
आप सोचेँगेँ ऐसा क्या सीखाया जाता होगा यहाँ जो पहले स्त्रियाँ सीख ना पाई होँ ? तो जी ये है स्त्री को पण्डित की तरह धार्मिक अनुष्ठान, विधि विधान करवाने के लिये दिया जानेवाला प्रशिक्षण !
ताज्जुब की बात है के, ईसाई धर्म भी इन्ही मुद्दों से जूझ रहा है - जबके पश्चिम और पूर्व के सामाजिक व धार्मिक मसलों में बहुत सारी भिन्नता है फ़िर भी स्त्री कहाँ और क्या काम कर सकती है , इस मामले में , आज भी , एक तरह से , काफी अवरोध हैं जिन्हें स्त्री ने २१ वीं सदी तक आते आते, हीम्मत से सामना करते हुए, अपने लिए नए क्षेत्र खोले और कई नए कामों में अपने लिए जगह बनाई है जिस में ख़ास तौर से टीचर , नर्स , मोडल , सिने तारिका, घर का काम, सरकारी दफ्तर, बैंक, जैसे क्षेत्र स्त्री के लिए सफल क्षेत्र साबित हुए हैं -
धार्मिक अनुष्ठान आज भी पुरूष प्रधान , पुरूष प्रतिपादीत व्यवस्था ही रही है जिसका विरोध रोमन केथोलिक चर्च भी नही कर पाया है !
पुणे से कई नवीन तथा रुढिवादी परँपराओँ को तोडने की पहल पहले भी हुई है -जैसे "विधवा पुनर विवाह " जैसे मामलोँ मेँ पहल करना - इसी तरह, आज स्त्री क्यूँ ना धार्मिक यज्ञ, पूजा ना करेँ ? क्योँ पुरूष पण्डित ही ऐसे अनुष्ठान करेँ ?
सोच को बदलने की प्रक्रिया आरँभ हो चुकी है आज तक , स्त्री सिर्फ़ भक्त हो सकीं मीरा बन कर अमर हुई पर , धार्मिक अगवा ना बन सकीं --
पर आज बदलाव शुरू हो गया है -
३० वर्षीया प्रीति अग्रवाल ने अपने घर पर सरस्वती पूजा करने के लिये सुनीता जोषी नामक स्त्री पण्डिताईन को नियुक्त किया और सादर घर पर बुलवाया -
" शँकर सेवा समीति " नामक कार्यालय की स्थापना , श्रीमान शँकर राव थत्ते ने की है ।
शहर मेँ लग्न सेवा से जुडा हुआ उध्यान कार्यालय भी उन्हीँका व्यवसाय है -" ज्ञान प्रबोधिनी " तथा शँकर सेवा समीति जहाँ पर ४ माह का प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे स्त्री भी शादी , यज्ञोपवीत जैसे पुरातन संस्कारों की रीति सम्पन्न करवा पायेँ और पॅडित की जगह ले सकेँ इसकी सुविधा शुरु की गई है -
ज्ञान प्रबोधिनी के शिक्षक है श्रीमान विश्वनाथ गुजर जिनका कहना है कि स्त्री भी मोक्ष की उतनी ही हक्दार है जितना की पुरुष और भारतीय शास्त्रोँ मेँ कहीँ भी ऐसा नहीँ लिखा है कि स्त्री पुरुष के समकक्ष नहीँ है - दोनोँ एक समान हैँ -
पुरी के शँकराचार्य ने स्त्री के वेदाअधिकार की आलोचना की थी फिर भी पुणे के इस सँस्थान मेँ स्त्रीयोँ के उत्साह मेँ कोई कमी ना आ पायी है -
५२ वर्षीया वासँती खाडीलकर जी का कहना है कि " पुरातन शास्त्रोँ मेँ विदुषी नारीयोँ ने भी योगदान किया जैसे, गार्गी, मैत्रेयी,सौलभा,रोमशा, लोपामुद्रा व घोषा ये ब्र्हदारण्यक उपनिषदमेँ भी लिखा है और जो शिक्षित हैँ वे अपनी कन्याओँ को विदुषी और शिक्षित हुआ देखना चाहते हैँ। "
पहले ३ से ४ महीने तक का प्रशिक्षण हुआ करता था जो अब १२ माह तक का हुआ है और ज्ञान प्रबोधिनी मेँ १२ क्लास मेँ ३० से ३५ स्त्रियाँ पँडितकर्म की शिक्षा ग्रहण कर रहीँ हैँ -
सँध्या कुलकर्णी जी अपने आपको "पुरोहित " कहतीँ हैँ और गत १० साल से पूजा अनुष्ठान करवा रहीँ हैँ वे सँस्कृत भाषा मेँ पी। एच। डी।किये हुए हैँ
गृह - प्रवेश, यज्नोपवित यज्ञोपवित्`, उपनयन , सँस्कार विवाह विधि ये सारे ही अब स्त्री पुरोहित करवा रहीँ हैं ।
माधुरी करवडे पिछले ७ सालोँ से धार्मिक कार्योँ को सम्पन्न करवा रहीँ हैँ ।
- लावण्या
12 comments:
धर्म कोई भी हो ... शोषित स्त्री ही है .ये सच है भले ही हम इसे माने या ना माने .
डॉ अनुराग से सहमत हूँ ।
धर्म और स्त्री का कॉम्बिनेशन बहुत विकट है।धर्म ने हमेशा ही स्त्री को दमित करने का काम किया है ,इसलिए बहुत विचित्र है यह ।
पर अगर सवाल इस क्षेत्र मे भी अपने हाथ आजमाने का है तो यह भी सही ,पुरोहिती भी कर डालें :-)। बहुत खूब !
