
संगीता मनराल
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ऐसे तो कई मुद्दे हैं, जबकि कोई दबाव नहीं, कोई मजबूरी नहीं और ना ही कहीं कोई तानाशाही है, लेकिन ये बात कई बार दिल को कचोट जाती है कि औरत तो औरत है और औरत ही रहेगी.
स्त्री के प्रति भेदभाव पूर्ण नज़रिये की बात होती है तो ज़्यादा तर लोग कहते पाए जाते हैं कि बराबरी और सम्मान मिल तो रहा है ! हर क्षेत्र मे स्त्री ने पाँव जमा लिये हैं । उन्हें आरक्षण भी मिलता है । किस बात का रोना है ? अभी किसी पिछली पोस्ट में{शायद अनुराधा जी की फेयरी टेल के सम्बन्ध में} गौरव जी ने स्त्री सशक्तिकरण के समीकरण की बात उठाई थी, तो सोचा उनके जवाब में अपनी पुरानी पोस्ट यहाँ भी पोस्ट कर दूँ.
कुछ सालों पीछे चली जाँऊ (ज्यादा नहीं सिर्फ २० साल) तो माँ बताती हैं कि दादा जी ने उन्हें नौकरी करने कि मंजूरी नहीं दी थी, शायद ये कहकर कि भले घर कि औरते काम पर जाती हैं क्या? या फिर ये सोचकर की अपने पति से अच्छी नौकरी भला, कैसे तुम कर सकती हो? फिर तो कई बहाने, कई सुविधाओं को गिना दिया गया अरे इतनी दूर है, रोज़ बस से आना जाना कैसे करोगी?? बस फिर क्या था, पापा ने भी दादा जी की बातों को तवज्जो देकर माँ को नौकरी नहीं करने दी. ऐसा नहीं है कि दादा या पापा पढे लिखे नहीं हैं लेकिन फिर भी ऐसी कई बन्दिशों में एक पुरुष मानसिकता निहित थी ।
आज इकीसवीं सदी तक पँहुचते पँहुचते ये बदलाव तो है कि औरत नौकरी कर सकती है, कुछ पैसे कमा सकती है. लेकिन फिर भी कुछ तो बंदिशे अब भी बरकरार हैं .व्यवसाय चुनने से लेकर कार्यस्थल पर व्यवहार करने तक . अगर औरत घर अक्सर देर से लौटेने लगे तो इन हिदायतों का मिलना तो लाज़मी सा है.
देर तक बैठना पङता है तो छोङ क्यों नहीं देतीं?
घर कि तरफ भी तो देखा करो?
अरे अब बस करों, क्या मेरा कमाया पैसा कम पङता है?
अगर आदमी प्रोफैशनल बनकर अपना काम लेट आर्स तक बैठ कर कर सकता है, तो औरत के ऐसा करने पर ऐतराज़ क्यों?
अरे, इतनी दूर आफिस ज्वाइन करने वाली हो, पता है पूरे १ घंटे की ड्रईव है. फिर तुम्हें घर भी तो दिखना है कौन करेगा ये सब???
कुल मिलाकर यह कि स्त्री के लिए प्राथमिकता हमेशा परिवार और घर ही रहता है,इस जकड़ से वह बाहर निकलेगी तभी अपना असली स्वरूप जान पाएगी ।महात्मा बुद्द्ध जाने कहाँ कहाँ भटके थे । { इस पर कुछ टिप्पणियाँ आयेंगी - समस्या का हल घर के बाहर खोज रही हैं ये प्रगतिशील औरतें ।तो उनसे भी कहेंगे कि घर की चार दीवारी के भीतर रहकर स्वयम को वे भी पहचानने की कोशिश करें ।}
ऐसी कई बातें है जो स्त्री सशक्तिकरण के समीकरणों को झुठला देती हैं.ऊपर से देखने पर जहाँ सब तरफ लोकतंत्र नज़र आता है वहाँ पर समानता और बन्धुत्व की उड़ती हुई धज्जियाँ आपको भी दिखाई दे रही होंगी ।पर फिर भी उम्मीद है आने वाला कल और बेहतर होगा.
18 comments:
bharatiy naree ke sandarbh me apke vichaaro se sahamat hun .mahilao ko bhi bhi 21 vi sadi ke anusaar apni manasikata me parivaratan karne honge.agar bura n mane to....
