2008
अब डर कैसा (कथांश)
मैं आई तुम्हारे घर, नई नवेली दुल्हन बनकर । कितने सारे सपने लेकर ! मैं विकलांग थी, शरीर से । सोचा भी नहीं था कि कभी शादी होगी । लेकिन मेरा स्वस्थ मन कहता रहता था, मेरी भी शादी होगी, मेरे भी सपनों का राजकुमार आएगा । और एक दिन यह सच भी हो गया, मेरे लिए भी न_नुकर करते करते एक रिश्ता आ ही गया । पहले भी कई लोग रिश्ते लेकर तो आए थे, लेकिन उनका मकसद रिश्ता जोड़ने से ज्यादा सहानुभूति दिखाना ही अधिक होता था और यह मां को बातों बातों में समझ आ ही जाता था । लेकिन इस बार बात कुछ अलग थी, रिश्ता बहुत ही नज़दीक की भाभी लाई थी, वो भी अपने भाई का । मां भी हैरान थीं । लेकिन बात टाल न सकीं । उनके मन में भी आशा की किरण जाग ही उठी । मैं भी अपनी बेटी को डोली बिठाउंगी, वह भी और लड़कियों की तरह ससुराल जाएगी । चलो मेरे जाने के बाद उसका ख्याल रखने वाला उसका अपना पति होगा । उसका भी अपना भरापूरा संसार होगा । वह भी मां बनेगी और भी जाने क्या क्या ।.......मैं भी भरपूर सोचने लगी । सपने बुनने लगी । भाभी यूं ही हवा में बात तो नहीं कर सकती , कुछ तो जरूर सोचा ही होगा तभी तो ये बात मां से सीधे सीधे कही है । पहले भी उनके भाई का एक बार उनके भाई का रिश्ता सुना था हो गया था, फिर पता नहीं चल पाया था कि कैसे वह टूट गया । इन्होंने तोड़ा या लड़की वालों की तरफ से तोड़ा गया । लेकिन उस बात को भी साल भर तो हो ही गया है, बहुत ढूंढ रहे थे कोई लड़की मिल ही नहीं रही । देखने में तो इनका भई सुमित सुन्दर नहीं तो ठीक ही है । उससे भी बुरी शक्ल वाले लड़कों की शादियां होते देखी हैं पर उसे पता नहीं लड़की क्यों नहीं मिली ? मुझसे एकाध बार भाभी के घर पर ही मिला भी, सब ठीक ही लगता है, हां बस कमाई कम है , लेकिन क्या कम कमाने वालों की शादी नहीं होती, अभी हमारे यहां तो एसी नौबत नहीं । शादी भी खूब हो जाती है और रिश्तेदार आगे गृहस्थी को भी लेदेकर चलवा ही देते हैं अपने ही मोहल्ले में कितने घर हैं जहां आदमी ज्यादा कमाते हो । ज्यादा तो औरतें ही कुछ न कुछ कर पति की इज्जत बचाने और गृहस्थी के खर्चे पूरे करने में जी तोड़ लगी रहती हैं । मैं भी कर ही लूंगी किसी तरह गुजारा । मां ने तो वैसे भी मुझे सब कुछ सिखाया ही है । सिलाई मुझे आती है, ब्यूटिशियन का काम मुझे आता है, खाना भी मैं अच्छा बना ही लेती हूं, प्राइमरी टीचर का कोर्स और नौकरी भी मैंने की ही हुई है । बस कुछ न कुछ तो हो ही जाएगा । बस बात बन जाए ।
Saturday, November 8, 2008
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अनुप्रिया के रेखांकन
स्त्री को सिर्फ बाहर ही नहीं अपने भीतर भी लड़ना पड़ता है- अनुप्रिया के रेखांकन
स्त्री-विमर्श के तमाम सवालों को समेटने की कोशिश में लगे अनुप्रिया के रेखांकन इन दिनों सबसे विशिष्ट हैं। अपने कहन और असर में वे कई तरह से ...

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10 comments:
सच है...... विकलांगों के शादी विवाह में काफी दिक्कतें आती हैं, पहले वधु पक्ष को अधिक तकलीफ उठानी पड़ती थी अब तो लड़कियों की कमी के कारण विकलांग लड़के की भी शादी नहीं होती. हमारी मानसिकता ही ऐसी है की विकलांगों को हम अपने से अलग देखते हैं, उनके प्रति उपेक्षा या सहानुभूति का भाव तो रखते हैं पर समानता का नहीं. हर कोई आवाज़ उठा रहा है, यहाँ तक की किन्नर भी, पर यही चुप हैं.
शादी क्या किसी भी स्त्री (विकलांग हो या न हो) के जीवन का एकमात्र परम लक्ष्य है जिसके बिना जीवन निरर्थक रह जाता?
उत्सुकता बहुत है कि कहानी आखिर क्या मोड़ लेती है। जरूर कुछ रहस्य है, छुपाया गया है, लड़की वालों से, ऐसा मेरा अंदेशा और अनुभवजन्य डर है।
अगली कड़ी का नहीं, पूरी कहानी का इंतज़ार है।
आगे की कहानी जल्द ही कहिए !
आगे की बात जानने को उत्सुकता बनी हुई है ।
आगे की कहानी इसलिए जानना चाहूंगी क्योंकि ये मेरे दिल के काफी करीब लगती है. कुछ अपनी ही ज़िन्दगी की कहानी सी. अब आगे कितना अलग होगी, ये ही जानने की उत्सुकता hai
wakai, agli kisht ko jaanne ki utsukta hai. jaldi post karen.
ईश्वर करे बात बन जाए.
हमारी प्रार्थना है कि कहानी सुखान्त ही हो।
सशक्त कहानी... अन्त जानने की तीव्र इच्छा ...
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