रश्मि सरस
कक्षा में बच्चों को आज भी पढाया जाता है कि गाय दूध देती है , पेड़ फल देते हैं , नदियाँ जल देती हैं वगैरह। सो यह हमें कितना स्वाभाविक लगता है । मानो गाय सहर्ष दूध देती हो और उसके दूध की एकमात्र सार्थकता यही है कि उसे हम अधिक से अधिक दुहते जाएँ और छक कर उसका भोग करते रहें ।
इस छल में भाषा हमार भरपूर साथ देती है। वह हमारी चेतना पर मनचाहे आवरण डाल देती है। फिर दुनिया हमें वैसी नही दिखती जैसी कि है बल्कि ऐसी नज़र आती है जैसी देखी जाने से हमारे स्वार्थ सधते हों।साफ है कि भाषा सच और झूठ , दोनो की वाहक होती है। भाषा के माध्यम से गढे हुए एक व्यापक मिथक के कारण ही गटागट दूध पीते हुए यह विचार हमें नही कचोटता कि हम जिसका हक मार रहे हैं वह एक निरीह बछड़ा है ।
अगर दूध से हड्डियाँ मज़बूत होती हैं और शरीर में ताकत आती है, तो हम शेर चीती , भेड़िया आदि स्तनधारियों का दूध क्यों नही पीते?
सीधी बात है , उनका दूध हासिल करना हमारे लिए सम्भव नही है ।गाय सरलता से काबू में आ जाने वाली सीधी और स्त्रीलिंग प्राणी है ।इसलिए उसके कातर शरीर में जो दूध उसके बच्चे के लिए उत्पन्न होता है , उस पर हम अपना हक मान लेते हैं ।
किसी भी दुधारू जीव के शरीरे में दूध और खून बनने का स्रोत एक ही होता है । आंतरिक ग्रंथियाँ हार्मोनों की उत्तेजना से प्रेरित होकर खून से दूध बनाती हैं ।सभी स्तनधारी माँओं के शरीर मे उनके बच्चों के पोषण के लिए दूध बनता है ।इसी उद्देश्य से कुदरत सीमित मात्रा मे और निश्चित अवधि के लिए धूध का निर्माण करती है ।पर लालची आदमी गाय, भैंस,बकरी ,ऊण्टनी आदि निरीह प्राणियों के बच्चों को परे कर उनके हिस्से का दूध हड़प लेना चाहता है । धरती पर मानव अकेला ऐसा जीव है जो मरने तक दूध पीता है -वह भी दूसरी प्रजातियों का ।
दूध हड़पने के तरीके इतने क्रूर हैं कि मानव जाति को सभ्य बताने का मित्र्हक रचने वाली भाषा पर पुनर्विचार की ज़रूरत है । गाय और भैंस् जैसे दुधारू पशु ममता से कातर अपने बच्चे को देखते रहते हैं और उनका सारा दूध निचोड़ लिया जाता है ।कई बार सिर्फ अपने बच्चे को दूध पिलाने की ललक से गाय अपना दूध सुखा लेती है या कहें कि अपने सांतान से विछोह की वेदना उसकी ग्रंथियों मे संकुचन पैदा कर देती है और उसका दूध नही निकलता। तब कहा जाता है कि वह दूध की चोरी कर लेती है ।
इस चोरी को रोकने के लिए उसके बच्छड़े को थन मे लगाया जाता है और दूध उतर जाने पर उसे अलग कर गाय का सारा दूध निचोड़ लिया जाता है ।भैंस के नर बच्चे को तो पैदा होते ही मार दिया जाता है ,फिर उसकी खाल मे भूसा भरकर उसे उसकी माँ के पास लाया जाता हैताकि उसकी ममता दूध बनकर बहती रहे ।
अब तो विज्ञान ने ऐसे तरीके मनुष्य को दे दिये हैं कि एक इंजेकशन लगा कर दिमाग को इतना उत्तेजित कर दिया जाता है कि उसके असर के आगे सारी ममता मस्त हो जाती है और कम समय मे ज़्यद से ज़्यादा प्राणरस खींचा जा सकत है । बड़ी बड़ी डेयरियों में भैंस के थन से दूध खींचने के लिए स्वचालित यंत्रों का प्रयोग किया जाता है {जो निश्चित ही दुखदायी है}
आज भी किसी स्त्री की प्रशंस में कहा जाता है कि वह तो निरी गाय है ।इस उपमा से समझा जा सकता है कि स्त्री से क्या अपेक्षा होती है ।शायद इसी का विस्तार कहानीकारों की इस कल्पना में मिलता है कि स्त्री को सचमुच गाय जैसा बन जाना पड़ता है । सुभाष पंत की कहानी दूध का दाम में एक अफसर की इस धुन पर कि उसे अपने बच्चे को गाय का दूध पिलाना है , एक गरीब स्त्री अपना दूध उसके पास भिजवाने लगती है, क्योंकि उस पूरे गाँव मे कोई गाय नही थी ।
हम और हमारे भोले बच्चे कक्षा मे सीखते रहते हैं "गाय दूध देती है .........."
