ही मोबाइल के नंबरों पर पड़ने लगती हैं और उत्तर कुछ यूं मिलता है- लिखा तो अच्छा है लेकिन किसी का अप्रोच लग जाए तो बात बन निकलेगी।
इन परिस्थितियों में आपकी स्थिति काटो तो खून नहीं वाली हो जाती है, जहॉ टैलेन्ट पर अप्रोच भारी पड़ता है। और पत्रकारिता का पूर्णिमा का चांद अमावस के चांद में तब्दील होना शुरू कर देता है।पत्रकारिता झूठी लगने लगती है, मन से एक आवाज़ आती है- तेरी ज़ुबान है एक झूठी जम्हूरियत की तरह
तू इक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं ।।
लेकिन अगर आज हर युवा स्त्री जो बिना किसी गॉडफादर के टी.वी.पत्रकारिता में अपनी जगह बनाना चाहती है इस लड़ाई का यही अंत मानेंगी तो कैसे काम चलोगा। माना कि इन पथरीली राहों पर चलना आसान नहीं पर अब ख़ुद को अहं ब्रह्मास्मि मानकर आगे कदम बढाना ही होगा। ये अंत नहीं आगाज़ है क्रान्ति का।
12 comments:
आप ठीक कहती हैं, ये अंत नहीं आगाज़ है क्रान्ति का। अहं ब्रह्मास्मि कह कर आगे कदम बड़ा दीजिये. मेरी शुभकामनाएं.
भड़ास के मॉडरेटर यशवंत ने जेल में काटी रात
दोस्त की बेटी से बलात्कार की कोशिश
अपने भीतर की बुराइयों को दिलेरी से सार्वजनिक करने वाले ब्लॉग भड़ास में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो इस ख़बर को अपने साथियों से बांटता। ऐसा तब भी नहीं हुआ था, जब यशवंत को उनकी कंपनी ने थोड़े दिनों पहले अपने यहां से धक्के देकर बाहर निकाल दिया था। जी हां, जागरण के बाद इंडिकस ने उन्हें अपने यहां से निकाल बाहर किया है - क्योंकि यशवंत की जोड़-तोड़ की आदत से वे परेशान हो चुके थे।
ताज़ा ख़बर ये है कि नौकरी से निकाले जाने के बाद यशवंत नयी कंपनी बनाने में जुटे थे। उन्होंने भाकपा माले के एक साथी को इसके लिए अपने घर बुलाया। ग्रामीण कार्यकर्ता का भोला मन - अपनी बेटी के साथ वो दिल्ली आ गये। सोचा यशवंत का परिवार है - घर ही तो है। लेकिन यशवंत ने हर बार की तरह नौकरी खोने के बाद अपने परिवार को गांव भेज दिया था। ख़ैर, शाम को वे सज्जन वापसी का टिकट लेने रेलवे जंक्शन गये, इधर यशवंत ने उनकी बेटी से मज़ाक शुरू किया। मज़ाक धीरे-धीरे अश्लील हरक़तों की तरफ़ बढ़ने लगा। दोस्त की बेटी डर गयी। उसने यशवंत से गुज़ारिश की कि वे उसे छोड़ दें। लेकिन यशवंत पर जैसे सनक और वासना सवार थी।
यशवंत ने दोस्त की बेटी के कपड़े फाड़ डाले और उससे बलात्कार की कोशिश की। लेकिन दोस्त की बहादुर बेटी यशवंत को धक्के देकर सड़क की ओर भागी और रास्ते के पीसीओ बूथ से भाकपा माले के दफ़्तर फोन करके मदद की गुहार लगायी। भाकपा माले से कविता कृष्णन पहुंची और उसे अपने साथ थाने ले गयी। थाने में मामला दर्ज हुआ और पुलिस ने यशवंत के घर पर छापा मारा।
यशवंत घर से भागने की फिराक में थे, लेकिन धर लिये गये। ख़ैर पत्रकारिता की पहुंच और भड़ास के सामाजिक रूप से ग़ैरज़िम्मेदार और अपराधी प्रवृत्ति के उनके दोस्तों ने भाग-दौड़ करके उनके लिए ज़मानत का इंतज़ाम किया।
अब फिर यशवंत आज़ाद हैं और किसी दूसरे शिकार की तलाश में घात लगाये बैठे हैं।
