1. तीन अगस्त को हिमाचल प्रदेश के मशहूर नैनादेवी के मंदिर में भगदड़ मचने से करीब 150 लोग मारे गए और 300 से ज्यादा घायल हुए। मरने वालों में ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे। घायलों में भी ज्यादातर शारीरिक रूप से कमजोर- महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग थे। ऐसी घटनाएं होती रही हैं और होती रहेंगी। जहां भीड़ जुड़ती है वहां भगदड़ भी होने की संभावना रहती है। लेकिन इतनी बड़ी व्यवस्था प्रणाली में क्या इतनी सी गुंजाइश नहीं निकलती कि भगदड़ के बावजूद ऐसी घटनाओं को रोकने, सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम हो।
2. जम्मू में अमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन के हस्तांतरण के मुद्दे पर लंबे समय से चल रहे घमासान में
कई लोग मारे गए। मरने वाले जो भी हों, सबसे ज्यादा खामियाजा औरतों और बच्चों को ही भुगतना पड़ता है- बेघर, बेसहारा, बेरोजगार, विस्थापित और शोषित होकर।
जम्मू में रह रहे लोगों का संपर्क बाकी दुनिया से कट गया है। फोन, एसएमएस, रेलगाड़ियां, बसें, स्थानीय यातायात, दुकानें, दूध, तेल, राशन, दवाएं, अस्पताल, सभी सेवाएं ठप्प हैं।
3. मुंबई की निकेता मेहता के 20 सप्ताह से ज्यादा समय के गर्भ को वहां के उच्च न्यायालय ने नष्ट करने की इजाजत नहीं दी। निकेता के डॊक्टर का कहना है कि उसके बच्चे में दिल की कुछ गंभीर बीमारियां हो सकती हैं जिससे उस बच्चे के लिए सामान्य जीवन जी पाना कठिन भी हो सकता है। लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि जबतक सचमुच बच्चा विकृतियों के साथ पैदा न हो, सिर्फ आशंका के आधार पर उसे 'मार देना' उचित नहीं। कई बार मशीनों की आंख से देखी गई ये आशंकाएं बाद में गलत साबित होती हैं, या अपने बढ़ने की प्रक्रिया में गर्भ खुद भी कई गड़बड़ियों को ठीक कर लेता है। अब लगता है निकेता ने वास्तविकता को स्वीकार कर लिया है । उधर कई संगठन, डॊक्टर उस होने वाले बच्चे के लिए मदद की पेशकश कर रहे हैं।
-साथियों आज के ये सभी ज्वलंत मुद्दे महिलाओं से जुड़े हैं और कुछ सोच मांगते हैं। अगर हम इनसे अपना जुड़ाव पाते हैं तो सोचे बिना रह भी नहीं सकते। क्यों न इन पर कुछ चर्चा हो। और राय बने या न बने पर इस तरफ भी सोचने का मन बने!
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26 comments:
हमारे देश में आबादी जितनी है, उस हिसाब से तो दुनिया के किसी भी मुद्दे पर हमारी राय, आम जनमत भारी पड़ना चाहिए, लेकिन एक भी मुद्दे पर ऐसा नहीं हो रहा है। दरअसल हम अक्सर अपनी आवाज उठाने में ही कोताही करते हैं। ये विषय जो आपने सामने रखें हैं, वाकई किसी नतीजे तक पहुंचने चाहिए।
धन्य है आपकी सोच.. क्या उम्दा सोच है आपकी.. मैं तो आपका फ़ैन हो गया हू.. क्या बात है.. इस तरह से तो कोई भी नही सोच सकता था.. वाकई.. अद्भुत सोच का परिचय दिया है आपने.. समाज को अपने आस पास होने वाली घटनाओ का सही रूप दिखाया है आपने.. अगर आप नही बताती तो ये सच यूही दबा रह जाता.. आपने एक बहुत ही महान काम किया है..
मुझे पूरा यकीन है की आपके पास इस समस्या का समाधान भी होगा.. अगली पोस्ट का इंतेज़ार है.. समाधान सहित जल्द ही प्रकाशित कीजिएगा..