रश्मि सरस
साभार - जनसत्ता
7 जुलाई 2008
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14 comments:
pishTapeshaN aur saamaanyeekaraN se bharaa ausat charvit-charvaN .
kuchh behatar aur vichaarottejak naheen hai cho.baa. ke paas ?
गाय के दूध को गाय का शोषण घोषित तो आपने कर दिया, पर क्या आप स्वयं दुग्धपान नहीं करते हैं? नहीं करते हों तो आपको शत शत नमन, अन्यथा वैचारिक ईमानदारी की आवश्यकता है।
पूर्णविराम के पहले खाली स्थान न छोड़ें पर बाद में छोड़ें।
"गाय सरलता से काबू में आ जाने वाली सीधी और स्त्रीलिंग प्राणी है"
मैंने तो सुना था कि स्त्रीलिंग प्राणी ही दूध दे सकते हैं - फिर चाहे वह गाय हो या बकरी, ऊंटनी हो या शेरनी। हां यदि आप पुल्लिंग प्राणी का दूध निकालना चाहती हैं तो भगवान से यह नियम बदलने की गुहार लगानी पड़ेगी! :)
इसी सोच को व्यापक करें तो भुखा मरना पड़ेगा.. चील कौओ कि पार्टी होगी.. सब्जी, फल ये भी नहीं खाना चाहीये.. ये भी तो सजीव है.. महावीर कहते थे... जो फल पेड़ स्वत: त्याग दे वो ही मनुष्य के भक्षण योग्य है..
कुछ लोग ज्यादा दूध निकालने के लिए गाय पर अत्त्याचार करते हैं, यह तो सत्य है. इस पर ऐतराज करना भी ग़लत नहीं है. पर यह बात शायद एसपीसीऐ के एजेंडा में नहीं है. क्या चोखेरवाली ब्लाग इसे अपने एजेंडा में ले रहा है? बस एक बात का ध्यान रखियेगा कि अगर गाय ने दूध देना बंद कर दिया तो फ़िर सबको सिंथेटिक दूध पीना होगा. सरकार को भी सिंथेटिक दूध बनाने को कानूनी मान्यता देनी होगी. साथ ही बिना दूध की गाय को कौन पालेगा?
सोच भी इंसान को क्या-क्या दिखाता है.
यह लेख जनसत्ता से लिया गया है और सुरेश जी की तरह शायद सभी को लग रहा है कि चोखेर बाली मे इसका औचित्य क्या है ?
मेरा इस लेख को यहाँ देने का कतई इरादा नही है कि दूध पीने , शाकाहारी होने या , माँसभक्षण पर बहस शुरु हो ।
लेख टाइप करने से पहले ही यह आशंका हो जाती तो अपनी ओर से एक टिप्पणी तभी दे देती ।
खैर ,
मेरी मानना है कि हाशिये की अस्मिताओं की सच्ची स्थिति तक पहुँचने के लिए और व्यवस्था के सत्य का उद्घाटन करने के लिए हमें - हमेशा दिये गये टेक्स्ट में उसे पढने की कोशिश करनी चाहिये जिसे नही लिखा गया । उसे सुनना चाहिये जिसे नही कहा गया । इसे टु रीड बिटवीन लाइंस भी कहते हैं ।
अब सीधी बात -
लेख का आरम्भ कहता है -
कक्षा में बच्चों को आज भी पढाया जाता है कि गाय दूध देती है , पेड़ फल देते हैं , नदियाँ जल देती हैं वगैरह। सो यह हमें कितना स्वाभाविक लगता है । मानो गाय सहर्ष दूध देती हो और उसके दूध की एकमात्र सार्थकता यही है कि उसे हम अधिक से अधिक दुहते जाएँ और छक कर उसका भोग करते रहें ।
----आगे लेखिका ने बताया कि कैसे मनुष्य की स्वार्थी प्रवृत्ति उसकी भाषा मे झूठ को महान और पवित्र का जामा पहनाने , मिथक गढने को उद्यत करती है ।
अंत मे स्त्री के उदाहरण को जानबूझ कर लाया गया है लेख में ।
स्त्री और गाय की तुलना हमेशा से की जाती रही । चाहे वह व्यवहार का सीध्स्स्पन हो या आत्मपीड़न के बावजूद दूसरों को सुख देने की बात हो । चाहे गाय पर दूध निकालने के लिए कितने ही अमानवीय अत्याचार होते हों , हमने हमेशा खुद को यही समझाया कि गाय महान है , वह दूध देती है ।
शायद लेखिका का भी यही उद्देश्य था ।
मैं यही बात स्त्री के सम्बध मे रेखांकित करके कह रही हूँ कि अब तक स्त्री को भी उसके किये गये कामों ,त्यागों , बलिदानों के चलते देवी साबित किया जाता रहा । जो उस पर अत्याचार था उसे हमने हमेशा महान का जामा पहनाया । ठीक वैसे ही कि अगर इस लेख को पढ कर उसके मर्म तक पहुँच गये तो आप आज से दूध पीना छोड़ देंगे । इसी लिए स्त्री को यथास्थिति में फंसाए रखा जाता है , नारीवाद को गाली दी जाती है कि अगर आप समझ गये कि जिसे आप सहज मान रहे हैं वह अत्याचार है तो आपसे दूध की तरह न जाने कितनी सुविधाएँ छूट जाएंगी ।