स्मृति जी
आपकी इस हकीकत से मैं सहमत नहीं हूं। आपने तो मुझसे बात भी नहीं की। न मैंने कोई ईमेल दिया। मैंने कभी किसी को नहीं कहा है कि लिखा तो ठीक है मगर अप्रोच होना चाहिए। इनती जल्दी हिम्मत मत हारो। मुझे खुद किसी ने नौकरी नहीं दी।
बाद में एनडीटीवी में चिट्ठी छांटने के लिए दिहाड़ी मजदूर बन गया। मै कोई दुख भरी कहानी नहीं झाड़ रहा हूं। लेकिन तब भी किसी पर आरोप नहीं लगाया कि अमुक वजह से नौकरी नहीं मिल रही है।
न ही मैं इस तरह का अधिकार रखता हूं जिसके दस्तखत से नौकरियां मिलती हों। लोग बात करते हैं तो बात करता हूं। मैं भी किसी वक्त लोगों से बात करता था।
यह अजीब बात है। लड़कियों को मौका मिलता है तो लड़के कहते हैं कि बास मोहिनी सूरत पर मेहरबान हो गए। जब लड़कों को मौका मिलता है तो
लड़कियां कहती हैं मोहिनी सूरत से काम नहीं चलेगा बास का अप्रोच चाहिए।
हकीकत कुछ और है। वो यह कि चैनलों में नौकरियां सीमित होती हैं। मेरे चैनल में साल भर में दो या तीन से ज़्यादा लोग नहीं लिये जाते। जगह ही नहीं होती। चार साल बाद इस बार कुछ लोग रखे गए। लेकिन उनमें से कोई भी अप्रोच की बदौलत नहीं आया। अगर आप यकीन कर सकती हैं तो अच्छा रहेगा। वरना हताशा में कभी हम भी ऐसा ही सोचा करते थे। आज लगता है कि गलत सोच थी।
मैं यह नहीं कह रहा कि अप्रोच जैसी चीज़ नहीं है। मगर हर कोई इसी रास्ते से मीडिया में नहीं आता है। पत्रकारिता से देश बदलता है यह एक विवाद का दूसरा विषय है। फिर कभी। लेकिन हौसला बनाए रखो। कोशिश करो। मौका मिलता है। लिंग के आधार पर दोषारोपण मत करो। कम से कम एनडीटीवी वो दफ्तर हैं जहां सभी प्रमुख और निर्णय लेने वाले पदों पर लड़कियां है। वो किसी सूरत के कारण नहीं बल्कि अपनी सलाहियत के बल पर हैं। यहां आने के लिए आपको अप्रोच और सूरत की कोई ज़रूरत नहीं है। हां जितनी ज़रूरत होगी उसी के हिसाब से लोग लिये जाते हैं। और यह तय करना मेरा काम नहीं है।
फिर भी तम्हारी हताशा समझ सकता हूं। लेख पढ़ कर नाराज़ नहीं हुआ। बस यही कहना है कि लिखते वक्त तथ्य सही होने चाहिए तभी आपकी बातों पर लोग भरोसा करेंगे और पत्रकारिता से देश बदलेगा।
अगर आपका कहीं नहीं हुआ है तो क्या सूरत ही वजह हो सकती है? यह भी तो हो सकता है कि कोई ज़्यादा काबिल मौका पा गया। इसकी संभावना के बारे में तो लिखा ही नहीं आपने।
रवीश कुमार
रवीश जी
शुक्रिया मेरी ग़लतियॉ बताने के लिए आप मेरे अग्रज हैं लेकिन अगर आप आज ही अपना मेल चेक करेंगे तो शायद उसमें मेरा रिज़्यूम ज़रूर पाएंगे फिर आपको शायद स्मरण हो आए। न मैं निराश हूँ न हतोत्साहित मुझे किसी से कोई व्यक्तिगत शिकायत भी नहीं है। मेरे संस्कारों ने मुझे ज़रा भौतिकता से दूर रखा है इसलिए मुझे अपनी कावीलियत पर चेहरे से ज़यादा विश्वास है क्योंकि संघर्ष मेरे जीवन का चरम लक्ष्य है। अफ़वाहों को तूल देने की न मेरी अभिलाषा है और न मन्तव्य। सफलता का शॉर्टकट कम से कम मेरी डायरी में नहीं है क्योंकि मेरे जीवन का संघर्ष अभी लम्बा है..........