एक चीज होती है इंसानियत ....मानवता .....ये मुद्दे उस से जुड़े है....संवेदनायो की ना जात होती है ,ना लिंग भेद ..हैरान हूँ की आपने ऐसा किस तरह से सोचा ?निकिता मामले पर N.D.T.V ने दो दिन पहले एक व्यापक बहस दिखायी थी...इसे किसी विशेष वर्ग से ना जोड़े ...दुःख होता है....
साथियों आज के ये सभी ज्वलंत मुद्दे महिलाओं से जुड़े हैं और कुछ सोच मांगते हैं। ----मुझे नहीं लगता कि ये मुद्दे महिलाओं से जुङे हैं,हाँ ये मुद्दे इंसानियत से जुङे जरूर हैं. जहाँ महसूस होता है कि धर्म, पूजा-पाठ, राजनिती, अहम, ये सभी इंसानियत से कितने ऊपर हैं.
जब भी मानवता पर या समाज पर कोई संकट आता है तो सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं समाज के कमज़ोर तबके । और स्त्री व बच्चे तो हर तबके मे समान रूप से मिल जायेंगे । यह कथन जे एन यू के समाजशात्र विभाग के प्रोफेसर आनन्द का है जो मैने एक सेमिनार मे सुना था । वे समाजशास्त्री हैं तो ज़ाहिर सी बात है कुछ रिसर्चों के आधार पर ही ऐसा कहा होगा ।
मेरा भी यही मानना है कि संकट की स्थिति में किसी राष्ट्र या परिवार के सबसे कोमल हिस्से पर ही सबसे ज़्यादा बुरे प्रभाव पड़ते हैं । ये आसान निशाना होते हैं , बचाव में कम सक्षम होते हैं । युद्द्ध में पराजित राज्य की स्त्रियाँ जो अपमान सहती हैं उसके लिए अमानवीयता से भी कई गया बीता शब्द इस्तेमाल होना चाहिये । भारत पाकिसतान के बंटवारे के समय भी बच्चे खो गये बिछुड़ गये , स्त्रियॉ के साथ भयंकर जानवराना व्यवहार हुआ ।
जब किसी दलित को दबंगों को सताना होता है तो उसकी पत्नी-पुत्री बलत्कृत होते हैं या नंगे सड़क पर घुमाए जाते हैं ।भगदड़ का तो सिद्धांत है कि अधिक लम्बा और बलवान उसमें बच जाएगा और कद मे छोटा और कम बलवान उसमें आहत होगा ही । सो स्त्रिया और बच्चे ही उसमें सबसे अधिक आहत होते हैं ।
क्या 'खूबसूरत' ख्याल है, वाह! और भई नाम भी आपने क्या खूब चुना है! मैं तो फिदा हूं आपके विचार पर।
वैसे मुद्दा भी कोई इतना बढ़िया तो नहीं है कि आप तारीफों के पुल बांधते चले जाएं। बस एक ही बात काम की लगत है इस पूरी पोस्ट में -
"सबसे ज्यादा खामियाजा औरतों और बच्चों को ही भुगतना पड़ता है"
तो इस खूबसूरत पहलू को नए सिरे से तो देखना ही पड़ेगा साहब! आइये, कौन-कौन तैयार है इस मैदान में उतरने को?
:>
"मुझे नहीं लगता कि ये मुद्दे महिलाओं से जुङे हैं,हाँ ये मुद्दे इंसानियत से जुङे जरूर हैं. जहाँ महसूस होता है कि धर्म, पूजा-पाठ, राजनिती, अहम, ये सभी इंसानियत से कितने ऊपर हैं."
