


मैत्रेयी पुष्पा ने अपने हाल के एक लेख मे कटाक्ष करते हुए लिखा था कि आने वाले दिनों में बेटी पैदा करना शायद ज़्यादा फायदे का सौदा होगा उन मा बापो के लिए जो अभी बेटियों को शाप समझते हैं ,क्योंकि अगर बाज़ार का नियम माने तो वस्तु की कमी उसकी कीमतें बढाती है। औरत की ज़रूरत तो आदमियों को रहने ही वाली है और बेटियाँ कम होने से यह मांग भी बढेगी , कीमत भी बढेगी ।
बेटी फिर शायद ऊंचे दामों पर जायेगी और बेटी पालन एक प्रमुख व्यवसाय होगा । अब भी वक़्त है चेत जाने का ।
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4 comments:
चाहे इसके पीछे कितनी भी व्यावसायिक सोच औक ताकतें काम करती हूं, मैं भावनात्मक रूप से ऐसे दिनों के हक में हूं। मनाने का तरीका हरेक का अपना हो सकता है, लेकि ऐसे दिन कम-से-कम एक दिन अपने लोगों को उनकी अहमियत, उनकी अपने मन में जगह को व्यक्त करने का मौका देते हैं।
हम हिंदुस्तानी ये काम बड़ी मुश्किल से ही कर पाते हैं, खास तौर पर अपनी मांओं, बेटियों को ये एहसास कम ही दिला पाते हैं कि हम उनकी कितनी कद्र करते हैं। अब इस दिन के बहाने कम से कम बेटियां परिवार में महत्व पाएं, अपने महत्व को महसूस कर पाएं। यही तो है इस दिन की सार्थकता।
अब "बेटी पालन व्यवसाय" के बारे में मुझे पूरा विश्वास है कि यह एक भयानक विद्रूप, व्यंग्य से ज्यादा कुछ नहीं। सारे तथ्यों, चर्चाओं के बाद भी मुझे उम्मीद है कि बेटियों के लिए दुनिया बेहतर हो रही है। और यही बेटियां क्या अपना समय आने पर चोखेर.. से आगे बढ़ कर नयनतारा नहीं बन जाएंगी और बनाएंगी अपनी बेटियों को?!
मैत्रेयी जी की नजर में बेटी और दाम का रिश्ता हो सकता है लेकिन मेरे लिए तो बेटियां प्यारी हैं और बेटियां विषम परिस्थितियों में भी न केवल आगे बढ़ रहीं हैं बल्कि ज्यादा भावुक और जिम्मेदार साबित हो रहीं हैं। दरअसल दोष मैत्रेयी जी के 'स्कूल' का है।
अनुराधा जी का कमेन्ट बहुत बढ़िया है. पूरी तरह सहमत हूँ.
बिटिया, यह शब्द ही इतना मीठा है कि बोलते ही मन में मिठास भर जाती है.
एक वर्ष में एक दिन बालिका दिवस मनाना हो सकता है कुछ लोगों को सही लगता हो. मेरे लिए तो हर दिन बिटिया का दिन है.
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