हो गई है पीर पर्वत सी , पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए
संघर्ष से निकली मन्दाकिनी कितनों के पाप धोएगी , कितनों का कल्याण करेगी , कितनों की प्यास बुझाएगी और कितनों की पर लगायेगी गंगा के अमरत्व से अमर बनने की चाह तो सबकी है , लेकिन समस्या यह है कि इस अमरत्व देने वाले जल को लाने का संघर्ष कौन करेगा सदियों से इस संघर्ष का बीड़ा बहुधा , बहुत से समाजों में औरतों ने ही उठा रखा था , लेकिन अब कहीं उनकी कमर टूट चुकी है तो कहीं वे स्त्री विमर्श में डूब चुकी हैं कहीं उनकी प्रोफेशनल आकांक्षा सर उठा आस्मां चुना चाहती है तो कहीं जन्म से पहले ही उनका सर कुचल दिया गाया है कहने वाले कहेंगे कि सारी व्यवस्थाएं बिगड़ गयीं , सारे समीकरण बदल रहे हैं और अब सब ख़त्म हो जाएगा
हम जो देख रहे हैं , सोच रहे हैं, समझ रहे हैं वह ही सब कुछ नहीं, मुझे ऐसा लगता है हडबडाने से कुछ संवरेगा नहीं , बल्कि हम अपना और भी नुकसान कर सकते हैं प्रकृति और समाज के बदलते हालत का हमें जयादा गहराई और संजीदगी से अध्ययन करना चाहिए धैर्य के साथ परस्पर देश, जाति, लिंग, धर्म आदि के
मतभेदों को केवल अपनी ही नहीं , दूसरों की दृष्टि से भी देख समझ कर उनका हल खोजना चाहिए ऊंची कुर्सी पर बैठे समाज के नियंताओं की दृष्टि अक्सर धरातल की गहराइयों और सूक्ष्मताओं को देख नहीं पाती नियंता अपने अधिकार के अंहकार या मोह में बहुत सी अटल में छिपी सचाइयों को कई बार तो देख ही नहीं पाता तभी उसके निर्णय सफल नहीं हो पाते हम सब जहाँ भी जिस अधिकार की कुर्सी पर बैठे हैं , सोच समझ कर सारे निर्णय लें पुरूष , माँ, स्त्री , पिता , सरकारी या सामाजिक अधिकारी या कोई भी रूप अपने हर रूप में हमारे पास कुछ न कुछ मूलभूत जीने के और दूसरों को सुंदर जीवन देने अधिकार अवश्य ही हैं
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3 comments:
बहुत ख़ूब...अच्छी रचना है...
हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए| बहुत खुब। हिमालय की तलहट्टी मे बसे देशो को मैत्री सुत्र बांध दे यह गंगा, उनके दिलो की कडवाहट को धो दे। कोई ऐसा भीष्म पैदा करे जो धीरज न धरे जब तक हम फिर सुत्रबद्ध न हों।
बात तो सही कही है आपने. पर भगीरथ तपस्या करके गंगा को प्रथ्वी पर लाये थे. क्या अब संघर्ष किए बिना हिमालय से गंगा नहीं निकाली जा सकती?
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