किसी अनाम ने ये कहा तो मुझे समझ में नहीं आया कि वे कहना क्या चाहते हैं। क्या 'इंसानियत से जुङे' मुद्दे महिलाओं के नहीं हो सकते, कग्योंकि वे इंसान नहीं हैं? या इंसानियत के मुद्दों को महिला की नजर से नहीं देखा जाना चाहिए? और ' धर्म, पूजा-पाठ, राजनिती, अहम, ये सभी इंसानियत से कितने ऊपर हैं.' - क्या सचमुच ये सब इंसानियत का हिस्सा नहीं हैं, इन सबसे ऊपर हैं?!!! हाय ऐसी अदा पे कोई क्यों न मर जाए!!!:-)))
आर. अनुराधा जी,
तो यह है बहस का शुरुआती हश्र...। एक बार फिर बेनामी जी सुनामी बनकर अवतरित हो लीं/लिए।
अब आपकी टीम को हर मानवीय समस्या या विडम्बना को हठात् दो फाड़ में चीर करके देखने की सार्थकता पर दुबारा सोचना चाहिए।
अरे अनोनामस जी कल तो कॉफी पीकर माफी माँगी थी आपने.. आज फिर आ गये.. वेरी बेड वेरी बेड ..
अरे अनोनामस जी कल तो कॉफी पीकर माफी माँगी थी आपने.. आज फिर आ गये.. वेरी बेड वेरी बेड ..
मेरे विचार में प्राकृतिक और मानवीय आपदाओं को नारी पुरुष से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए!मुझे ये तीनों ही मुद्दे ऐसे नहीं लगे जो सिर्फ महिलाओं के लिए हों!भगदड़ में जो बच्चे मरते हैं उनमे बालक बालिकाएं दोनों होते हैं...बुजुर्ग, पुरुष, महिलायें सभी इसका शिकार होते हैं! दरअसल उस समय जो भयावह स्थिति होती है उसमे किसी के दिमाग में ये नहीं आता की उसके नीचे कौन दब रहा है! हर कोई सिर्फ अपनी जान बचाना चाहता है!जो थोड़े बलवान और जवान होते हैं वो जान बचाकर भागने में सफल हो जाते हैं!कई बार जवान महिलाएं बच जाती हैं , बीमार और कमज़ोर पुरुष मर जाते हैं!
दूसर बात जो कही गयी की इन घटनाओं में चाहे मरे कोई भी भुगतना महिलाओं को पड़ता है!क्योकी वे बेसहारा, बेघर हो जाती हैं!इस पर मेरा मानना है की ऐसा इसलिए होता है क्योकी महिला कमाने वाले पुरुष पर अपनी जीविका के लिए निर्भर होती है.....इसलिए सहारा छिनते ही बेसहारा हो जाती है!इसका एक ही उपाय है जो मैं बार बार कहती आई हूँ की आर्थिक रूप से आत्म निर्भर जब नहीं होगी तब तक तो ये सब झेलना ही पड़ेगा!यदि एक आत्मनिर्भर महिला को अपना पति गंवाना पड़ता है तो उसे केवल मानसिक दुःख भोगना पड़ता है, जीवनयापन का संकट नहीं भोगना पड़ता!इसलिए हर मुद्दा बहुत हद तक महिलाओं के आत्मनिर्भर होने से हल हो सकता है! इस बारे में जितना ज्यादा प्रचार प्रसार किया जाये उतना अच्छा है!
अनुराग जी से सहमत हूँ ।
एक रेलगाड़ी पटरी से उतर गई । उस में २१२ व्यक्तियों की मृत्यु हुई , उन में से १०८ पुरुष , १०४ स्त्री, १२ बच्चे, ५० मुसलमान, १०४ हिन्दु, xx सिख थे । इन आंकड़ो का कोई अर्थ नहीं है ।
महिलाओं या बच्चों के शामिल होने से दुर्घटना का समीकरण नहीं बदल जाता । नैनादेवी के मंदिर के सम्बन्ध में अधिक से अधिक कह सकते हैं कि महिलाओं और बच्चो के लिये विशेष प्रबन्ध किये जायें ।
निकेता मेहता का किस्सा एक जटिल और किसी हद तक निजी सवाल है , अंतहीन विवाद का पिटारा बन सकता है , पता नहीं ’चोखेर बाली’ मंच के लिये उपयुक्त है या नहीं ।
और हाँ अब इतने Annonymous लिखने वाले हो गये कि पता ही नहीं चलता कि कौन सा Annonymous कौन है ? क्या इन्हे Annonymous # दिये जा सकते हैं , जैसे Annonymous # 1 , Annonymous #2 आदि आदि ....