सटीक....
दुनिया के हर समाज में एक व्यवस्था होती है. वह धीरे-धीरे निर्माण होती है और धीरे-धीरे ही उस में परिवर्तन किया जा सकता है. युगों से चली आ रही व्यवस्था को एक दम बदला नहीं जा सकता. समय लगेगा. एक दम बदलने की कोशिश करेंगे तो उसमें विकृति आ सकती है. पिछले तीस-चालीस वर्षों को देखें तो पायेंगे कि इस व्यवस्था में काफ़ी परिवर्तन आया है. कानून में भी बदलाब आया है, और नए कानून भी बने हैं. इन बदले हुए और नए कानूनों का फायदा धीरे-धीरे नजर आना शुरू भी हो गया है. मेरे विचार में यह एक संतोषदायक स्थिति है. इसमें और सुधार होता रहे यह जरूरी है.
एक बात का ध्यान रखना और जरूरी है कि जहाँ परिवर्तन जरूरी है वहीँ किया जाय. परिवर्तन के नाम पर समूची सामाजिक व्यवस्था को ही बदल देना सही नहीं होगा. समाज के कुछ वर्गों में काफ़ी तेजी से परिवर्तन हुआ है. दूसरे वर्ग इस परिवर्तन को या तो समझ नहीं पाये हैं या उन्हें अभी इस परिवर्तन की जरूरत महसूस नहीं हुई है.इसका कारण अलग धार्मिक मान्यताएं, शिक्षा की कमी, गरीबी, कुछ भी हो सकता है. यह अन्तर बढ़ता जा रहा है. जो नारियां आगे निकल गई हैं अगर वह पीछे देखें तो पाएंगी कि नारियों का एक काफ़ी बड़ा वर्ग काफ़ी पीछे रह गया है. उनके उत्थान का काम किसी को तो करना होगा. भारतीय समाज की सीमा विशाल है. एक कोने में हुए परिवर्तन की जानकारी, तकनीकी साधनों द्बारा दूसरे कोने तक पहुँच तो जाती है, पर उसे वहां तुंरत ही आत्मसात करना सम्भव नहीं हो पाता.
मेरे विचार में, नारियों से सम्बंधित कुछ ऐसे मुद्दे हैं जहाँ तुंरत ध्यान देने की आवश्यकता है. इसके लिए नारियों को संगठित होना होगा. बाल विवाह, सती प्रथा, विधवाओं की समस्या, दहेज़ इत्यादि ऐसी समस्यायें हैं जो पूरी तरह दूर नहीं हुई हैं. पीड़ित नारियों को यदि सशक्त नारियों का सहारा मिले तो काफ़ी फायदा हो सकता है. यह पीड़ित नारियां ख़ुद चल कर शायद न आ सकें, इस लिए सशक्त नारियों को उनके पास जाना होगा होगा.
आप बिल्कुल ज्वलंत समस्याओं को उठा रही हैं। इसी प्रकार लगे रहिये।
सरपंच : मलाई का प्रपंच पढि़ए इसमें चोखेरबाली का संदर्भ भी है।
- अविनाश वाचस्पति
nariyon ko nariyon ka sahara bhi mil raha hai. Nari sangathan is disha men kafi kam kar rahe hain.. Purush ki mansikta badalne ki mera matalab hai aur teji se badalne ki jarurat hai, lekin yah bat bhi hai ki stree ko wiwah karaate samay in sab muddon ko dhyan men rakhna chahiye. ya wo akele jindagi bitane ka nirnay bhi le sakti hai. ghar basane par samzote to karna padte hi hain chahe purush ho ya stree. Purush ko shulyaten kuch jyada mil jatin hain par dheere dheere badlaw aa raha hai kum se kum shaharon men
@“दादा जी ने उन्हें नौकरी करने की मंजूरी नहीं दी थी, शायद ये कहकर कि भले घर कि औरते काम पर जाती हैं क्या? या फिर ये सोचकर की अपने पति से अच्छी नौकरी भला, कैसे तुम कर सकती हो?”
