आज मन हुआ कुछ ऐसे ही लिखा जाये, कलम को कुरेदने देते है दिमाग की परत दर परत को और देखते हैं क्या निकलता है. शायद गपशप, कुछ सवाल, कुछ प्रतिक्रियायें या न जाने क्या क्या. पता नहीं आप में से कितने लोग नये चैनल "कलर्स" में प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "बालिका वधू" (जो हर रात ८ बजे आता है) देखते हैं अरे नहीं मैं कोई मार्केटिंग नहीं कर रही, मुझे ये प्रोग्राम बहुत पंसद है इसलिये सोचा आप सब से भी पूछूँ. आनन्दी (१० या १२ साल की उम्र है) का किरदार निभा रही छोटी, प्यारी सी बच्ची बहुत सहज है जिसका विवाह हो चुका है. शायद ये प्रोग्राम भी हमारे मंच से कहीं ना कहीं तो मेल खाता ही है, अब कल का एपिसोड ही देख लीजिये -- "आनन्दी के ताऊ ससुर सज संवर रहे हैं, जिनकी बीवी (आनन्दी की ताई सास) की अभी हाल फिलहाल ही मृत्यु हुई है आनन्दी बहुत सहजता और मासूमियत से बोलती है ताऊ जी आप ये इत्र मत डालिये दादी देखेगी तो खूब डाटेगीं. आप को ऐसे सजना संवरना शोभा नहीं देता, क्यों की मेरे गाँव मे जो फूलवा थी ना, वो भी विधवा हो गई थी और विधवा हो जाने के बाद सजते संवरते नहीं है, तो आप भी तो विधवा हो गये हैं"
कल मेरी एक मित्र है "भावना" उससे बात हो रही थी. बोली यार चोखेर बाली पङने से मन बहुत खराब हो जाता है, मुझे पता है, इनफैक्ट मुझे क्या सभी को पता होगा कि ये सब तो होता ही है लङकियों के साथ इसमें नया क्या है लेकिन पता होने के बाद जब ये सब पढा भी जाये तो बहुत आघात लगता है और एक नेगेटिविटी आती है. मैंने कहा सच बोल रही हो लेकिन क्या हम कुछ झूठ लिखते हैं?? कई बार लङकियों के पोसिटिव साईड भी तो लिखते हैं, पर क्या करें जब नेगेटिव बाते ज्यादा हैं तो पोसेटिविटी खुद ही दरकिनार हो जाती है. शायद इसीलिये कहते हैं सच कङवा होता है.
खैर छोङिये, कोशिश रहेगी की लङकियो - औरतों के पोसेटिव ऐरियाज़ को ज्यादा उजागर किया जाये, जहाँ एक उमंग हो, एक जज्बा कुछ कर दिखाने का और सहस्रशक्ती कि हम सर्वत्र हैं.
Wednesday, September 3, 2008
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अनुप्रिया के रेखांकन
स्त्री को सिर्फ बाहर ही नहीं अपने भीतर भी लड़ना पड़ता है- अनुप्रिया के रेखांकन
स्त्री-विमर्श के तमाम सवालों को समेटने की कोशिश में लगे अनुप्रिया के रेखांकन इन दिनों सबसे विशिष्ट हैं। अपने कहन और असर में वे कई तरह से ...

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20 comments:
sangeeta,
achcha likha hai....