सचमुच, मेरी इस पोस्ट का मर्म कोई नहीं समझ पाएगा, मैंने नहीं सोचा था। सुजाता ने बात को साफ करने की कोशिश की, लेकिन बेकार। ऊपर से अनामी/ अनामियों ने थोड़ा कन्फ्यूजन पैदा कर दिया। इस पोस्ट को डालने के मेरे दो मकसद थे-
1. 'मेरी दोस्त मंजू' http://sandoftheeye.blogspot.com/2008/08/blog-post_04.html पर आपस में ही इतनी कीच-उछाली हो गई कि मुझे लगा कि चर्चा को डाइवर्ट करना ही एक अच्छा उपाय हो सकता है। तब मैंने ये तीन मुद्दे उठाए कि इनकी तरफ भी कोई ध्यान दे। कौन क्या है, क्या नहीं, किसने गाली दी, किसने नहीं, किसने ली, किसने नहीं - की बहस से निकले।
2. मैं सचमुच मानती हूं कि इन तीनों मानव-जन्य मसलों पर विचार होना चाहिए। उसके लिए कोई भी ब्लॉग अनुपयुक्त कैसे है? और इसे कौन तय कर रहा है कि चोखेर.. में किस पर चर्चा हो, किस पर नहीं?
मेरा ये मुद्दे उठाने का आशय इतना भर नहीं था कि ये सिर्फ महिलाओं से जुड़े हैं और इसलिए महिलाओं की बेहतरी , उनकी स्थिति में सुधार पर बात हो, जैसा कि आम तौर पर चोखेर... पर होता है।
ये सभी के मुद्दे हैं, इस पर किसी को आपत्ति नहीं है। अब अगर तथाकथित महिला मुद्दों से जुड़े ब्लॉग पर भी इस पर चर्चा का आह्वान हो तो क्या कोई अपराध है? मैंने कभी नहीं कहा कि ऐसी घटनाओं में अकेले महिलाओँ को बचाने के उपाय सोचे जाएं। (लेकिन शरीर से कमजोर होने के नाते वे भगदड़ में ज्यादा तकलीफ पाती हैं, इस बात को भी फिर रेखांकित कर देती हूं। ) बल्कि यह कहा कि ऐसी घटनाएँ, आपदाएं न हों इसके लिए क्या हो सकता है। घटनाएं हो भी जाएँ तो उनसे ज्यादा लोगों को कैसे राहत पहुंच सके।
दरअसल यह फिर उसी समस्या का एक और आयाम है - - कि ज्यादातर लोग एक स्टीरियोटाइप में, फ्रेम में बंध कर रहते हैं, और सबको बांध कर रखना चाहते हैं।
सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च करके राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, फंड, संस्थान आदि बनाए हैं लेकिन वे क्या कर रहे हैं? क्या अब तक उनके पास कोई योजना नहीं है जिससे ऐसे हालात आने के पहले ही रोक लिए जाएं, और अगर हादसा हो ही जाए तो ऐसे में ज्यादा-से ज्यादा लोगों को बचाने के उपाय कर सकें? क्या ये सवाल 'औरतों के ब्लॉग' पर नहीं उठाए जा सकते?
