पिछले तीन महीनों से व्यस्त थी। पहले भतीजी पलक छुट्टियाँ बिताने मेरे पास आई, फ़िर छोटी ननद, फ़िर छोटे भाई के बच्चे-आदित्य और निक्की। बीच के समय में मैं कुछ दिन के लिये मायके चली गई, और वहाँ से अस्वस्थ छोटी बहन के पास। मेरे घर लौटने के बाद हमारा बेटा तुषार परिवार सहित मिलने आ गया। परिजन के साथ समय जैसे पंख लगा कर उड़ गया।
सबके चले जाने के बाद एक अवसाद सा मन पर घिर आया। अपने दोनों बच्चों के जाने के बाद यूँ भी घर चुप-चुप और अकेला सा लगता है। पर इस अकेलेपन का अहसास व्यस्तता के अचानक समाप्त हो जाने के बाद बड़ी तीव्रता से होता है।
पहले कई सालों तक स्कूल में पढ़ाया करती थी, तो आधे से ज़्यादा दिन वहाँ बीत जाता था, बच्चों और साथियों के साथ मन लग जाता था। कुछ साल पहले पारिवारिक कारणों से नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह घरेलू महिला बन गई। छ-सात साल बाद जब फ़ुर्सत मिली तो फ़िर से नौकरी के बंधनों में बंधने का जी नहीं चाहा। अच्छी लगने लगी यह आज़ादी कि जब जी चाहे, जहाँ मर्ज़ी हो आ-जा सकती हूँ, किसी से इज़ाज़त नहीं लेनी है, किसी की जवाबदारी नहीं है अपने पर।
औरत होने के बहुत डिसएडवांटेज होते हैं ज़िंदगी में, पर यह एक एडवांटेज मिला है मुझे। नौकरी करना मेरे लिए एक मजबूरी नहीं है। घर चलाने के लिये कमाने की ज़िम्मेदारी पति की है, मेरा काम घर को सुचारु रूप से चलाना भर है। इसलिये पहले भी जब नौकरी की तो इसलिए कि मुझे पढा़ना अच्छा लगता है, बच्चों के साथ काम करना अच्छा लगता है। उनकी भोली-भाली बातें मेरे दिल को भाती हैं । जहाँ बड़ों की दुनिया का छल कपट मन को खिन्न कर देता है, बच्चों की निश्छलता से रूबरू होकर मेरा इंसान की मूलभूत अच्छाई में विश्वास फ़िर से पक्का हो जाता है। बच्चों को कुछ नया, कुछ नयी तरह से सिखाने में जो उपलब्धि का अहसास होता है, वह अलग।
जब पहली बार अकेली हुई थी तो मैं मुम्बई में थी। पहले मैंने अपने खालीपन को भरने की कोशिश की- किताबों से, टीवी से, कंप्यूटर से और इंटरनेट से। फ़िर भी खाली-खाली लगता रहा तो एक एन जी ओ- आशा किरण- द्वारा संचालित एक झोपड़-पट्टी के स्कूल में दिन के तीन घंटे पढाने लगी। बच्चों का साथ फ़िर से मिल गया था जिसने मेरे अकेलेपन को भर दिया । कुछ समय बाद पति का बंगलोर तबादला होने पर यहाँ चली आई। यहाँ आकर वैसा ही काम ढूंढने की कोशिश की तो देखा कि स्थानीय भाषा जाने बिना यहाँ एन जी ओ में काम का अवसर मिलना मुश्किल है। मुम्बई में सभी हिन्दी जानते हैं, समझते हैं पर बंगलोर का गरीब तबका केवल कन्नड़ भाषा जानता है। उनकी भाषा जाने बिना उनके साथ काम कैसे करूं?