नौकरी...नौकरी...नौकरी...। आत्मनिर्भरता का पैमाना। जीवन की सार्थकता का आधार। समाज में नाक ऊँची करके जीने का सबसे मजबूत माध्यम। ...शायद आज का मध्यमवर्ग इसी महामंत्र का जप करके हलकान होता जा रहा है। स्त्री स्वातंत्र्य का पैमाना भी इसी मानसिकता से गुजर कर अपनी परिभाषा को संकुचित कर रहा है।
मेरा मानना है कि नौकरी को मूलतः आजीविका का एक साधन ही मानना चाहिए। यदि हम अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी कर सकने में अन्यथा असमर्थ होते हैं तो नौकरी ढूढते हैं। आप कहती हैं कि अबसे २० साल पहले भले घर की महिलाओं का नौकरी करना अच्छा नहीं माना जाता था। अब ऐसा नहीं है। अबसे ५०-६० साल पहले भले घर के आदमी भी ‘नौकरी’ को बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानते थे। कृषि आधारित व्यवस्था में या तो जमींदार थे या श्रमिक-मजदूर। अंग्रेजी शासन में ऑफ़िस, ऑफीसर और कर्मचारी का तानाबाना बुना गया जो आज़ादी के बाद विरासत में हमें मिला। अर्थव्यवस्था के विकास, जनसंख्या की वृद्धि, औद्योगिक क्रान्ति और खेती की जमीन पर बढ़ते दबाव के फलस्वरूप घर और परिवार से बाहर निकल कर नौकरी करने की आवश्यकता पड़ी। इसके लिए पहले पुरुष बाहर निकला। घर और बच्चों को सम्भालने का दायित्व औरत पर छोड़कर जो ममतामयी माँ थी, वात्सल्य और स्नेह लुटाने में पुरुष से कहीं मीलों आगे। । पता नहीं कब और कैसे नौकरी करने को ‘बड़ा’ और घर-परिवार सम्भालने को ‘छोटा’ काम मान लिया गया? मैं तो आज भी ऐसा नहीं मानता।
उसी विकास के अगले चरण में ‘आमदनी’ का महत्व इतना बढ़ गया है कि कमाने वाले के हाथ में ही कमान चली गयी - सभी प्रकार के निर्णय लेने और मालिक बन जाने की। भले ही पैसा कमाने के अलावा उसके व्यक्तित्व के बाकी हिस्से नितान्त घटिया दर्ज़े के हों। इसी दुरवस्था की भेंट चढ़ने की तैयारी में है हमारे समाज की ‘परिवार’ नामक संस्था। कबीले से बँटकर हम बड़े संयुक्त परिवार में आये, फिर ‘छोटा परिवार सुख का आधार’ बना, इसके बाद दूधो नहाओ-पूतों फलो से ‘हम दो हमारे दो’ तक आ गए। फिर डिंक्स (double income no kids-DINKs)का चलन बढ़ा... और अब उसमें भी ‘तेरा कम, मेरा-ज्यादा’ का झगड़ा हो जाने के कारण एकल जीवन की ‘परीकथा’ सच करने की चाह मचल रही है। अन्य ज़रूरतों के लिए live-in सम्बन्ध ईज़ाद हो ही गये हैं।
सभ्यता की इन सीढ़ियों का नाम लेकर किसी को उचित या अनुचित ठहराने का उद्देश्य मेरा कत्तई नहीं है। मैं तो सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि सतत् परिवर्तनशील इन व्यवस्थाओं को अपनाने में स्त्री-पुरुष साथ-साथ निर्णय लेते रहे हैं और आगे भी लेते रहेंगे। इन परिवर्तनों का कारण स्त्री-पुरुष विभेद से कहीं अधिक आर्थिक वातावरण रहा है जिससे सामंजस्य बिठाने के प्रयास में दोनो ने मिलकर अपने लिए व्यवस्था बनायी होगी और उसे निरन्तर ‘अपडेट’ भी करते जा रहे हैं। आज के दृष्टिकोण से जब हम इतिहास में झाकेंगे तो बहुत कुछ बदरंग नज़र आएगा जो शायद तत्कालीन परिस्थितियों में सर्वश्रेष्ठ विकल्प रहा हो...।
ओहो! टिप्पणी शायद लम्बी हो गयी, बात भी पूरी नहीं हो पायी। इसपर एक अलग पोस्ट की दरक़ार है।
संगीता :
