उसने कहा पति परमेश्वर होता है,
दूसरी ने कहा तो पत्नी क्या है?
वो तुम्हें एक सम्पूर्ण स्त्री एक माँ बनाता है,
तो क्या औरत उसे एक मर्द साबित नहीं करती
पिता नहीं बनाती
सारे व्रत पुत्र और पति के लिये ही क्यों?
पुत्री या पत्नी के लिये क्यों नहीं?
आदमी मेहनत करता है पैसे कमाता है
तो क्या औरत घर और उसके कमाये
पैसे नहीं सभालती
बहस कुछ देर और चलती है
दो औरते अलग अलग राय रखती हैं
अंत मे मालूम होता है एक शादीशुदा है
और दूसरी कुंवारी
मुझे लगा विचारों में असमानता का
यही एक कारण हो या शायद कुछ और
Wednesday, August 27, 2008
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अनुप्रिया के रेखांकन
स्त्री को सिर्फ बाहर ही नहीं अपने भीतर भी लड़ना पड़ता है- अनुप्रिया के रेखांकन
स्त्री-विमर्श के तमाम सवालों को समेटने की कोशिश में लगे अनुप्रिया के रेखांकन इन दिनों सबसे विशिष्ट हैं। अपने कहन और असर में वे कई तरह से ...

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17 comments:
satya vachan...
nice
"मुझे लगा विचारों में असमानता का
यही एक कारण हो या शायद कुछ और"
विवाहिता के पास खोने के लिये बहुत कुछ हैं सो एक डर होता हैं मन मे . पर एक बात हैं बहुत से विवाहिता ये सब केवल कहती हैं , अगर वो ये सब ना कह कर वो सब कहे जो वो सच मे महसूसती हैं तो घर नाम की संस्था ख़तम हो सकती हैं पर मानसिक परतंत्रता से नारी आज़ाद हो सकती हैं . मानसिक परतंत्रता पति के संरक्षण को सामजिक सुरक्षा कवच समझना . अगर आस्था और विशवास नहीं हैं फिर भी व्रत उपवास करना .
http://rinksnbitts.blogspot.com/search/label/and%20equality
यह भी किसी ने लिखा हा जरा पढ़ के देखिये। हमें लगता हा की हम मुद्दे से भटक जाते हैं, हम स्त्री के लिए सम्मान चाहते हैं, पर वोह पुरूष की दुश्मन तो नही हा, स्त्री पुरूष तो एक दूसरे के पूरक हा, फ़िर यह प्रित्योगिता वाली बात कहाँ से आ जाती हा.कल कोई कहे की बच्चे पुरूष को पैदा करने चाहिए तो क्या वाजिब होगा।
हमारी ज्यादातर लडाई भी सिर्फ़ पुरूष के पति स्वरुप से हा, वरना हर माँ को अपना बेटा सब से अच्छा नजर आता हा, कमी तो बहु में ही दिखती हा। क्या कहेंगे आप इसको?
हर बहिन को अपने भाई से बहुत प्यार होगा , अगर कुछ पिर्तिद्वान्दिता होगी तो बहिन से।
और पिता , वोह तो हर बेटी के लिए आदर्श होता हा और पति में वोह वही सब कुछ ढूंढती हा, और यह हम नही कह रहे हैं, यह तो सब जानते हैं विशेषज्ञ कहते हैं फ़िर?
हो सकता है यही कारण हो. शादीशुदा का ख़ुद का अनुभव है. कुंवारी अपने आस-पास जो देखती है वह जानती है.
मुन्डे मुन्डे मतिर्भिन्ना!
खूब लिखा.
अपने फलक फैला कर कुछ और आसमान भर लें कुछ और जमीन नापें, आइये कुछ और चर्चा कर लें। एक जरा सी बात पर कब तक उलझे रहेंगे हम?
सुजाता...मेरी जिंदगी में तीन पुरुष हैं...मेरे स्व. पिता, मेरे पति और मेरा साढ़े तीन साल का बेटा, इन तीनों की ही जिंदगी की धुरी मैं हूँ। पापा के नहीं रहने के बाद उनकी सारी जिम्मेदारियाँ मैं उठा रही हूँ...