इस प्रयास का हम स्वागत करते हैं. परंतु कॅप्सुल कोर्स के मध्यम से अधपके लोगों को खड़े करने से अच्छा होगा यदि कन्याओं को वेद पाठशालाओं मे प्रवेश दिया जावे.
सुंदर और प्रगतिशील कदम है। स्त्रियों के पूजा पाठ और दूसरे कामों में सब से बड़ी बाधा बताया जाता है। उन के ऋतुकाल को। लेकिन ब्राह्मण धर्म की स्थापना के पहले तक स्त्रियों को इसी ऋतुकाल में सब से पवित्र और पूज्य माना जाता रहा था। और वह भी पूरी दुनिया भर में।
Meera ko theek se samjha nahi gaya hai. Ve pitrasatta kee vidrohni purkhuin hain
पितृसता का विरोध मीराँ जी ने नहीँ किया --
मेरे खयाल से मीराँ बाई ने स्वयम् को एक "आत्मा" माना और मुक्ति की प्यास को श्रीकृष्ण भक्ति द्वारा पूर्ण किया था -
पितृगृह से ही उन्हेँ श्रीकृष्ण भक्ति का बल मिला -
श्वसुर गृह मेँ पुरुष सत्ता के तहत,
इसे अवरोध मिला जिसे मीराँ जी सहतीँ रहीँ -
फिर पति के निधन के बाद, लोक लाज, कुल, यश- अपयश की परवाह छोड कर वे बैरागिन बनीँ और अँतत: मुक्ति प्राप्त की -
- लावण्या
प्राचीन भारत में स्त्रियों को यज्ञादि का अधिकार था...यह सारे बदलाव वैदिकोत्तर भारत के हैं...जो भी हो पूने की बयार का स्वागत किया जाना चाहिए । अच्छी प्रस्तुति
सुब्रहम्णियम जी
वैदिक पाठशालाएँ तो सभी बालक बालिकाओँ के लिये सही होगी -
कई पुरोहित भी उनका कार्य ठीक से नहीँ सीखे हैँ !!
-" ज्ञान प्रबोधिनी " का पाठ्यक्रम ४ महीने से १२ महीने तक बढाया गया है -
ये एक शुरुआत है -
अगर इसे प्रोत्साहन मिलेगा तब इसमेँ से ही कई पुरोहीताइन या पँडिता पारँगत होगीँ और अच्छा और पक्का काम सीख कर अनुष्ठान पूरे करने मेँ सक्षम होगीँ ये मेरा विश्वास है -
अगर स्त्री ऐस्ट्रोनोट बन सकती है, डाक्टर बन सकती है, माँ बन सकती है तब पण्डिता भी अवश्य बन सकती है -
कोई भी जन्म से सब सीख कर पैदा नहीँ होता -
शिक्षा ही व्यक्ति को सबल बनाती है -
इस प्रयास को सराहना और प्रोत्साहन मिलना चाहीये -
ईसाई धर्म मेँ भी पादरी / प्रीस्ट का कार्य स्त्री द्वारा किये जाने के प्रति काफी रोष है -
जिसका विरोध हो रहा है -
- लावण्या
सुजाता जी, डा. अनुराग भाई,
कई बार एक सीस्टम मेँ रहते हुए भी असहयोग को अपने लिये सहयोग मेँ बदल देना भी एक सोच और कोशिश का परिणाम होता है -
Satyagrah was one such experiment conducted by Gandhiji
जैसे जुडो मेँ सीखाते हैँ प्रतिद्वँदी की ताकत को उसीके विरुध्ध इस्तेमाल कर, बचाव करना -
" turning the Tables "
हर तरफ, बदलाव आना शुरु हो गया है -
इस क्षेत्र मेँ भी जाहिर है ~~
- लावण्या
दिनेश भाई जी,
ऋतुकाल पर भी इस लिन्क मेँ स्पष्ट किया गया है -
स्वेच्छा से कई पण्डिता अपने यजमान का मान रखते हुए या स्वयम्` के निर्णय से प्रेरीत होकर इस अवधि मेँ धार्मिक कार्य नहीँ करतीँ -
इस के बारे मेँ भी विचार विमर्श होते रहेँगेँ और सही निर्णय लिये जायेँगेँ ये भी होगा -
अगर इस तरह की पहल हुई है तब -
- लावण्या
स्त्रियाँ धार्मिक अनुष्ठानों के लिए शिक्षित हों यह एक प्रगतिशील कदम है. बच्चो के जन्म दिन पर हम हवन करते हैं. पास के आर्य समाज मन्दिर में कार्यरत एक पंडित जी यह हवन करवाते हैं. एक बार पंडित जी को किसी आवश्यक कार्यवश शहर से बाहर जाना पड़ा. उनकी अनुपस्थिति में आर्य समाज की एक प्रमुख कार्यकर्ती ने यह हवन कराया. सारा अनुष्ठान बहुत अच्छी तरह संपन्न हुआ.
लावण्या जी,
पुणे में नई तरह की पाठशाला की जानकारी देने
पर बधाई--हर क्षेत्र में औरतों का पदार्पण जहाँ
समय और समाज के लिए चुनौती है वहीं नई
दिशाएँ भी खुल रहीं है---
सस्नेह,
सुधा ओम ढींगरा
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