अच्छे सवाल उठाये हैं तुमने । पूर्वाग्रह चाहे स्त्री के बारे में हों या पुरुष के बारे में , गलत है । हां यह ज़रूर है कि इतिहास में स्त्री को अधिक पूर्वाग्रह झेलने पड़े हैं।
कुछ बाते कहना चाहूँगा ।
@कुल मिलाकर यह कि स्त्री के लिए प्राथमिकता हमेशा परिवार और घर ही रहता है,इस जकड़ से वह बाहर निकलेगी तभी अपना असली स्वरूप जान पाएगी
पति और पत्नी में से किसी एक की प्राथमिकता का ’परिवार और घर होना ज़रूरी है" । यदि पति और पत्नी दोनो काम कर रहे है तब भी एक की प्राथमिकता काम और एक की प्राथमिकता घर होना ज़रूरी है । अब दोनो में से घर की प्राथमिकता किस की हो और काम की प्राथमिकता किस की , इस के निर्णय की प्रक्रिया में बदलाव की ज़रूरत है । निर्णय दोनो की सहमति , क्षमताओ (बौद्धिक और शारीरिक) के आधार पर होना चाहिये , जन्म से थोपे गये पूर्वाग्रह (लड़की=घर , लड़का=काम) के आधार पर नही। लेकिन ध्यान रहे कि जब तक हम अपनी बेटी की शिक्षा को उतना ही महत्व नही देते जितना कि बेटे के शिक्षा को , तब तक हमारी बेटियां बड़ी हो कर बहू बनने पर अपनी प्राथमिक ज़िम्मेवारी घर को ही पायेंगी । ऐसे में यह पूर्वाग्रह नही होगा । यह दोनो समस्याएं जुड़ी हुई है ।
@अगर आदमी प्रोफैशनल बनकर अपना काम लेट आर्स तक बैठ कर कर सकता है, तो औरत के ऐसा करने पर ऐतराज़ क्यों?
अगर ऐतराज़ सिर्फ़ इस बात पर हो रहा है कि वह देर तक काम क्यों कर रही है तो सर्वथा गलत है । लेकिन ऐतराज़ यदि इस चिन्ता का परिणाम है कि ’औरत का रात को २ बजे अकेले आना सुरक्षित नहीं है" तो इसे दूसरे नज़रिये से देखने की ज़रूरत है । अब पुरुष का रात के २ बजे आना क्यों सुरक्षित है और औरत का क्यों नहीं , यह एक अलग सवाल है । समाज दोनो के लिये बराबर सुरक्षित होना चाहिये लेकिन है नही । हर आदमी समाज को बदलने की ताकत नही रखता और उस के कुछ निर्णय समाज की वर्तमान अवस्था और सच्चाई को स्वीकार करते हुए किये जाते हैं । ऐसे निर्णयों को पूर्वाग्रह नहीं कहूँगा ।
मैं अपने २० बरस के बेटे को रात के २ बजे Rock Concert देख कर अकेले आने की इज़ाज़त देता हूँ लेकिन जब मेरी १७ बरस की बेटी उसी बात की इज़ाज़त मांगती है तो मैं उसे Rock Concert में जाने से तो नहीं रोकता लेकिन रात के २ बजे उसे अकेले आने की इज़ाजत भी नही देता , खुद अपनी नीद खराब कर के उसे वहां लेने के लिये जाता हूँ । अब यदि इस में किसी को पूर्वाग्रह लगे तो लगे लेकिन मेरे लिये इस में मेरा अपनी बेटी के प्रति प्यार और उस की सुरक्षा की भावना अधिक है ।
बस अभी इतना ही । लिखती रहो ...:-)
संगीता जी, बहुत अच्छा मुद्दा उठाया है। इसपर बहुत अधिक बातचीत की आवश्यकता है। मेरी पीढ़ी व उससे पहले की पीढ़ियों की बहुत सी स्त्रियाँ, ऐसी ही विचारधारा के चलतेम कई बार बहुत सक्षम होने पर भी अपनी बुद्धि व क्षमताओं का उपयोग नहीं कर सकीं। हमारे सामने प्रेम, विवाह और घर के अलावा अपनी क्षमताओं का उपयोग करने में से एक को चुनने जैसा कठिन चुनाव था। जबकि पुरुष विवाह भी कर सकता था व अपने सपने, अपनी इच्छाएँ भी पूरी कर सकता था। बेहतर तो यही होगा कि यदि स्त्री पुरुष मिलकर घर बाहर दोनों को सम्भालें तो दोनों को ही सफलता व संतुष्टि मिलेगी। इसका एक लाभ यह भी होगा कि पुरुष को भी थोड़ी राहत मिलेगी। जिन परिवारों में केवल पुरुष कमाता है, कैसी भी स्थिति हो पुरुष नौकरी छोड़कर कुछ अपना काम करने की सोचने तक की हिम्मत नहीं कर पाता। यदि पत्नी से आर्थिक सहयोग मिले तो वह खराब नौकरी को छोड़ नई ढूँढने या कुछ और करने का आसानी से साहस कर सकता है।
