मेरे अंदर एक आग जल रही है
जो मुझे चैन से जीने नही देती ।
वैसे भी एक स्त्री को जीने के लिये चाहिये क्या
पेट भर खाना, कपडा, और सिर पे छत,
शायद थोडे से जेवर थोडे अच्छे कपडे
मैं अपनी आग को समेट कर मुस्कुराती हूँ
मेहमानों का स्वागत करती हूँ
घरवालों को खुश रखने का भरसक प्रयास करती हूँ
लेकिन कोई मुझे भीतर से कचोटता रहता है
क्यूं नही मैं अपने स्वत्व को ललकारती
अपनी अस्मिता को उभारती
क्यूं नही अपना आप निखारती
क्यूं , क्यूं, क्यूं,
मेरे अंदर यही आग जल रही है
जो मुझे चैन से जीने नही देती ।
Wednesday, October 8, 2008
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8 comments:
कविता ने अन्दर तक झिंझोड़ कर रख दिया वास्तव में नारी के मन का विमर्श करने वाला कोई नहीं सौंदर्य व वासना के पुजारी तो सारे हैं आख़िर कब तक बदलेगा ये नजरिया इतना सब कुछ बदल रहा है लेकिन सोच कब बदलेगी
अच्छा है यह आग हर दिल में जलती रहे !
बदले की आग के बजे ये वाली आग ज्यादा ठीक होगी?
आग!
केवल ताप ही नहीं देती
वह देती है रोशनी भी
जिस से दिखाई देने लगती हैं
चीजें साफ साफ
उन का आकार,
रंग, गहराई और उथला पन
इसलिए जरूरी है
आग का जलना।
क्यों होली से लाई गई
आग को सहेज कर रखती हैं
औरतें साल भर, अगली होली तक?
और पानी से सींच कर
बुझा आती हैं
होली की ज्वालाएँ,
सुलगते हुए कोयले और
शीतल कर आती हैं
राख तक।
क्यूं नही अपना आप निखारती
क्यूं , क्यूं, क्यूं,
मेरे अंदर यही आग जल रही है
जो मुझे चैन से जीने नही देती ।
"very deep and effective creation'
regards
इस आलेख पर दुष्यंत कुमार के दो शे'रों से बेहतर टिप्पणी नहीं हो सकती:-
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये।
और
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक जलते नहीं ये कोयले देंगे धुआँ।
इसे बुझने न दें।
शानदार कविता । बधाई आशा जी...
विजयादशमी की बधाइया..
कौन है जो रोकता है मुझे अपने स्वत्व को ललकारने से?
कौन है जो रोकता है मुझे अपनी अस्मिता को उभारने से?
कौन है जो रोकता है मुझे अपना आप निखारने से?
इन सवालों के जवाब शायद आग का ताप कम कर सकें.
आग रौशनी तो दे पर जलाए न.
आप सबका आभार ।
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