
"मां भी शादी के बाद गृहस्थी का और पति का सुख नहीं देख पाई बस संतान सुख या कहो दुख मुझ विकलांग बच्ची के रूप में उन्होंने पाया । बड़ी मुशि्कल से जान बचाकर वह ससुराल से वापस सहारनपुर आ सकी । मैं जब गर्भ में थी तो उनके ससुर ने उन्हें इतना मारा कि उसका फल विकलांगता के रूप में मैं जीवन भर भोग रही हूं । मम्मी की भी रूह कांप जाती है जब कोई उन्हें वही सब याद दिलाकर मेरी शादी न करने की सलाह देता है।"
इसी ब्लॉग की पोस्ट अब डर कैसा की कुछ पंक्तियां मैंने यहां उतारी हैं। कहानी आगे किस दिशा में जाती है, यह तो आगे ही पता चलेगा, लेकिन कहानी को दिशा देने वाली इस घटना को मैं नजर-अंदाज नहीं कर पाई।
पिछले दिनों टीवी पर एक विज्ञापन देखा। एक आम निम्न-मध्यम वर्गीय मोहल्ले के मैदान में बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। किसी के पैर में जूते नहीं हैं, तो कोई बड़े साइज की कंधे से ढलकती टी शर्ट संभालता फिर रहा है। पर सबमें जोश की कोई कमी नहीं। फिर ऐदान के तीन ओर फैले चॉल के एक कमरे से आदमी-औरत के झगड़े की आवाजें, चीखें आती है। आवाजों से समझ में आता है कि पुरुष शराब पी कर आया है और पत्न को मार रहा है। इन आवाजों से बैट्समैन बल्ले पर पकड़ ठोड़ देता है और गेंदबाज भी लड़खड़ा जाता है।
फिर दर्शक देखते हैं कि बच्चों की पूरी टीम खेल छोड़कर उस दरवाजे पर पहुंची हैं और घंटी बजा रही है। आदमी दरवाजे को आधा खोल कर झांकता है तो बच्चे गेंद का इशारा करते हैं। वह घर (कमरे) में जाता है और बाहर निकलता है। जाहिर हैं, उसे गेंद घर के अंदर नहीं मिली क्योंकि वह तो एक लड़के के हाथ में ही है जो उसे दादा टाइप अंदाज में उछाल रहा है।
फिर संदेश आता है- घरेलू हिंसा को रोको, घंटी बजाओ। पिछले कुछ समय में इतना प्रभावशाली विज्ञापन और स्लोगन, किसी सामाजिक बुराई को रोकने का इतना सरल लेकिन प्रभावशाली, तत्काल असर पैदा करने वाला खालिस देसी उपाय देखने में नहीं आया था।
महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा पर 2002 में हुए एक अध्ययन के मुताबक 45 फीसदी भारतीय पत्नियां अपने पतियों द्वारा मार-थप्पड़ से लेकर लात-घूंसों और किसी ठोस चीज से वार तक सहती हैं।

घरेलू हिंसा से महिलाओं को बचाने के लिए अक्टूबर 2006 से भारत में डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट लागू है। फिर भी ऐसी घटनाओं में कोई कमी नहीं आ रही है। और दिलचस्प यह है कि औरत के खिलाफ शरीर की ताकत का इस्तेमाल दुनिया भर में हर देश, जाति, वर्ग, धर्म में समान रूप से होता आया है, थोड़े-बहुत फर्क के साथ। औरतों के खिलाफ हिंसा में पति-पत्नी के बीच झगड़े-फसाद के अलावा बालिका गर्भ का समापन, दहेज के लिए प्रताड़ना या हत्या, मानसिक और शारीरिक पीड़ा देना, वेश्यावृत्ति के लिए खरीद-बिक्री और लोगों के सामने अपमान भी शामिल हैं। घरेलू हिंसा का अर्थ सिर्फ मार-पीट, झगड़ा या बहस नहीं है। यह दरअसल ताकत का गलत इस्तेमाल है। धमकियां देकर, डर दिखा कर, और शारीरिक हिंसा के जरिए किसी को पीड़ा, यंत्रणा देना और उस पर नियंत्रण करने की कोशिश करना। इसकी पहली शिकार आम तौर पर महिलाएं होती हैं।