संगीता द्वार प्रकाशित इस कविता के जरिए मैं यहाँ यह कहने की कोशिश कर रही हूँ कि नारी और पुरूष दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। हमारी पुरानी पीढ़ि से गलती हुई कि नारी को कमतर जगह दी गई लेकिन अब मुझे लगता है कि हक की आवाज उठानी ही होगी लेकिन इस आवाज में बकरी की मैंमैं नहीं बल्कि बुलंद जोशीली आवाज और पक्का इरादा चाहिए। हम क्यों कहें कि मैं उपवास रखने को मजबूर हूँ, रखना हैं तो रखे अन्यथा न रखें। मैं तो करवाचौथ रखती हूँ ....पसंद हैं!! माँ भी हूँ, वो भी मेरी मर्जी है। मेरी माँ हम बेटियों के लिए उपवास रखती थीं। संयुक्त परिवार से हूँ घर में रिवाज़ था कि दिवाली के दिन लड़कों को चाँदी की कटोरी में प्रसाद दिया जाता है। पापा ने दादी से कहाँ कि बेटियाँ भी चाँदी की कटोरी में ही खाएँगी।
दादी पापा के विवेक की इज्जत करती थीं...फिर क्या था हम सारी बहनों को भी कौड़ी खेलने ( एक रस्म जिसे घर के पुरुष औऱ बेटे ही निभाते हैं) और चाँदी की कटोरी में प्रसाद देने का उपक्रम शुरू हो गया। मेरी इस भाषणबाजी के पीछे सार यह है कि मेरी दादी ने पापा को महिला की इज्जत करना सिखाया। मेरी सास ने भी मेरे पति को महिलाओं की इज्जत करना सिखाया। मैं भी अपने नन्हें में यही गुण भरने की कोशिश कर रही हूँ।
अरे बाबा में तो भाषणबाजी करने लगी। लेकिन क्या करूँ हर बार यहीं लगता है कि हम सृजनकरता है...यह दुनिया कैसी है इसे तय करने का अधिकार प्रकृति ने सिर्फ औऱ सिर्फ हमें दिया है। यदि आज नारी के दर्जे में कुछ कमी है तो मुझे लगता है कि उसकी जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ हम हैं। क्योंकि बालगोपाल या बाला में मूल गुणों का सजृन तो हमने ही किया है। मुझे लगता है अब हमें ही बुलंदी से अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी औऱ आने वाले भविष्य को सही नजरिया, सही सोच और सही दिशा देनी होगी...क्योंकि मैं मानती हूँ अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है...बस उसे जमीन में बो दीजिए...फसल लहलहाएगी ..वक्त लगेगा लेकिन इतने चने उगेंगे कि भांड को फूटना ही होगा। वक्त को बदलना ही होगा और जानती हूँ वक्त बदलेगा।
श्रुति ,
आपका अन्दाज़ और हौसला मुझे बहुत अच्छा लगता है।वाकई आज का हमारा प्रयास बेहतर कल की नींव डालेगा।धन्यवाद !
ab kya kahe
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मेरी पहली कविता...... अधूरा प्रयास
आप की उलझन को प्रणाम। वैस समान होने के तुरंत बाद असमान हो जाने को जी चाहता है। सीमोन बुआ की कसम।
संगीता क्या कहना चाहती हैं, समझ में नहीं आया। वैसे शादीशुदा या कुंवारी होने भर से किसी के विचार बदल जाते हैं, मैं कतई नहीं मानती।
I completely agree with shruti, even in my family most of the poojaas were done by boys , but in my family my daughter and son both did everything, same for Ahoi ashtami, my ma used to do it for son only, but i say i do it for children, sometimes my son used to say that I do more for my daughter.
Today my daughter is equally educated, accomplished,earning well BUT with family values intact.
so the onus is on women only, as a mother to change the status.
My father-in-law always wanted to give me verything, its only my MIL who differentiated whether it was food or love.
Ok... i see question marks on every pagein this blog. I think the font is not supported by my computer..... why??????? hey renu thanks for coming by my blog and keep visiting and if you know tell me how to solve these ??????
PATI NA PARMESHWAR HONA CHHIYE NA RAKSHAS. WAH AGAR INSAN HO AUR NAI KO BHI INSAN HI SAMZE TO ACHCHA.
@सारे व्रत पुत्र और पति के लिये ही क्यों? पुत्री या पत्नी के लिये क्यों नहीं?
इसके उत्तर के लिए जाएँ इस वेबपेज पर:
http://samaaj-parivaar.blogspot.com/2008/08/blog-post_30.html
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