मुझे इस विषय पर पढ़ने-जानने का मन है। अब मैं इस पोस्ट पर (इस तरह के जवाबों पर) और समय जाया नहीं कर सकती।
और अनूप जी जैसे लोगों से कहना है कि कुतर्कों से माहौल को गंदा न केरं तो बेहतर। रेलगाड़ी दुर्घटना और नैनादेवी मंदिर की भगदड़ काफर्क अगर आप विदेश में बैठ कर नहीं समझ पाते तो पहले देस आइए, देखिए, समझिए फिर बात आगे बढ़ाइए।
अनुराधा जी:
जिस प्रकार रेल दुर्घटना की चर्चा के समय यह नहीं देखा जाता कि उसमें हिन्दु मरे थे ये मुसलमान , ठीक इसी तरह नैना देवी मंदिर दुर्घटना की चर्चा के समय यह नहीं देखा जाता कि उस में कितनी महिला और बच्चे थे । यह मुद्दा जितना महिलाओं से जुड़ा है उतना ही पुरुषों से और उतना ही इन्सानियत से जैसा अनुराग ने कहा । आप का तर्क को न समझना उसे कुतर्क नहीं बना देता ।
सख्त आपत्ति है मुझे विदेश में रहने के कारण देस को न समझने के कटाक्ष से । देस को समझने के लिये जितने साल ज़रूरी थे , देस मे गुज़ारे हैं और अपना कर्ज़ अदा किया है । आज भी उस से लगाव है इसलिये आप का ब्लौग पढ रहा हूँ ।
अभी स्याही सूखी भी नही है जब आप लोगों को टिप्पणी निजी न बनाने की हिदायत दे रही थी ।
मे अनुराधा जी की बात से पूर्णता सहमत हूँ की विदेश मे जा कर बस जाने के बाद भारत की समस्या पर आप केवल एक बहस ही कर सकते हैं . ब्लॉग पढ़ कर देश प्रेम दिखाना बहुत आसन हैं . और बार बार अन्नोंय्मोउस के ऊपर डायरेक्शन ला कर बहस को कही क्यों और पादा जाता हैं . एक सुविधा हैं गूगल ने दे रखी हैं आप जब तक अपशब्द के लिये उसका दुरपयोग नहीं करते क्या फरक हैं की आप विचार नाम से दे या अनाम .
रचना:
@विदेश मे जा कर बस जाने के बाद भारत की समस्या पर आप केवल एक बहस ही कर सकते हैं . ब्लॉग पढ़ कर देश प्रेम दिखाना बहुत आसान हैं"
जवाब में कहने को तो बहुत है लेकिन आप के स्तर पर गिर कर कहने के लिये नहीं"
अभी स्थिति वह नही आई है कि देश प्रेम का सर्टिफ़िकेट आप से लेना पड़े
अनूप जी अगर विचार विमर्श मे स्तर का फैसला हमेशा करने का हक़ आप को होगा तो समस्या रहेगी और विचार विमर्श ना हो कर बहस होगी . जिस प्रकार से आप को देश प्रेम का प्रमाण पत्र मुझ से नहीं चाहेये अपने स्तर का प्रमाण पत्र मुझे भी किसी से नहीं चाहीये . मेने केवल अनुराधा की बात से अपनी सहमति दर्ज कराई हैं स्तर की बात उठा कर अपने स्तर पर आने का फैसला आप का निजी हैं मेरा उससे कोई सरोकार नहीं हैं
ये सब क्या है??? अगर किसी को भी स्तर की बात सोचनी है तो ये सोचिये कि हमारी सरकार किस स्तर पर लोगों के लिये कुछ कर रही है. मेरा भी मानना यही है कि ये सब दुर्घटनाओं को किसी समुदाय या वर्ग से जोङना बेफिसूल है. अनूप जी कि तरह हम भी विदेशी जैसे ही हैं क्यों की हम में से कोई भी नैना देवी, जम्मू (अमरनाथ) या फिर अहमदाबाद (जहाँ बम विस्फोट हूये) में उपस्थित नहीं हैं. जैसे हम इस दर्द को महसूस कर रहे हैं वैसे ही अनूप जी उस दर्द को महसूस कर रहे होगे. और अगर सही मायनों में आप दर्द को महसूस करना चाहते है तो उन सब जगहों पर आपको जाना चाहिये. इस मुद्दे को देशी विदेशी से जोङना निरर्थक है.