घरेलू हिंसा के बारे में अपने लोगों को कम उम्र से ही जागरूक बनाने और इसके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश होनी चाहिए। समाज भी औरतों के खिलाफ अत्याचार को परिवार का आंतरिक मसला मानकर नजरअंदाज न करे। औरतों को पता होना चाहिए कि अगर परिवार में ऐसी कोई घटना हो तो सहायता मांगने की जरूरत है न कि घटना को छुपाने की, क्योंकि यह गंभीर मामला है, परिवार की बेइज्जती से ज्यादा परिवार के भीतर औरत की बेइज्जती, असुरक्षा, उत्पीड़न का मसला है। हिंसा की शुरुआत हो, इससे पहले ही लोगों को बताया जाए कि यह गलत है, गैर-कानूनी है। इसे रोकने के लिए हम सब कोशिश कर सकते हैं। अगर हम अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग हैं, अपने घर-परिवार और पास-पड़ोस में घरेलू हिंसा को रोकना चाहते हैं तो एक घंटी तो बजा ही सकते हैं।
10 comments:
मैं आपके साथ घंटी बजाने और बार-बार बजाने में पूरी तरह साथ हूँ। घरेलू हिंसा रोकने के लिए महिलाओं और युवतियों को ही आगे आना होगा। तभी इस तरह की घिनौनी हरकतों पर रोक लग पाएँगी। आपके झुग्गी की लड़ाई का चित्रण खूब किया। अमीर तबकों की चाहरदिवारी आवजों और क्रंदन को रोक लेती है। वरना स्थिति तो वहाँ भी जुदा नहीं। हाँ हमारी बुलंद आवाज इंसानियत को शर्मिंदा करने वाले हैवानों के हौसलें जरूर पस्त कर सकती है।
बहुत अच्छा आलेख है। पर घरेलू हिंसा के दायरे में बच्चों के विरुद्ध हिंसा भी आती है जिसमें महिलाओं
का भी अच्छा-ख़ासा योगदान रहता है। इस ओर भी ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है।
कौन बचायेगा भला, मारे जब घरवाला.
स्वयं लुटेरा है जहाँ,न्याय-कानून-रखवाला.
न्याय का रखवाला, निरपेक्ष है धर्म-मार्ग से.
संकट आया संस्कृति पर,अब रखवालों से.
कह साधक कवि,चक्कर-घिन्नी बन जायेगा.
मारेगा खुद घरवाला,फ़िर कौन बचायेगा ?
हमें अपनी बेटियों को सहनशक्ति की शिक्षा के बजाय आत्मसम्मान की शिक्षा देनी होगी । अन्याय चाहे वह कोई भी किसी पर करे गलत है यह सिखाना होगा,बस ।
घुघूती बासूती
bahut achha lekh ghughuti ji se sehmat hai hum bhi.
काफी आसान तरीका है घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाने का । घंटी ही नही हम तो थाली बजाने को भी तैयार हैं ।
बजाइए घंटी बजाइए,
सब मिलकर घंटी बजाइए,
घंटी का यह स्वर ब्रह्मनाद बन जाए,
हिला कर रख दे नारी पर अत्त्याचार करने वालों के सिंहासन को.
समा जाय उनके दिलों में एक डर बन कर,
फ़िर न हो कोई नारी अपमानित.
ओ चोखेरबालियों......!!
यहाँ आता जाता रहता हूँ....पढता हूँ...महसूस करता हूँ....कमेन्ट नहीं दे पाता.....क्या लिखूं कि जो इन आलेखों के परिप्रेक्ष्य में आंदोलित होता हुआ-सा लगे...क्या करूँ कि आदमी जात...वर्ग...लिंग...धरम...और अन्य विसंगतियों से उबर सके...और इन सब से ऊपर उठ कर एक सुंदर-सा जीवन जी सके....अपने-आप की तो गारंटी लेता हूँ.....मगर जो भी लोग उपरोक्त चीजों...(विसंगतियों) के कारण सबका जीना हराम किए देते हैं....उन्हें किन शब्दों में और क्या तो समझाएं कि सबका जीवन पानी की तरह बह सके...आधी दुनिया का दर्द दूर हो सके....और बाकि की आधी दुनिया ये महसूस कर सके कि इस आधी दुनिया के बगैर उनका गुजारा सम्भव नहीं.....एक दूसरे को सम्मान देने में किसी का क्या "फटता" है...ये मैं ३८ वर्षों में भी नहीं समझ पाया....कब समझूंगा...सो भी पता नहीं....
Mere Honton Ke Mehaktay Hue Naghmo Par Na Ja
Mere Seenay Main Kaye Aur Bhi Ghum Paltay Hain
Mere Chehray Par Dikhaway Ka Tabassum Hai Magar
Meri Aankhon Main Udaasi Kay Diye Jalte Hain
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thank you
इतना परेशान न हों, भूतनाथ जी समझें.
गुण-दोषमय मानव मन की,मजबूरी को समझें.
मजबूरी को समझें,हर युग में होता है.
नर-नारी के रिश्ते का प्राकृतिक तत्व होता है.
कह साधक तुम कवि-ह्रदय हो,संवेदित हो.
सन्मझदार भी हो तो, इतना परेशान क्यों हो>
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