ज़िन्दगी का अनुवाद
सपना चमड़िया
अभी अभी एक रेडियो पर लोकगीत बज रहा है जो इस तरह समझ पड़ रहा है -
बाबुल मेरी इतनी अरज मान कि मुझे सोनार के घर मत भेज , मुझे गहने पहनने का शौक नही । मुझे व्यापारी के घर भी मत भेज क्योंकि मुझे रुपए पैसे से भी कोई मोह नही है । और मुझे राजा के घर तो बिलकुल मत भेजना , क्योंकि मुझे राज-पाट करना तो आता ही नही है । और भेजना ही है तो लोहर के भेज देना जो मेरी बेड़ियाँ काट दे ।
शायद उसके अनकहे शब्दों में मैं उसे बोलते सुन रही हूँ कि - मुझे किसी के घर मत भेजो बाबुल !!
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पिछले दिनों एक शादी में शिरकत की
आलता लगावाने कोजब मोज़े उतारे
नाइन के साथ साथ
सबकी आँखें
मेरे पैरों मे लिथड़ गयीं
मेरे पायल -बिछुआ रहित दोनो पैर
हिकारत से देखे गये
गुलाम परम्परा के खून के अपराधी के रूप में
इन्हें बख्शा नही जाएगा
नाइन मेरे पैरों मे
सुर्ख आलता
हिकारत से
लगा रही थी ।
भारतीय स्त्री को
सुर्ख रंगों से पीछा
छुड़ाना होगा ।
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सपना की डायरी के पिछले 6 अंश यहाँ पढें ।
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10 comments:
bhut bhavuk hai sundar. badhai ho.
भारतीय स्त्री को रंगोंसे पीछा छुड़ाना होगा.
रंगों से पीछा न छुड़ायें बेरंगी हो जायेगी दुनिया.
मोहतरमा.
और लुहार से बेड़िया कटाने की गुहार भी क्यों लगाई जाये.बेड़ियों पहनी ही क्यों जायें ठीक है न.
पर याद रहे- आप की रचना पर ताज़ा अशआर पेश हैं-
इतनी मानूस सैयाद से आप हो,
गर रिहाई करी तो फिर मर जाओगे.
दाना पानी चुंगो शौक़ से पिजड़े में,
चाहतों से हमारी निखर जाओगे.
सल्तनत में हमारी बग़ावत जो की,
बहुत ज़्यादा उड़े तो बिखर जाओगे.
हम न होंगे जमाने में अय संग दिल,
तुमने सोचा भी है फिर किधर जाओगे ?
दुश्मनी कर के हैं आप उखड़े हुए,
दोस्ती गर करोगे संवर जाओगे .
आमीन.
मानूस-परिचित,familiar.
डॉ सुभाष ,
भारतीय स्त्री को रंगों से नही , "सुर्ख रंगों" से पीछा छुड़ाना होगा । सुर्ख रंग प्रतीक हैं केवल वैवाहिक स्त्री के पारम्परिक जीवन और अपेक्षित व्यवहार सरणियों के ।
लेखिका लोकगीत सुन रही थी , और लोकगीतों में लोक विश्वासों और परमपराओं की झलक तो मिलती ही है स्त्री का दर्द भी झलकता है ।
बाकी यह भी सही है कि गुहार लोहार से भी क्यो की जाए , शायद इसलिए लेखिका अनकहे शब्द सुनती है - मुझे किसे के घर मत भेज ।
अब बस आप यह न कहियेगा कि गुहार बाबुल से भी न की जाए !! :)
get bahut sundar laga aur sahi bediyon se mukti chahiye
"भारतीय स्त्री को सुर्ख रंगों से पीछा छुड़ाना होगा", क्यों सुर्ख रंगों में क्या बुराई है? यह आज की प्रगतिशील नारी की 'पीछा छुड़ाने' की हट उसे वृक्ष से टूटे पत्ते की तरह आधारहीन बना देगी. फ़िर अपनी कोई दिशा नहीं रहेगी. हवा जहाँ चाहेगी उड़ा कर ले जायेगी. घर से पीछा छुड़ाना है. पति और उसके रिश्तेदारों से पीछा छुड़ाना है. सुर्ख रंगों से पीछा छुड़ाना है. बस सारी जिंदगी पीछा छुड़ाने में नष्ट कर दीजिये. अरे भई यह छोटी सी जिंदगी है. इसे सबके साथ मिल बाँट कर हँसी-खुशी बिताइए.
अकसर कहा जाता है कि गहनों में औरतों की जान बसती है, लेकिन बड़े संदर्भ में देखा जाए तो ये समाज के गढ़े हुए अपने मिथक हैं। औरतों को सोने और पैसे से ज्यादा पसंद अपनी आजादी है। सोने के पिंजरे की बजाय वो थोड़ा सा प्यार और आजादी ही प्रिफर करेंगी।
Nice ,,simply..tooo gud....
सुरेश जी ,
शायद आप प्रतीकात्मकता समझ नही पा रहे हैं ।
चोखेर बाली के मुद्दों पर आपका बार बार खफा होना , खीझना....बहुत कुछ सिद्ध कर रहा है .....!!
सुजाता जी, मैं किसी मुद्दे पर न तो खफा होता हूँ और न ही खीझता हूँ. मेरी टिप्पणियों पर गंभीरता से विचार करें. उन्हें ऐसे ही न नकार दें. आज के तनावपूर्ण और उलझे हुए वातावरण में यह जरूरी है कि मुद्दों पर एक सकारात्मक सोच बनाया जाए. नारी की हर समस्या के लिए पुरुषों को दोष देने से समस्या सुलझने वाली नहीं है. आज भारतीय समाज में दोषारोपण करना एक फैशन बनता जा रहा है. जिसको देखिये दूसरों को दोष दे रहा है. हर मामले में स्वयं को निर्दोष देखना और यह मानना की दोष हमेशा दूसरों का होता है, समस्या के मूल कारणों तक नहीं पहुँचने देता. नारी को आत्म-मंथन करना होगा. समस्या क्या है और उसके मूल कारण क्या हैं, कौन उस के लिए जिम्मेदार है, समस्या-उन्मूलन के लिए क्या किया जाना चाहिए, इसमें किस-किस का सहयोग चाहिए होगा, इन सवालों के उत्तर तलाशने होंगे. तभी कुछ उम्मीद बनेगी और कुछ समस्यायें सुलझ पाएंगी.
Suresh Gupta said... नारी को आत्म-मंथन करना होगा. समस्या क्या है और उसके मूल कारण क्या हैं, कौन उस के लिए जिम्मेदार है, समस्या-उन्मूलन के लिए क्या किया जाना चाहिए,
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सुरेश जी इसकी पिछली पोस्ट - कैसे हुआ घरेलू श्रम का अवमूल्यन - ---कारणो की ही खोज करता है ।आप उसे दोषारोपण कह रहे हैं या इस कविता को ? इस कविता को ?तो मुझे हैरानी है।
यदि पिछली पोस्ट को कह रहे हैं तो वह दोषारोपण नही है वरन मार्कसवादी चिंतन और उसकी आलोचना थी । शायद आप समझ रहे हों कि यह सब मैं मनगढंत कह रही हूँ और मै हूँ ही कौन तो बता दूँ कि यह विद्वानों द्वारा कहा जा चुका और पुस्तकों मे दर्ज हो चुका है।
स्त्री तो आत्ममंथन कर ही रही है ! लेकिन आत्ममंथन करने की ज़रूरत सभी को है , आप को भी ।
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