मैं लिंग भेद की पक्षधर नहीं हूँ और ऐसा मानने वालों को हीन दृष्टि से ही देखती हूँ। नारी होने का मुझे स्वाभिमान है।
स्मृति मैं ये मानती हूँ की आजकल एप्रोच हो तो काम आसानी से हो जाते हैं किन्तु यह अन्तिम सत्य नहीं है....काबिलियत की अपनी जगह है और उसे वहाँ से कोई बेदखल नहीं कर सकता!हाँ..ये ज़रूर है की आपको थोडा ज्यादा वक्त लग जाए अपनी जगह पाने में..लेकिन टैलेंट की कद्र आज भी है...रवीश की बातों से भी काफी हद तक सहमत हूँ...आज जितने भी बड़े नाम हम पत्रकारिता जगत में जानते हैं..वो लोग भी एक या दो सालों में इस जगह नहीं पहुंचे हैं...सभी ने संघर्ष किया है!आपके उज्जवल भविष्य के लिए मेरी शुभकामनाएं...
मैं इस पूरे लेख का कोई सामाजिक पक्ष ढूंढ पाने मे असफल रहा ..ये कोई व्यक्तिगत नाराजगी ज्यादा लगी..हाँ आज ही शाजिया ने जो महिला एंकर है अपने ब्लोग्स पर एक बात रखी है ...पर उनका कहने का अंदाज दूसरा है ....व्यक्ति किसी भी विधा मे हो उसे संघर्ष करना पड़ता है सफल होने के लिए .....किस्मत वाले शख्स कम ही होते है जिन्हें इम्तिहानो मे से नही गुजरना पड़ता ..... धर्य रखिये....ओर जुटी रहिये.....हमारी शुभकामनाये आपके साथ है....
मेरे फोन में ईमेल है। आपने भेजा होगा लेकिन नहीं मिला है। मेल भेज कर आपने इतनी बड़ी बात कह दी। मैं किसी रिज्यूमे का जवाब नहीं देता क्योंकि यह मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। वैसे आपका मेल नही मिला है। थोड़ा इंतज़ार कर सकती थी सूरत के बारे में लिखने से। मुझे दुख हुआ है। आप जिस बारे में लिख रही हैं उसी के खिलाफ रहा हूं। ये तो आप नहीं कर सकती न कि किसी को मेल भेज दिया और फिर कुछ भी लिख दिया।
आप सही जगह आवेदन कीजिए। मुझे तो यही पता चला है कि हमारे चैनल में अगले एक दो साल के लिए कोई वेकेंसी नहीं है। फिर भी इस जानकारी पर दावा नहीं कर सकता। आप अपना रिज्यूमे sanjay@ndtv.com पर भेजिये। लेकिन तुरंत जवाब तब आएगा तब जगह होगी या उनके पास मेल देखने का वक्त होगा। यही हकीकत है। आपने मेरा और दिबांग का नाम लिया। बाकी चैनलों से क्या रिसपांस रहा उसके बारे में बताया आपने। कैसे लिख दिया।
इतनी जल्दी मत कीजिए। मैं नौकरी के अलावा तमाम मुद्दों पर बात कर सकता हूं। मैं तो खुद को एक सामान्य पत्रकार मानता हूं। ये बड़ा और छोटा पत्रकार आप लोग करते हैं। फिर इसी आधार पर गाली भी देते हैं। आपको जल्दी नौकरी मिले यही मेरी शुभकामना है।
रवीश कुमार
स्मृति जी, आपने ग़लत तथ्य के साथ एक अच्छी बात रखी है। रवीश भी शायद उसी समझ के पत्रकार हैं, जैसा आपका अप्रोच है। बहरहाल, जहां तक मैं रवीश को जानता हूं - वो तुरंत प्रतिक्रिया देने वाले शख्स हैं। हज़ारों रिज़्यूमे आते हैं - सबको जवाब देना संभव नहीं। लेकिन रवीश की नज़र में अगर कोई चीज़ जम गयी - तो वे आपके हक़ में अपना हित-अहित भी पीछे छोड़ देते हैं। अगर आपने कभी सिर्फ नौकरी के लिए रवीश के फोन किया होगा, तो आपने ग़लत नंबर डायल किया होगा। क्योंकि अगर वाकई पत्रकारिता का जज्बा आपमें है, तो आप उनसे वैचारिक संवाद के लिए फोन कर सकती थीं। ज़ाहिर है, वे नौकरीदाता नहीं हैं, इसलिए आपसे खुल कर बात हो सकती थी। तब आपको दिबांग और रवीश का फर्क समझ में आता। वैसे आपकी भाषा से जिस तरह के संयम और तथ्य की बेपरवाही का पता चलता है, उसका आभास आपके रिज्यूमे में भी ज़रूर होगा। लिहाज़ा उसे पेंडिंग रखा गया होगा।
