'घर पर किए जाने वाले कार्य का भी मूल्य है'- विषय पर पिछले पोस्ट पर अपना विचार टिप्पणी के तौर पर लिखना शुरू किया तो वह काफी लंबा हो गया। इसलिए एक पोस्ट के तौर पर डालने की गुस्ताखी कर रही हूं। उम्मीद है, इसमें से भी कुछ सोचने लायक निकलेगा।
समाज अर्थव्यवस्था से और लोग अर्थ से संचालित होते हैं, माना। यह भी सच है कि अर्थोपार्जन की मात्रा ही आम तौर पर किसी व्यक्ति को मिलने वाले सम्मान का तराजू है। फिर भी - कृपया इसे सैद्धांतिक बात कह कर खारिज न कर दें - मुझे लगता है कि हम सब किसी न किसी स्तर पर एक इंसान हैं और कुछ इंसानी विशेषताओं के मालिक हैं। विवेक के अलावा हमारी विशेषताएं हैं, भावना और उसे अभिव्यक्त करने की और हाथ के हुनर की। परिवार स्त्री को कहीं बांधता है तो समृद्ध भी करता है। स्त्री भी परिवार को बांधती और समृद्ध करती है। ऐसे में उसके घर-परिवार से जुड़े विशेष काम को विशेषज्ञता के तौर पर ही देखा जाए और उसकी कीमत पैसे में नहीं बल्कि परिवार में उसके समान दर्जे के रूप में अदा की जाए।
स्त्री-पुरुष में शारीरिक फर्क के साथ दिमागी क्षमता का फर्क भी है जिसे नकारा नहीं जा सकता। मैं अगर बटन टांकने का काम सहजता से कर सकती हूं तो करूंगी। लेकिन साथ में यह काम कभी अपने पति से करने को कहूंगी और बेटे को भी सिखाऊंगी। लेकिन अगर मुझे घर में गुलदान कमरे के कोने में रखा रहना पसंद है तो मैं यह अपने बेटे को यही सिखाऊँ कि गुलदान इस जगह रखा जाता है, यह तो कोई बात नहीं। और अगर कभी बेटे का भीगा शरीर पोंछने के लिए तौलिया लेकर दौड़ जाती हूं तो कोई यह उम्मीद न करे कि हर दिन पति के नहाने के लिए भी तौलिया-कमीज तैयार कर दूंगी।
औरतें अपने सहज स्वभाव से घर में जोड़-तोड़ (ज्यादातर जोड़-जोड़) करती और उसे बांधती रहती हैं। दिक्कत तब आती है जब कोई इस जोड़ने को अपने जीवन का चरम लक्ष्य और दूसरों को इस काम के लिए नाकाबिल मान लेती है। दरअसल यह मानना भी एक तो, उनको बचपन से दी जा रही सीख का हिस्सा होती है, दूसरे, गृहणी को लगता है कि अपना महत्व साबित करने के लिए इस स्थिति को बनाए रखने की जरूरत है।
मेरी चाची 'सुघड़' और 'सुरुचिपूर्ण' कहलाती थीं क्योंकि वे घऱ पूरी तरह खुद संभालती थीं। महरी रोज सफाई करती लेकिन उन्हें 'अपने हाथ की सफाई' और कपड़ा धुलाई ही पसंद था। चाचा को पालक पसंद नहीं, तो घर में महीनों चाची का मनपसंद पालक-पनीर नहीं बनता। जबकि अरबी से उन्हें नफरत है पर हर हफ्ते वो खुद सब्जी बाजार से अरबी उठा लातीं क्योंकि 'उन्हें' पसंद है। खास बात यह है कि इसके लिए चाचा का कभी कोई दबाव उन पर नहीं था। पर चाची को लगता है कि इस तरह वे पति और परिवार के लिए अपरिहार्य हो जाएं तो उनका जीना सार्थक होगा।
पर एक दिन जब वे बिस्तर पर पड़ गईं (इन्हीं बेवजह के कामों में अपनी सेहत को भुलाए रखने के कारण) तो घर अस्त-व्यस्त हो गया और उन्हें संतोष हुआ कि उन्होंने जो चाहा वही हुआ, उनकी कीमत सब समझ रहे हैं। लेकिन कहानी और आगे जाती है और स्थितियां बदलती हैं। उनकी बीमारी के अगले चार दिन पति के घरेलू कामों से जूझने के रहे और उसके बाद चाची की अपरिहार्यता का अंत करने के। चाची के इस भयानक भ्रम के टूटने के बाद भी परिवार में उनकी वही कद्र रही जो पहले थी। उनके किए बिना भी कपड़े धुले और फर्श ठीक-ठाक ही साफ रहा। खाने में मसाले कम पड़े लेकिन सब्जी और दाल के स्वाद में कोई खास फर्क नहीं आया। और इस नए स्वाद में भी किसी को बुरा नहीं लगा। अब चाची सारा दिन घर सफाई और खाना पकाने की बजाए कुछ पढ़ती हैं और उन्हें घर के बाहर चीजों का भी होश आया है। यही है शायद महिलाओं के जागने का पहला कदम।
दरअसल हमेशा, हर मामले को स्त्री बनाम पुरुष के तौर पर देखना बहुत बोझिल होता है। जहां तक महिला के काम की कीमत लगाने की बात है तो उस पर भी अर्थोपार्जन के वही नियम लागू हों जो पुरुषों के लिए हैं, न कम न ज्यादा। और परिवार का साझा काम साझा ही रहे, बंटवारा आपसी सुविधा से, सहमति से हो। यह आदर्श स्थिति लगती है, लेकिन अगर कुछ परिवारों में यह हो सकता है तो ज्यादा परिवारों में क्यों नहीं?
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3 comments:
बहुत खूब!
आपने एक जगह लिखा है कि "स्त्री भी परिवार को बांधती और समृद्ध करती है।"
गलत लिखा है, ऐसा होना चाहिए था..
स्त्री ही परिवार को बांधती और समृद्ध करती है।
अनुराधा की बात को आगे बढाना चाहूँगा ।
पति और पत्नी में श्रम का बँटवारा आपसी सुविधा , सहमति, क्षमता और रुची के अनुसार हो और सब से बड़ी बात है कि यह बँटवारा एक दूसरे के काम के प्रति सम्मान की भावना के साथ हो और सम्मान सिर्फ़ काम के आर्थिक मूल्य के अनुपात में न हो ।
आदर्श स्थिति वह है कि आप जो भी काम करें वह इसलिये नहीं कि आप को करना है बल्कि इसलिये कि उसे करने में आप को आनन्द की अनुभूति होती है , चाहे वह काम स्वयं के लिये हो या परिवार के किसी और सदस्य के लिये।
बराबरी बिल्कुल भी दूर नहीं है. जरूरत है बराबरी के महत्त्व को समझने की. पुरूष और नारी दोनों की अहम् भूमिका है घर को सही तरीके से चलाने में. घर एक सोची-समझी और परस्पर स्वीकार्य व्यवस्था के अंतर्गत चलता है. पति और पत्नी दोनों मिलकर इस व्यवस्था को बनाते और चलाते हैं. किसी का काम ऊंचा या नीचा नहीं है. 'में यह क्यों करुँ?', 'तुम भी यह क्यों न करो', जैसी बातें पति और पत्नी को मिल बैठ कर सुलझानी चाहियें. इस के लिए किसी संघर्ष की आवश्यकता नहीं है. इसके लिए किसी आन्दोलन की जरूरत नहीं है. यह तो आपस की बात है.
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