घुघूती बासूती
लगता है सारी नारी समस्यायें सिमट कर नौकरी पर आ गई हैं. या फ़िर नौकरी को आजादी पाने के लिए एक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया जा रहा है. दोनों ही बातें ग़लत हैं. अगर नौकरी से नारी की सारी समस्यायें दूर हो गई होतीं तो जीवन भर नौकरी करने वाली अशिक्षित नारियां भी तरक्की कर गई होतीं. केवल शिक्षित नारियां ही नारी वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करती. नारियां बहुत बड़ी संख्या में खेतों में नौकरी करती हैं, बिल्डिंग साइट्स पर नौकरी करती हैं, घरों में नौकरी करती हैं. इन नारियों की संख्या शिक्षित होकर नौकरी करने वाली नारियों से बहुत ज्यादा है. जीवन भर नौकरी करने के बाद भी यह नारियां अपने जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं कर पाती. नौकरी करने वाली शिक्षित नारियां तो अपनी बात इस ब्लाग पर या अन्य कहीं कह भी लेती हैं, पर अशिक्षित नारियां तो बेचारी कहीं कुछ कह भी नहीं पाती. उन्हें तो यह भी पता नहीं कि क्या कहा जाए और कहाँ कहा जाए.
जिन नारियों ने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की है वह वधाई की पात्र हैं. लेकिन इन में ज्यादा वह नारियां है जिन्हें शिक्षा के पूरे अवसर मिले और वह इस योग्य बन सकीं कि अपना भला-बुरा ख़ुद सोच सकें. यही नारियां एक दूसरे की बात भी करती हैं इस ब्लाग और अन्य ब्लाग्स पर. पर इनकी संख्या कितनी है? क्या इनकी प्रगति को देख कर यह कहा जा सकता है कि नारी जाति ने प्रगति कर ली है. क्या नारी प्रगति का मापदंड केवल यह नारियां ही होनी चाहियें?
अच्छा हो कि इन नारियों पर भी कोई पोस्ट इस ब्लाग या अन्य ब्लाग्स पर डाली जाए.
@अभी किसी पिछली पोस्ट में {शायद अनुराधा जी की फेयरी टेल के सम्बन्ध में} गौरव जी ने स्त्री सशक्तिकरण के समीकरण की बात उठाई थी, तो सोचा उनके जवाब में अपनी पुरानी पोस्ट यहाँ भी पोस्ट कर दूँ.....
संगीता जी ..... धन्यवाद हमारे उलझे हुए स्त्री समीकरणो को सुलझाने मे आपने मदद करी...
अच्छा तो आप अपने पिछले पोस्ट मे इन समीकरणो की बात कर रही थी..
परंतु मै तो आपके इन समीकरणो का जबाब भी दे चुका हूँ कि हम क्युँ इन बातोँ मे अपना समय दे कि देर रात को आने मे बन्दिशे हैँ, परिवार को भी सम्भालने कि जद्दोजहद है....आदि....
अगर आपने अपने लिये कोइ नया रास्ता खोजा है और आप अपने आप को उतना सामर्थ्यवान मानती है.... then move your steps, dare to walk on that new path...
इससे आपको वास्त्विकता का अनुमान भी हो जायेगा और अगर आप सफल हुई तो आपके जैसे सोच वाले कइओ को एक नया रास्ता भी मिल जायेगा ....
कभी कभी आदमी जब उन्माद मे होता है तो दुसरो के लाख समझाने पर भी उसे ये विश्वास नही होता कि आग गर्म होती.है.. वो जब तक उसे छूते नही उन्हे विश्वास नही होता...
:>
बाकी अच्छा लिखा है आपने....