फ़िर से किताबों, टीवी और इंटरनेट का सहारा लिया। इसी तरह इंटरनेट की दुनिया में घूमते-भटकते हुए चोखेर बाली से पहचान हो गई। अच्छा लगा पल्लवी, सुजाता, अनुराधा, आभा, स्वप्नदर्शी, अशोक पांडे जैसे लोगों के विचार पढ कर, वे लोग जो इतने सही और तार्किक ढंग से सोचते हैं। लगा कि ये सब मेरे मन की बात कह रहे हैं। मैं लगभग रोज़ चोखेर बाली के साथ कुछ वक्त बिताने लगी। पर कुछ दिन बाद लगने लगा कि मैं कुछ सार्थक नहीं कर रही हूँ। सिर्फ़ अच्छी और सही बातें पढ़ने और लिखने से क्या होगा? क्या इससे किसी को कोई लाभ हो रहा है? किसी की ज़िन्दगी में कोई बदलाव आ रहा है? जो लोग यह बातें पढ़ या लिख रहे हैं, वह तो पहले से जागे हुए हैं। क्या यह विमर्श किसी सोये इंसान को भी जगा पा रहा है? उसकी तो पहुँच ही इस मीडियम तक नहीं है।
यह बेचैनी मुझे फ़िर एक ऐसे एन जी ओ की तलाश की ओर ले गई जहाँ मैं कुछ ऐसा कर सकूं जिससे कुछ फ़र्क पडे। आखिरकार मुझे एक ऐसा स्कूल मिल गया जहाँ भाषा की दिक्कत के बावज़ूद मैं कुछ मदद कर सकती हूँ। इस संस्था में रोज़ तीन घंटे झोपड़-पट्टी के बच्चों के साथ बिताती हूँ। हम टूटी-फूटी भाषा में एक-दूसरे से बातें करते हैं। शब्दों का सहारा लिये बिना अपनी बात एक-दूसरे को समझाने का प्रयास करते हैं। सच कहूँ, बहुत मज़ा आता है।
अब जब कोई पूछता है कि आप आज कल क्या कर रही हैं तो मैं यह सवाल अपने आप से नहीं करने लगती। जब पति शाम को घर आने के बाद पूछते हैं कि आज क्या- क्या किया दिन भर, तो उत्तर देने के लिये सोचना नहीं पड़ता। कई सारे बच्चे मेरी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में फ़िर से शामिल हो गये हैं। बच्चों के साथ ने फ़िर एक बार मेरे अकेलेपन को एक सार्थकता के अहसास से भर दिया है।
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14 comments:
बहुत अच्छा लगा वंदना जी,सचमुच आपने सराहनीय काम किया है...सिर्फ़ लिखने और पढने से ही दिल को सुकून नही मिलता..सुकून तो तब मिलता है जब हम ख़ुद कर के दिखाएँ जो हम सोचते हैं...खुदा आपको कामयाब करे..आप की पहल दूसरों को भी रास्ता दिखाए...आप इस काम में आगे बढती रहें और अपना अनुभव हम से बांटती रहें...इस कामना के साथ...रख्शंदा
वंदना, आप जैसे सुलझे और सक्रिय लोग न सिर्फ अपने लिए नए रास्ते ढूंढ रहे हैं, बल्कि दूसरों को भी रास्ते दिखा रहे हैं। कोशिशें जारी रहें और आपकी जमात में लोगों की संख्या खूब बढ़े, ऐसी शुभकामना करती हूं।
Yah talaash to zindagi bhar chalni hai.
bravo
"सिर्फ़ अच्छी और सही बातें पढ़ने और लिखने से क्या होगा? क्या इससे किसी को कोई लाभ हो रहा है?", कितनी सही बात है. पढ़ने और लिखने के साथ कुछ करना भी जरूरी है. आपने कुछ किया और अब फ़िर कर रही हैं. यही है सार्थकता जीवन की.
Its very nice to know about you. There is also an organization in Banglore called "swasthay", and I have heard good things about it. And also several people associated with Sandeep Pande's ASHA. You might friends there as well.
best wishes
बहुत दिन बाद आपको पढने का अवसर आया और आपकी इस उत्साह और ताज़गी भरी पोस्ट से मन प्रसन्न हो गया ।
शुभकामनाएँ !
‘चोखेर बाली’ की पोस्ट पढ़ने के बाद पहली बार बिना किसी उलझन के टिप्पणी कर पा रहा हूँ। एक शीतल, मंद, सुगन्ध समीर की बह रही हो जैसे आपकी पोस्ट से। एक ताजा हवा का झोंका हो जैसे...।
इधर बात-बात पर घमासान होता देखकर मन में जैसे कुछ कचोटता रहता था शायद। पहली बार मैं नारी होने में किसी ‘एडवान्टेज़’ की बात पढ़कर अच्छा महसूस कर रहा हूँ।
बधाई और शुभकामनाएं ।
"नौकरी करना मेरे लिए एक मजबूरी नहीं है। घर चलाने के लिये कमाने की ज़िम्मेदारी पत्नि की है, मेरा काम घर को सुचारु रूप से चलाना भर है।"
वैसे "अ फेयरी टेल बोले तो दुनिया की सबसे छोटी परी कथा" ये भी हो सकती है - पुरुष के लिये ....:-)
बधाई और शुभकामनाओं के लिये धन्यवाद। उत्साहवर्धन के लिये आभारी हूँ।
वन्दना जी बहुत बहुत शुभकामनाऎं !जीवन में सार्थकता और संतोष का काम कर पाना एक बडी उपलब्धि है !
aap jaise logon se hi badlaw aayega..aapke prayas ko hamara salam
मन उपयुक्त काम कर पाना भी, महिला सशक्तिकरण का उदाहरण है।
बधाई ! जारी रहें ।
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