संगीता जी ने अपनी पिछली पोस्ट मे लिखा था कुछ् सुख और खुशियों पर सिर्फ औरतों का हक होता है...बहुत दिन से नेट से दूर थी लेकिन जब यह पोस्ट पढी तो टिप्पणियाँ देखकर अच्छा लगा और कुछ टिप्पणियाँ देखकर हँसी भी आयी ।
लेखिका ने जिन स्त्री पात्रों की बात की है , वे काल्पनिक हैं ।लेकिन पढने वाले महान होते हैं , वे उन्हें माँ बनने की बधाई दे गये हैं:-)
खैर ,
अनायास ही मेरे मन से वाक्य फूटा -कुछ दर्द और कष्टों पर भी सिर्फ औरत का ही हक होता है।सुख में तो लोग भागीदार हो सकते हैं ,उत्सवों मे लोग उपहर देकर ,आशीष देकर ,खा पीकर लौट जाते हैं ,पर स्त्री के उन कष्टो मे कोई भागीदर भी नही होता जो उसके अंत तक उसके साथ चलते हैं।
इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहूंगी कि मेरे आस पास जो भी स्त्री मिली वह मातृत्व प्राप्ति के बाद के कष्टों और तनावों से दबी मथी हुई मिली।इस सम्बन्ध मे पहले भी हम लोग लिख चुके हैं कि शिशु आखिर किसकी ज़िम्मेदारी है!पर संगीता जी की पोस्ट से जो सवाल अनुराधा और स्वप्नदर्शी के मन मे उठ खड़े हुए हैं दर असल वे मेरी चिंता का कारण हैं ।
अनुराधा जी के कुछ प्रश्न जो परम्पराओं की तह मे झांकने की कोशिश करते हैं -
3) 'मां' के महिमामंडन के बहाने उस बच्चे की सारी जिम्मेदारी क्या गुप-चुप उस महिला पर डालने का षड्यंत्र नहीं है यह?
4) क्या पुरुष द्वारा बच्चा पालने की अपनी जिम्मेदारियां मां पर डालने की शुरुआत यहीं से नहीं हो गई है?
5) क्या इस कार्यक्रम के बाद भी उस महिला को मां बनने और परवरिश के पूरे दौर में परिवार का उतना ही सपोर्ट मिलता रहेगा, भले ही बिटिया पैदा हो?
6) क्या इस उत्सव के दौरान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से यह बात उस होने वाली मां की कुंवारी या अब तक मां न बनी सखियों को नहीं याद दिलाई गई कि अब तुम्हारी बार है, चाहे तुम्हारी इच्छा हो या नहीं?
7}"माँ बनना केवल औरत का हक है ।" अगर ऐसा है तो तो मां न बनना भी उसका हक होना चाहिए,है न! पर ऐसा है क्या?
और एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न स्वप्नदर्शी जी का
There is also other aspect of motherhood. If motherhood is the occasion of celebration and only the afair for women and her child, then it should be equally celebrative for unmarried women, or women who got pregnant in extramarital relations, . But those women are still and their motherhood is condemned and takes their lives.
So being mother and having children is not solely the issue of happiness for mother and occasion where she can find solace from the injustice done to her in every corner.
मातृत्व स्तुत्य है तो अनब्याही माँ होना अपराध क्यों हो जाता है , और वहीं किसी पुरुष द्वारा उस स्त्री व बच्चे को अपना लेने से वही मातृत्व फिर से पवित्र हो जाता है ?और मातृत्व स्तुत्य है तो बेटियों की माँ हमेशा तिरस्कृत्त क्यों होती है ?कहीं समाज के मानदण्डों के अनुसार मातृत्व के स्तुत्य होने की शर्त विवाह संस्था के भीतर प्राप्त हुआ मातृत्व और केवल बेटे का जन्म तो नही है ?
और अगर बात केवल पिता के प्यार दुलार की बच्चे को आवश्यकता की है तो आप भी जानते हैं कितनी स्त्रियाँ पति की मृत्यु के बाद सब अकेले सम्भाल रही हैं हमारे आस पास , या किसी अन्य कारण से वे पति द्वारा तिरस्कृत कर दी गयीं , बच्चों समेत ।
अगर वाकई इन सवालों के जवाब हमारे पास हैं तो बात आगे बढाई जा सकती है ...और नहीं हैं तो बहत निराशाजनक स्थिति है यह !
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4 comments:
माँ इतने कष्ट सहती है, तभी तो शायद इतनी प्रिय और पूज्नीय भी होती है|
"माँ बनना केवल औरत का हक है ।" अगर ऐसा है तो तो मां न बनना भी उसका हक होना चाहिए,है न! पर ऐसा है क्या?
अहम है यह वाक्य तथा मातृत्व के ग्लोरिफिकेशन की पोलिटिक्स को उजागर करने की ताकत रखता है। कठगुलाब (मृदुला गर्ग) की पंक्ति याद आई कि गर्भपात के हक में, गर्भपात न कराने का हक भी शामिल है।
वैसे संगीता की पोस्ट पर आई कुछ टिप्पणियॉं वाकई हैरान करने वाली हैं।
मानव समाज के अस्तित्व में आने के पहले से ही संतान के पालने का दायित्व को माँ ही निभाती आ रही है। यह उसी का दायित्व है। बस संतान को अपना कहने का अधिकार उन से छिन गया है।
'मां' के महिमामंडन के बहाने उस बच्चे की सारी जिम्मेदारी क्या गुप-चुप उस महिला पर डालने का षड्यंत्र नहीं है यह? -
मां बनना ईश्वर द्बारा नारी को दिया गया एक अद्भुत उपहार है. बच्चे की जिम्मेदारी केवल मां पर नहीं होती. पूरा परिवार उस के लिए जिम्मेदार होता है. न ही यह कोई महिमामंडन है और न कोई षड़यंत्र.
क्या पुरुष द्वारा बच्चा पालने की अपनी जिम्मेदारियां मां पर डालने की शुरुआत यहीं से नहीं हो गई है? -
सब पुरूष बच्चा पालने की अपनी जिम्मेदारियां मां पर नहीं डालते. ऐसे भी कितने पुरूष हैं जिन्होनें मां की दुखद म्रत्यु के बाद ख़ुद बच्चों को पाला.
क्या इस कार्यक्रम के बाद भी उस महिला को मां बनने और परवरिश के पूरे दौर में परिवार का उतना ही सपोर्ट मिलता रहेगा, भले ही बिटिया पैदा हो? -
बिल्कुल मिलेगा. कुछ लोगों के लिए बेटा हो बेटी कोई फर्क नहीं पड़ता.
क्या इस उत्सव के दौरान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से यह बात उस होने वाली मां की कुंवारी या अब तक मां न बनी सखियों को नहीं याद दिलाई गई कि अब तुम्हारी बार है, चाहे तुम्हारी इच्छा हो या नहीं?
हर उत्सव में ऐसा नहीं होता. कुछ लोगों का सोच ग़लत हो सकता है.
"माँ बनना केवल औरत का हक है ।" अगर ऐसा है तो तो मां न बनना भी उसका हक होना चाहिए,है न! पर ऐसा है क्या?
मां न बनना भी औरत का हक है.
निराशाजनक स्थिति नहीं सोच है. सोच बदलना चाहिए.
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