Nandini sach much bahut abhodh hai...essi na jaane kiyin nandiniya desh ke kai kano mea peeda jhel rahi hai
आपने सही कहा कि सच कडवा होता है। पर इसी कडवे सच के साथ ही हमें जीना है।
mai jub balika vadhu dekhti huun...iskey baarey chokherbali pe likhney ka mun hota hai...aapney shuruaat ki..acchha lagaa
कड़वा सच अगर समाज का ही बनाया हुआ हो तो बदला भी जा सकता है।
good that you wrote
this serial is an perfect example of "how woman are conditioned " ek bachchi ko saamajik vyavstha mae kaese "fit " kiya jaaye
i watch it regularly , wanted to write also but still thinking
u did it
Rachna
संगीता, यह सीरियल वाकई कई सवालों को उठाता है और शुक्र है कि एकता कपूरीय अंदाज में नहीं बनाया गया है (कम से कम अब तक के एपिसोड देख कर तो यह कहा ही जा सकता है)। मगर, एक बात जो इसमें अखरती है कि आनंदी की सास की सास को ही इसमें टिपिकल नेगेटिव किरदार में दिखाया गया है, इस बात की पुष्टि सी करते हुए कि औरत ही औरत का जीना हराम करती है। ऐसा दर्शाया जा रहा है कि घर की बुजुर्ग `महिला´ के आगे पुरूषों की नहीं चलती है और वे चाह कर भी उचित कदम नहीं उठा पाते।
जबकि, मुझे नहीं लगता कि ऐसा अक्सर होता है। मैंने उत्तर प्रदेश के गांवों में देखा है कि पुरूष की कही अनुभव और उम्र में बडी घर की सदस्य महिलाओं की कही पर भारी पड़ती है, एज युजुअल। तब तमाम मास मीडिया द्वारा शोषित और शोषक, दोनों ही ओर, महिलाओं को बिठा देना कितना खतरनाक है। यह अंगेजों की साजिश से जुदा नहीं...
दिनेशराय जी मैं सहमत हूँ और पक्ष में भी कि सच बदला जाये, और महामंत्री-तस्लीम जी हमें ऐसे क्यों जीना चाहिये क्या शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाना हमारा कर्तव्य नहीं चाहे फिर वो सच हो या शास्त्रों के नाम पर देने वाली दुहाईयाँ|
ऊपर सही कहा गया है कि एक स्त्री के अनुकूलन का ये बेहतरीन उदाहरण है। एक स्त्री यदि दूसरी स्त्री की दुश्मन दिखाई जाती है, वह इसलिए की पितृसत्ता कहीं से आहत न हो। कहीं न कहीं ये सभी पितृसत्ता की जड़ो को ही मजबूत करती हैं।
स्त्रियों को इस साजिश के तह में जाना चाहिए।
वाकई सोचने जैसा है....
अच्छा लिखा है. पर एक बात पर मेरा विचार भिन्न है. सच कडवा नहीं होता. वह हमें कडवा लगता है अगर हम उसे सहन करने का साहस नहीं जुटा पाते.
मेरी समझ मे ये नही आता की हर बात को मोड़ कर स्त्री ही स्त्री की दुश्मन हैं पर क्यूँ लाया जाता हैं . क्या हम सब इतने ना समझ हैं की ये नहीं समझते की जब भी हमारी माँ , सास या कोई भी स्त्री हमे " कंडिशनिंग " की शिक्षा देती हैं तो वो चाहती हैं की हम मानसिक रूप से तैयार हो जाए आने वाली सब मुश्किलों को झेलने के लिये . कोई भी स्त्री दूसरी स्त्री का शोषण नही करती हैं . एक व्यवस्था बन गयी हैं सो ढल जाओ उस व्यवस्था के अनुरूप ताकि जीवन को जी सको बिना लड़े . यही करना हैं क्युकी सदियों से हम सब यही करते आए हैं , अपनी नियति स्वीकार कर लो और लड़ना छोडो . शोषण का अर्थ होता हैं जहाँ हम किसी का फायदा उठाते हैं बहु से घुघट कराने मे सास का इतना ही फायदा होता हैं की परायी लड़की नए परिवेश मे , ससुर , देवर , जेठ के बीच "बची " रहे . और अगर मेरी बात पर विशवास ना हो तो देखे स्त्रियाँ कैसे मानसिक बलात्कार करती हैं पुरुषों का
achchi post
बाल वधु तो मै अभी तक देख नही पायी हु, पर सुना है इसके बारै मे, लेकिन मे सोचती हु की इसमे भी कोन सी नयी बात बतायी गयी है यह सब तो हौता ही आ रहा है कब सै ... और मुझे लगता है की यहा पर् भी ज्यादा नकरात्मकता ही दिखायी जा रही है इसलिऐ मैनै सँगीता को कहा की सिर्फ यहा लिखने या पदने से क्या हौगा, मन और खराब हौ जाता है .... मेरे विचार से हमे यहा पर उनके बदलते हुये रुप को दिखाना चाहिये, जिस्से उन्हे और प्ररेणा मिले, आगे बडने के लिये.. ओर कुछ करने के लिये, अपने और अपने समाज के लिये.... ओर सच तभी कडवा होता है जब हमे अच्छा न लगे... ओर इसे सुधारने के लिये हमे ही बहेतर प्रयास करना पडेगा..
