गुडबाय कैंसर
रवींद्र व्यास

मेरे शहर इंदौर मे कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें कैंसर ने कभी दबोचा था लेकिन उनमें ऐसा कुछ माद्दा था जिसके चलते उन्होंने न केवल कैंसर को हराया बल्कि जीवन में वापस लौटकर वे फिर हंसते-गाते देखे जा सकते हैं। जीवन के रस से सराबोर, हर पल को अमूल्य समझते हुए। अपने परिजनों और मित्रों के साथ खिलखिलाते हुए। उनके जीवन में आस्था के फूल खिले हैं और उनकी खुशबू में अपनी जिजीविषा को वे नए अर्थ दे रहे हैं।
अपने आत्मबल, आत्मविश्वास, अदम्य और अथक संघर्ष के साथ वे एक भरा-पूरा जीवन जी रहे हैं। कुछ मित्र-परिजनों का आत्मीय साथ, हमेशा हिम्मत बंधाता हुआ। और मौन के समुद्र में प्रार्थना के मोती झिलमिला रहे हैं जिनसे निकलती रोशनी की किरणें उनके जीवन को सुनहरा बना रही हैं। श्रीमती सीमा नातू को सन् 98 में पता चला कि उन्हें कैंसर है। वे कहती हैं-तब मेरे सामने मेरा दो साल का बेटा था। मैंने ज्यादा सोचा नहीं क्योंकि आदमी सोच-सोचकर ही आधा मर जाता है। बेटे को देख-देखकर ही मैंने ठाना कि कि मुझे जीना है। स्वस्थ रहना है। मैंने कई शारीरिक और मानसिक तकलीफों को सहा और भोगा लेकिन हार नहीं मानी। आज मैं स्वस्थ हूं।
सुगम संगीत की शौकीन श्रीमती नातू अब सामान्य जीवन बिता रही हैं। वे कहती हैं-मैं जीवन का हर पल जीना चाहती हूं। हर पल का सदुपयोग करना चाहती हूं।
एक युवा हैं नितीन शुक्ल। हट्टे-कट्टे। हमेशा हंसते-खिलखिलाते। उन्हें देखकर कल्पना करना मुश्किल है कि उन्हें कैंसर हुआ था। उनका हंसमुख व्यक्तित्व बरबस ही आकर्षित करता है। वे बहुत ही मार्मिक बात कहते हैं-यह जानकर कि मुझे कैंसर है, मैं डरा नहीं। निराश भी नहीं हुआ। मुझे लगता है कैंसर रोगी उतना प्रभावित नहीं होता जितना उसके परिवार वाले। उनके चेहरों पर हमेशा दुःख और भय की परछाइयां देखी-महसूस की जा सकती हैं। इसलिए मैंने तय किया कि मैं कैंसर से फाइट करूंगा और अपने परिवार को बचा लूंगा। दो बेटियों के पिता नितीन कहते हैं मैं अपने छोटे भाई के साथ मुंबई अकेला गया। सारी टेस्ट कराईं। इलाज कराया। मैंने हिम्मत नहीं हारी औऱ आज आप मुझे अपने परिवार के साथ हंसता-खेलता देख रहे हैं।
कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने कैंसर पर विजय पाकर अपने जीवन को दूसरों के लिए समर्पित कर दिया है। इनमें से एक हैं श्रीमती विशाखा मराठे। वे इंदौर के एक वृद्धाश्रम में बुजुर्गों की सेवा करती हैं। उन्हें सन् 96 स्तन कैंसर हुआ था। पहला आपरेशन बिगड़ गया वे दुःखी थीं लेकिन टूटी नहीं, हारी नहीं। वे कहती हैं-मेरे तीन आपरेशन हुए और ठीक होने के बाद मैंने तय किया कि असहाय लोगों के लिए काम करूंगी। मुंबई में टाटा इंस्टिट्यूट में ट्रेनिंग ली, गाड़ी चलाना सीखा और आज मैं घर और बाहर के अपने सारे काम करती हूं।
इसी तरह युवा आरती खेर का मामला भी बहुत विलक्षण है। परिवार में सबसे पहले उन्हें ही सन् 95 में पता लगा कि उन्हें ब्लड कैंसर है। वे कहती हैं- आप विश्वास नहीं करेंगे, मैं कतई दुःखी नहीं हुई। निराश भी नहीं। शारीरिक तकलीफ तो सहन करना ही पड़ती है। मुझे नहीं पता मुझे कहां से शक्ति आ गई थी। मैंने अपने डॉक्टर के निर्देशों का सख्ती से पालन किया। इसीलिए जल्दी अच्छे रिजल्ट्स मिलने लगे और एक दिन मैं ठीक हो गई। आरती ठीक हो गई हैं और पेंटिंग का अपना शौक बरकरार रखे हुए हैं। वे मनचाही तस्वीर बनाती हैं, मनचाहे रंग भरती हैं। वे बच्चों को पढ़ाती भी हैं।