सो समझें कि स्त्री के किये गये काम और उसके व्यवहार स्वाभाविक बहुत कम और अपेक्षित ज़्यादा हैं ।
"धरती पर मानव अकेला ऐसा जीव है जो मरने तक दूध पीता है -वह भी दूसरी प्रजातियों का ।"
कहना सही है लेकिन बात गलत है।
प्रकृति हर चीज हिसाब से ही रखती है। इंसान को चार साल तक की उम्र तक मां के दूध की जरूरत है। इसलिए ज्यादातर लोगों की दूध हजम करने की ताकत 4 साल के बाद खत्म हो जाती है। पर बुद्धिवान इंसान अपने लालच के लिए बिना हजम कर पाए भी बुढ़ापे तक दूध पीता है। अपनी प्रजाति का नहीं ही मिल सकता, तो दूसरी प्रजाति का। शर्मनाक है। प्रकृति से खिलवाड़, दूसरों का हक मारना, निरीह पर धौंस जमाना, सरल को धोखा देना, कम ताकतवर को दबोच कर रखना, इस्तेमाल करना,.....। ये सब कर्म बुद्धिवान (मैंने जानबूझ कर बुद्धिमान नहीं कहा) इंसान बिना हिचक करता है। और करता है!!!
@"कक्षा में बच्चों को आज भी पढाया जाता है कि गाय दूध देती है , पेड़ फल देते हैं , नदियाँ जल देती हैं",
बच्चों को तो यही पढाया जायेगा. क्या उन्हें गाय पर अत्त्याचार के बारे में बताते हुए यह बताया जाए कि गाय अपनी मर्जी से दूध नहीं देती. फ़िर गाय की तुलना स्त्री से करके बच्चों को क्या बताया जायेगा? बच्चा भी तो मां के दूध के लिए जिद करता है, एक तरह से बच्चा मां को मजबूर कर देता है कि वह उसे दूध पिलाए. क्या हम इसे बच्चे द्बारा मां पर अत्त्याचार करना कहेंगे. और अगर बच्चा पुरूष है तो यह पुरूष द्बारा नारी पर अत्त्याचार हो जायेगा.
यह सही है कि इस पुरूष प्रधान समाज में पुरुषों ने नारी पर बहुत अत्त्याचार किए हें. समाज की व्यवस्था में ऐसे बहुत से प्रावधान रखे गए जो नारी को पुरूष से नीचा दिखाते हें. इन में आमूल परिवर्तन करना जरूरी है. लेकिन हर प्रावधान को इस तरह नहीं देखा जाना चाहिए. मानवीय सम्बन्धों का मानव जीवन में एक अपना ही महत्त्व है. अब अगर हर मानवीय सम्बन्ध को नारी पर अत्त्याचार के रूप में देखा जाने लगा तब तो जीवन बिल्कुल मशीनी हो जायेगा.
दरअसल गाय प्रतीक है सरलता और समर्पण का। प्राचीन समाज से ही पुरूषों की यह सोच रही है कि महिलाएं भी गाय की ही तरह समर्पित भाव से हमारी सेवा करें। इसीलिए प्रतीक रूप में गाय को माता भी कहा जाता है। जिससे समस्त माताएं गाय से शिक्षा लें और उसकी तरह समर्पण के साथ पुरूष मात्र की सेवा करके माता का उच्च दर्जा प्राप्त करें और इतराएं।
Anuradha, humans have trained the system to get the best nutrition possible. In a way process of domestication has resulted in hiring cattle for humans and vice versa. Both have evolved simultaneously to take the best advantage of each other. Their survival depends on both. If you are trying to link this to a human behavior that's a different issue and the example cited is not a good one.
मुझे तो लेख अच्छा लगा यह कि गाय क्यूंकि सीधी होती है उसका शोषण अपने स्वार्थ के लिये इन्सान करता है । उसी तरह स्त्रियों का शोषण भी तभी तक होता है जब तक वे जरूरत से ज्यादा सीधीं हैं ।
एक बात इस लेख की खटकती है कि गाय अगर अपने बच्चे के लिये दूध बचाती है और दूध देती नही है तो वह चोरी कैसे हुई ।
गायें दूध देती हैं ,जुगाली करती हैं और कुछ तो मरखनी होती हैं और एकाध कामधेनु भी !
Pishtapeshan ka bhavarth kaya hota hai
Pishtapeshan ka bhavarth kaya hota hai
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