भावना - रेगुलर रीडर
आज ही मैंने कई हिन्दी धारावाहिकों के खिलाफ लिखा हैं,और शिक्षाप्रद धारावाहिकों की मांग की हैं ,पर हा ये धारावाहिक मुझे भी बहुत पसंद हैं ,बालविवाह के नुकसानों को बहुत सहजता से समझाया जा रहा हैं ,सिख दी जा रही हैं ,अभी तक तो यह धारावाहिक उत्तम हैं ऐसा कह ही सकते हैं .
yes.......positive attitude will empower the women
मैंने 'स्त्रियाँ कैसे मानसिक बलात्कार करती हैं पुरुषों का' पोस्ट पढ़ी. यह तो विचार विमर्श नहीं है. यह तो गाली युद्ध है, एक दूसरे को नीचा दिखाया जा रहा है. इस से क्या हासिल होगा? कुछ मिनट का संतोष कि हमने भी खूब जवाब दिया. क्या यही उद्देश्य है ब्लागिंग का और ब्लाग पर आने-जाने का?
सुरेश जी अपने कमेंट्स की प्रासंगिकता पर ध्यान दें।जिस पोस्ट का सन्दर्भ यहाँ नही है उससे जुड़े कमेंट्स यहा न छोड़ॆं।
बालिका वधु मैने नही देखा, पर अच्छा है कि इस तरह के धारावाहिक भी आ रहे हैं।सच वाकई कड़वा है और इसलिए इसे कहने के तरीके चाह कर भे जलेबी जैसे नही हो सकते।सीधा और खरा ही कहना होगा ।
सुजाता जी, रचना जी की टिपण्णी पर ध्यान दें, जिसमें इस पोस्ट का लिंक है. मैं इसी सन्दर्भ पर यहीं से उस पोस्ट पर गया था, इसलिए अपनी बात यहाँ भी कह दी. अगर आपको मेरे इस ब्लाग पर आने पर ऐतराज है तो सीधा-सीधा कहिये. अभी तक यह ब्लाग सबके लिए खुला है इस लिए मैं इस ब्लाग पर आता हूँ. जिस दिन आप इस के दरवाजे मेरे लिए बंद कर देंगी, मेरा आना बंद हो जायेगा.
अपना अपना विचार है, मैं यही मानता हूँ कि सच कड़वा नहीं होता. यथार्थ कभी कड़वा हो ही नहीं सकता. हम सच से डरते हैं इसलिए उसे कड़वा कह कर उस का सामना करने से डरते हैं.
सुजाता बनाम सुरेश...। ताज्जुब है, एक ही राशि नाम के होकर भी आपलोग एक दुसरे से ऐसे लड़ते हैं जैसे मुलायम और मायावती।
बहुत हो गया भाई साहब, और बहन जी, कुछ और भी फरमाइये...
त्रिपाठी जी, स्वभाव से मैं बहुत मुलायम हूँ पर नाम से नहीं. मैंने सुना है कि समान राशियां कभी-कभी आपस मैं लड़ती हैं,शायद यह उसी का प्रभाव हो. मेरे मन में सुजाता जी के प्रति अत्यन्त स्नेह और आदर का भावः है.
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