गौरव
@ अनूप जी,
मैं आपकी बातों से सहमत हूँ, "यदि पति और पत्नी दोनो काम कर रहे है तब भी एक की प्राथमिकता काम और एक की प्राथमिकता घर होना ज़रूरी है" क्या ऐसा नहीं हो सकता की दोनों ही घर की प्राथमिकता को बराबर बांटकर विवाहित जीवन को भोगें|
ये सच हैं कि लेट आर्स तक काम ना करने देने के पीछे कहीं ना कहीं सुरक्षा का ख्याल आता है, और जो औरत कि जगह आदमी के लिये कहीं सुरक्षित है| यह कोई पूर्वाग्रह नहीं, सुरक्षा का ख्याल दोनों के लिये बराबर ही महत्व रखता है| यहाँ बात लेट आर्स तक आफिस में काम करने कि है, जहाँ आपको आफिस से घर तक छुङवाया भी जायेगा, अब आप बताईये क्या राय रखते हैं??
@सुरेश जी,
माफ किजियेगा मुझे आपके कामेटॅ मुद्दे से हटकर ही लगते हैं| मेरा मानना है की औरत चाहे शिक्षित हों या अशिक्षित, नौकरी या दो पैसे कमाना उनकों आत्मनिर्भर बनाती है, नौकरी आज़ादी नही लेकिन आज़ादी पर चलने की राह जरूर हो सकती है| ये किसने कहा कि नारी कि प्रगति का मापदंड नारियाँ ही होनी चाहिये?? आप बाताये आपके मुताबिक यदि नारी ने प्रगति की है तो वो कौन से मापदंड है??
@गौरव जी,
यहाँ मुद्दा आदमी-औरत में भेद भाव का है| अगर देर से घर लौटना एक भले घर की औरत को शोभा नहीं देता तो वो एक भले घर के आदमी पर भी लागू होना चाहिये| मेरे हिसाब से यदि कोई महिला अपने मन मुताबिक अपना करियर चुन ले, और आँख कि किरकिरी बन जाये इस बात पर कोई आश्चार्य नहीं| किसी भी मनुष्य कि सामर्थ्यता तभी साबित हो सकती है जब आप उस कार्य को कर लेते हैं, बिना कार्य को किये आप कैसे बता सकते है कि आप मे वो सामर्थ्यता है या नहीं. ये एक कटु सत्य है कि महिलाओं के कई फैसले सामाजिक नियमों के तहत बाधित होते हैं
नारी केवल और केवल आर्थिक सश्क्तिकर्ण से ही अपने को आगे ले जा सकती हैं . नौकरी करना है तो क्या खोना है जो औरो को मिला हैं या क्या पाना हैं जो औरो को नहीं मिला हैं इसका फैसला और चुनाव करने का अधिकार नारी का हो . आग मे जल कर ही सोना खरा होता हैं . और अगर नौकरी की आग ने आज तक पुरूष को नहीं जलाया तो स्त्री भी नहीं जलेगी . समीकरण ऐसे हो की स्त्री की सुरक्षा ना करनी पडे . विकल्प स्त्री घर पर रहे नहीं हो सकता , विकल्प सिर्फ़ इतना हो सकता हैं की समाज मे माहोल बनाय समानता का , समानता उस अधिकार की जिसमे मेरे लिये क्या ठीक हैं मै इसका फैसला ख़ुद कर सकू क्योकि मे १७ साल की हमेशा नहीं रहती हूँ . पर होता ये हैं की १७ साल की मै पिता के सायं से निकल पति के सायं मे भेज दी जाती हूँ और फिर पुत्र के सायं मे बुढापा काटती हूँ . क्यों ??
Sangeeta Manral jee..
@ यहाँ मुद्दा आदमी-औरत में भेद भाव का है
प्रकृति (या इश्वर कहेँ ) ने जहाँ भेद भाव बना रखा हो वहाँ पर आपकी इस प्रकार की बातेँ बस मुझे तो वैचारिक अपरिपक्वता महसूस करा रही है ...
अगर् फिर भी आपको ऐतराज है तो नयी व्यवस्था के निर्माण के लिये कदम उठाइये....
अब इसमे भी आपको लोगो के आंखोँ की किरकिरी बनने का डर है तो मेरे हिसाब से तो दोनो चीजे एक साथ सम्भव नही है.....