श्रीमती आशा क्षीरसागर का मामला अलग है। उन्हें जब मालूम हुआ कि वे कैंसरग्रस्त हैं तो उन्हें धक्का लगा। वे बेहत हताश हो गईं। वे कहती हैं-मुझे लगा अब जिंदगी मेरे हाथ छूट गई है। मुंबई इलाज के लिए गई। वापस आई तो लगा जीवन ऐसे ही खत्म नहीं हो सकता। इसलिए अपने दुःख-निराशा को झाड़-पोंछकर फिर सामान्य जीवन में आ गई हूं। अब मैं घर के सारे काम बखूबी संभाल लेती हूं। खूब घुमती-फिरती हूं। फिल्में देखती हूं। लगता है कैंसर के बावजूद जीवन कितना सुंदर है।
बैंक के सेवानिवृत्त अधिकारी एम.एल. वर्मा को सन् 89 में इसोफेगस का कैंसर हुआ। उनकी आवाज चली गई थी। बोलने में बेहत तकलीफ होती थी। सांस लेने में जान जाती लगती थी। वे कहती हैं-मेरी चार लड़कियां हैं। मुझे ठीक होना ही था। मैं ठीक हुआ। कैंसर से लड़ने की ताकत मुझे अपनी बेटियों से मिली। मैं तीन की शादी कर चुका हूं, चौथी की तैयारी है। श्री वर्मा का स्वर यंत्र निकलने के बावजूद वे अब ठीक से बोल पाते हैं। खाने-पीने में शुरुआती तकलीफ के बाद अब इसमें कोई समस्या नहीं आती। वे कहते हैं-मौत एक बार आनी ही है लेकिन विल पावर के चलते आप बड़ी से बड़ी प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ सकते हैं। दो-तीन कीमो-थैरेपी और 30 रेडिएशन के बाद उनके गले में छेद किया गया था जिसके बदौलत वे बोल पाते हैं। पेट से हवा खींचकर वे अपने स्पीच को इम्प्रूव कर रहे हैं। यानी बिना स्वर यंत्र के जीवन से सुर मिला रहे हैं। वे कहते हैं-कैंसर होने के आठ साल तक यानी सेवानिवृत्त होने तक ईमानदारी से नौकरी की। आज मैं अपने जीवन से संतुष्ट हूं।
तो ये वे लोग हैं जो कैंसर को पूरी तरह जीत चुके हैं। कहने की जरूरत नहीं, जीवन जीने की की अदम्य चाह के कारण ही वे एक बड़े रोग से गुजरकर, जीवन के वसंत में सांसें ले रहे हैं। जहां उनके स्वप्न हैं, उनकी आकांक्षाएं हैं, छोटे-छोटे सुख हैं और है एक भरा-पूरा संसार जो लगातार उन्हें कुछ सार्थक करने की प्रेरणा और उत्साह देता रहता है। क्या इनका जीवन दूसरे लोगों के लिए प्रेरणा नहीं बन सकता?
7 comments:
sahi likha hai aapne, vyakiti mein shakati ki kamin nahin balki sankalp ki kamin hoti hai.
Regards
vivek
यह लेख पढवाने के लिए बहुत आभार ! वाकई कैंसर हार रहा है ,मनुष्य जीत रहा है संकल्प की शक्ति से।यह उड़ान वाकई हौसलों की उड़ान है पंखों की नही।
इंसान अगर चाहे तो कुछ भी कर सकता. वधाई हो उन सबको जो हरा रहे हैं केंसर को.
आप सब के प्रति गहरा आभार प्रकट करता हूं। कोशिश रहेगी कि कैंसर पेशेंट्स की कहानियां आप सभी को पढ़वाता रहूं।
वाह खूब लिखा है यकीनन लोगो का मनोबल बढे़गा हां कवितायें जो दुश्यन्त की है लाजवाब है
by only willpower or some treatment. can u write some details so other may be benifitted
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