स्मृति जी....आपकी चारों पोस्ट पढ़कर ऐसा लगता है जैसे आप सिर्फ अपनी हताशा पाठकों को बताना चाह रही हैं...आपकी हर पोस्ट में सिर्फ यही बताया गया है की आपको मौका नहीं मिल पा रहा है!एक बात आपको बता दूं की सिर्फ अपना रिज्युम भेजने या फोन पर बात कर लेने भर से नौकरी नहीं मिल जाती!और रही बात बड़े चैनल में काम मिलने की तो उसके पहले छोटे छोटे चैनल्स में काम करके अनुभव बटोरना पड़ता है...और अपने आप को साबित करना पड़ता है. सिर्फ शिकायत करने से कुछ नहीं होता...हो सकता है एप्रोच से नौकरी मिल भी जाए लेकिन जब तक output सही नहीं होगा...कहीं भी टिकना मुश्किल ही मानो
'आप लड़के हैं तो ठीक-ठाक उच्चारण क्षमता से काम सचल जाएगा क्योकि माना जाता है कि लड़कों में लड़कियों की अपेक्षा ज़्यादा दिमाग जो होता है ।'....आपकी इस सोच पर तो मुझे तरस आता है...उच्चारण क्षमता से लड़के और लड़की का क्या लेना देना और ये भी मुझे बता दीजिये की ये कहाँ माना जाता है की लड़कों में लड़कियों से ज्यादा दिमाग होता है....
'आज काम इन चीज़ो से भी नहीं चलता है क्योंकि अब केवल मोहनी सूरत नहीं बल्की एक सॉलिड एप्रोच यानी गॉडफादर होगा तो ही काम आगे बढेगा।'......ये भी स्पष्ट करें कृपया की क्या पहले सिर्फ मोहिनी सूरत से काम चल जाता था...आपके इस बयान में काबिलियत का तो कहीं स्थान ही नहीं है
अगर आप भी यही सोचती हैं तो यहाँ पोस्ट करने की बजाय एक गौड फादर की तलाश में जुट जाइए...और कृपया आगे से ऐसी पोस्ट यहाँ दीजिये जो किसी सामजिक मुद्दे को उठाती हो न की आपकी व्यक्तिगत शिकायतों और आरोपों को....
डॉ अनुराग से सहमत हूँ ।
कठ पिंगल की कही बातों की पुष्टि यश्वंत ने खुद कर दी है , घोर शर्मनाक है यह कृत्य !
भड़ास के इस चरित्र और दर्शन की जितनी भी निन्दा की जाए कम है !
आप सभी के कमेंट्स का मैं तहे दिल से स्वागत करती हूँ।मैं मानती हूँ कि मुझमें परिपक्वता की कमी है लेकिन ऐसा कतई नहीं है कि मैंनें जो कहा वो निराधार है न मैं खाली बैठी हूँ छोटे ही सही लेकिन एक टी.वी चैनल में कार्यरत हूँ। रवीश जी मेरे आदर्श पत्रकारों में सें हैं शायद इसलिए ऐसा हुआ। लेकिन मेरे इस लेख का उद्देश्य किसी को ठेस पहुँचाना नहीं है।
मेरे इस लेख में मैंनें केवल अपना नहीं बल्कि कई लोगों के साझा अनुभव को बयां किया है। इस मीडिया इंडस्ट्री में न कोई मेरा गॉडफादर है न कोई गॉडमदर , न मुझे ज़रूरत है।मेर लेख का अंत दुखात्मक नहीं है।
इतना ज़रूर है कि रवीश जी से मेरी वैचारिक मुद्दों पर आगे बहस जारी रहेगी।
मैंनें अपने लेख के प्रारंभ में ही ये स्पष्ट कर दिया था कि ब्लॉग को मैं किसी विवाद को उत्पन्न करने के लिए नहीं बल्कि विचारों को संप्रेषित करने के लिए प्रयोग करती हूँ।
इस बात से तो शायद रवीश जी भी सहमत होंगे कि पत्रकारिता की परिभाषा आज बदल गयी है और ये बदला हुआ रूप निश्चित ही बहुत सुखद नहीं है।
आप सभी की शुभकामनाओं के लिए शुक्रिया।
मेरे लिए पत्रकारिता के मायने बिज़नेस कदापि नहीं है।
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