@किसी भी मनुष्य कि सामर्थ्यता तभी साबित हो सकती है जब आप उस कार्य को कर लेते हैं, बिना कार्य को किये आप कैसे बता सकते है कि आप मे वो सामर्थ्यता है या नहीं...
जी नही ऐसी बात नही है किसी भी काम को करने से पहले व्यक्ति अपने confidence and commitment level को भाँपकर अपनी सामर्थ्यता का अनुमान लगाकर और फिर अपने आप से अनुमति लेकर ही किसी कार्य का आगाज करता है.....
@ ये एक कटु सत्य है कि महिलाओं के कई फैसले सामाजिक नियमों के तहत बाधित होते हैं...
कइ सत्य जो कटु होते है , मगर आपके हित मे होते है.. तो मेरे अनुसार तो ऐसे सत्य को अपनाने मे ही भलाइ है.
और अगर कोइ अपने मन की करने को स्वतंत्रता का नाम देता है फिर तो ये सही नही है..
क्युंकि हमेशा जो मन कि सुने और करे उनको तो वानर की प्रजाति मे रखा गया है, तो फिर मनुष्य योनि का फायदा क्या..? मुझे तो समाज के कइ नियम मनुष्योँ को जानवर बनने से बचाने के उपाय नज़र आते हैँ...
गौरव
अगर पुरुष और नारी दोनों घर से बाहर काम कर रहे हैं तो निश्चित रूप से घर की जिम्मेवारी भी दोनो को बराबर बाँटनी होगी । जब मैनें यह कहा कि "दोनो के काम करते हुए भी एक की प्राथमिक जिम्मेदारी काम और एक की घर होनी चाहिये’ , मेरा आशय उस स्थिति से था "जब दोनो का बाहर काम करना किसी कारण से सम्भव न हो’ । ऐसे में ’आपसी समझ’ होनी चाहिये कि कौन काम को संभालेगा और कौन घर को। यह निर्णय जैसा कि मैनें पहले कहा ’आपस में बैठ कर बौद्धिक और शारिरिक क्षमताओं के आधार पर होना चाहिये’।
यदि नारी की सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध किया जा सके (जैसे कि उसे काम के बाद घर तक छोड़ना) तो उसे के देर तक काम करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । सहमत हूँ ।
नारियों का एक ऐसा बड़ा वर्ग नौकरी करता है जो अशिक्षित है. शिक्षित नारियों ने नौकरी करके जो प्रगति की है वह यह अशिक्षित नारियां नहीं कर पाई हैं. इसलिए शिक्षित नौकरी करने वाली नारियां पूरे नारी वर्ग की प्रगति का मापदंड नहीं हो सकतीं. नारी ने प्रगति की है, ऐसा कहना तब तक बेमानी है जब तक उस प्रगति में यह अशिक्षित नारियां भी शामिल न हों. यह अशिक्षित नारियां बहुत ज्यादा शारीरिक श्रम करती हैं पर इनके पास रहने के लिए मकान नहीं हैं, पहनने को अच्छे वस्त्र नहीं हैं, खाने का समुचित प्रबंध नहीं है. कभी बिल्डिंग साईट से गुजरें तो यह पायेंगे कि इन के बच्चे अर्धनंगे या नंगे इधर-उधर घुमते रहते हैं.
मेरा कहना यह है कि यह नारियां भी तो उसी नारी वर्ग का एक हिस्सा हैं जिस के सशक्तिकरण की बात इस ब्लाग पर हो रही है. इसलिए मेरी बात को मुद्दे से हट कर मानना सही नहीं है. नारियों के केवल एक लघु वर्ग ने प्रगति की है, उसे पूरे नारी वर्ग की पगति के रूप में प्रकाशित करना उचित नहीं है.
"केवल एक लघु वर्ग ने प्रगति की है, उसे पूरे नारी वर्ग की पगति के रूप में प्रकाशित करना उचित नहीं है."
amaa yaar jitni samjh ho utna likha karo blog jiska haen , post jiski haen kyaaa chapnaa haen unko sochney do
aur apnee patni aur putr vadhu ko naari utthaan mae lago aur wo kehaa kehaa taraki kar rahee haen haemy bhi bato
ab unko shikshit karna bhi jarurii haen varna naari pragiti kae baarey mae likhna band karna hoga
hari om vahiii dhaak kae teen paat
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