रचना :
मेरे विदेश में रहने के कारण देश की समस्याओं की समझ कम होने का निष्कर्ष निकालने और देश प्रेम पर उँगली उटाने से पहले अगर आप अपनी समझ और देश प्रेम का उदाहरण दे देतीं तो शायद आप की बात का असर ज़्यादा होता ।
चर्चा निजी होती जा रही है (और कटु भी) , लेकिन शुरुआत मैनें नहीं की थी और इसे ज़ारी रखने की इच्छा भी नहीं है । यदि आप अन्त में अपनी बात कहने का सुख चाहती हैं तो उसे भोगें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है ।
एक अच्छे और स्वस्थ बहस को हम ग़लत दिशा में मोड़ रहे हैं ये सही नहीं है.
पोस्ट में उठाये गए मुद्दे वास्तव में विचार माँगते है.
नैना देवी मन्दिर और रेल दुर्घटना दोनों टाली जा सकती थीं. यात्रियों के स्वास्थ्य और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कंपनियां आज कल अन्तर-राष्ट्रिय मानकों के अनुसार मेनेजमेंट सिस्टम्स लगाती हैं. नैना देवी मन्दिर के प्रबंधन बोर्ड और रेल मंत्रालय को यह सिस्टम्स अपने यहाँ लगाने आवश्यक थे,पर उन्होंने नहीं लगाए. इस सिस्टम्स में जितनी भी संभावित रिस्क हो सकती हैं उनका आंकलन किया जाता है और फ़िर उन्हें दूर करने के उपाय किए जाते हैं. मैंने अपनी कई क्लिंट कम्पनियों में यह सिस्टम्स लगाने की कंसल्टेंसी दी है. उसके बाद वहां कोई दुर्घटना नहीं हुई है. आज कल एक स्टील प्लांट में कार्य रत हूँ. इस दुर्घटना के लिए मुख्य तौर पर मन्दिर प्रवंधन और सुरक्षा एजेंसीज जिम्मेदार हैं. यदि यह सिस्टम लगाया गया होता तो यात्रियों को इस की पूरी जानकारी दी गई होती और उन्हें किसी भी इमरजेंसी में कैसे और क्या करना है इस के लिए भी ट्रेनिंग दी गई होती.
बच्चे के अबार्शन का मुद्दा, कानूनी मुद्दा है. अदालत इस पर अपना निर्णय दे चुकी है. ईश्वर से यही प्रार्थना है की बच्चा पूर्ण रूप से स्वस्थ हो.
व्यक्तिगत आक्षेपो से बहस की दिशा भ्रमित होती है , मन भी आहत होता है ।
अपनी पोस्ट में कुछ और जोड़ना चाहूँगा.
जिस अन्तर-राष्ट्रीय मानक की बात मैं कर रहा हूँ, उसका नंबर है - OHSAS 18001. इसमें यात्रा के दौरान हर छोटी-बड़ी संभावित आपदा का विस्तृत आंकलन किया जाता है. जब सुरक्षा एजेंसीज, यात्री और प्रवंधन बोर्ड के कर्मचारी इस संभावित आपदाओं के बारे में पूरी जानकारी रखते हैं और इमरजेंसी में क्या करना है यह जानते हैं, तब नुक्सान की सम्भावना बहुत कम हो जाती है. अगर ऐसा सिस्टम होता तो हो सकता है यह मन्दिर और रेल की दुर्घटना होती ही नहीं, और अगर होती भी तो जान और माल का कम से कम नुक्सान होता.
मेरा आप सभी से आग्रह है कि व्यतिगत आरोपो से बचे,
महात्मा गान्धी, सरोजनी नायडू, विजलक्ष्मी सहगल, सुभाष चन्द्र बोस ,ये सभी एक लम्बे समय तक भारत मे नही रहे, पर इनके देश-प्रेम पर कोन उंगली कर सकता है?
मेरी सहमति अनूप जी के साथ है, और इस ब्लोग पर सार्थक बहस हो, इसके लिये ज़रूरी है, कि हर व्यक्ति का सम्मान बना रहे.
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