प्रश्न : निम्नलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए ।
गद्यांश : cmpershad ( चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद ) said
मालामाल चर्चा।
लगता है महिलाएं भी पुरुषों का मुकाबिला गाली-गलौच में भी करना चाहती हैं! करें, जरूर करें, कौन रोकता है। पुरुषों की तरह सिगरेट पियें [पश्चिम में तो पुरुषों से अधिक महिलाएं ही पीती हैं तो भारत में पीछे क्यों रहें], शराब पियें, आगे बढ़कर अपने लिए एक रेड लाईट एरिया[ चाहें तो रंग बदल लें] खोल लें .... तभी ना, यह कहा जा सकेगा कि स्त्री भी पुरुष से कम नहीं!!
यदि महिलाएं पुरुषों के गंदे आचरण को अपनाना चाहें तो पुरुष कौन होता है रोकने के लिए। मुझे प्रसन्नता है कि मेरे कटु शब्दों ने महिलाओं में विरोध के शब्द उठे और यही है सुजाताजी को उनकी स्वतंत्रता का उत्तर।
प्रसंग : पुरुष अपने वाहियातपने या पतितावस्था को सगर्व स्वीकार क्यों करता है?शर्मिन्दा क्यों नहीं होता?
व्याख्या :
"स्वतंत्र होकर गाली देना चाहती हो? तो आओ ,करो मेरा मुकाबला , मुझसे ज़्यादा पतित नही हो पाओगी ,देखो मै बिना गाली दिए भी भाषा का ऐसा प्रयोग करूंगा कि वह किसी भद्दी गाली से कम नही होगा, पतित होने की होड़ मे तुम मुझसे नही जीत सकती , इसलिए मान लो कि गालियाँ पितृसत्ता की सम्माननीय धरोहर है और तुम अपनी तमीज़,सभ्यता,शिष्टाचार वगैरह..वगैरह...जो अभी तुम्हें मेरे जैसे विद्वान समझा कर गए हैं उसे स्वीकार कर लो...हमारी नीयत पर सवाल उठाओगी या हमें आइना दिखाने की कोशिश करोगी तो तुम्हें सरे आम वेश्या कह डालेंगे , हमें चिंता नही कि आने वाले समय में बेटियाँ गालियों के पितृसत्तात्मक चरित्र को समझने लगेंगी और इसके प्रति सहज हो जाएंगी क्योंकि हमारी बेटियाँ , बहुएँ ,पत्नियाँ हमारा चलित्तर खूब समझती हैं और पंगा नही लेतीं, वे हमारे कब्ज़े मे हैं, और उन्हें कब्ज़े मे रखना भी हमें आता है,अब बताओ , क्या तुम गिर सकीं मेरे बराबर ? नहीं न !हमे पता था पतन मे हमारा मुकाबला नही है। अब भी मान लो और गाली चर्चा छोड़ दो , यह तुम्हारा इलाका नही,देखो हम बस एक बार तुम्हें गरिया दें तो तुम आहत हो जाओगी , हम ऐसी कोमलांगिनियों को आहत नही करना चाहते फिर भी तुम ज़िद ठाने थीं तो लो यह भेंट कोठे पर बैठ जाने की सलाह स्वरूप तुम्हारे लिए। "
विशेष :1. तर्क का नितांत अभाव , बहस की कतई गुंजाइश नही ।
2. जानकारी का अभाव
3.दीप्ति की पोस्ट से चोखेर बाली , घुघुती बासूती, नारी सभी ओर विरोध के ही तो स्वर उठ रहे हैं ,चिट्ठाचर्चा मे पहली बार नही हुआ।
4.वेश्यावृत्ति का भारत में उदय आधुनिक युग की घटना नही , मानव सभ्यता के आरम्भ से है। न ही यह पश्चिम का प्रभाव है। वेश्यावृत्ति तो एशिया महाद्वीप की खासियत है।पश्चिम में इसे छिपाया नही जाता। लेकिन भारत जैसे परिवारवाद, नैतिकतावादी समाज मे इसका स्वरूप पश्चिम से अधिक भयंकर है।यहाँ के पुरुष पारिवारिक मूल्यों को बहुत महत्व देते हैं लेकिन परिवार से उनका मतलब परिवार के स्थायित्व से है ,यानि तलाक न हों , न कि पत्नी के प्रति वफादार होने से।इसलिए यहाँ की यौन संहिता का आडम्बर झूठा है।
सन्दर्भ ग्रंथ :
लुईज़ ब्राउन की किताब "यौन दासियाँ: एशिया का सेक्स बाज़ार"
वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली,2005
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20 comments:
नारी को नारी की जगह दिखानी बहुत जरुरी हैं . और नारी को ये जगह केवल और केवल उसके शरीर को याद दिला कर ही दिखाई जा सकती हैं .
विषय कोई भी हो , बहस किसी भी चीज़ के ऊपर हो लेकिन अगर बहस
पुरूष और स्त्री मे होगी तो पुरूष बिना स्त्री के शरीर की बात किये उसको कैसे जीत सकता हैं क्युकी वो सोचता हैं की
"नंगा कर दो फिर देखे साली क्या करती हैं , बहुत बोल रही हैं "
इस लिये जरुरी हैं की हम अपनी बेटियों को "नंगा " किये जाने के लिये मानसिक रूप से तैयार कर दे ताकि आने वाली पीढी की बेतिया अपनी लड़ाई नंगा करने के बाद भी लड़ सके और ये समझ सके की जो उन्हे नंगा कर रहा हैं वो उन्हे नहीं अपने आप को "नंगा ' कर रहा हैं .
२ साल से हिन्दी ब्लोगिंग मे हूँ और यही देख रही हूँ सभ्य और सुसंस्कृत लोग कैसे अपने पुरूष होने को प्रोवे करते हैं . लेकिन तारीफ़ करनी होगी ब्लॉग लेखन करते पुरुषों की क्युकी उनमे एका बहुत हैं और कहीं से भी एक दो आवाजो को छोड़ कर चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद की टिपण्णी के विरोध मे कोई आवाज नहीं आयी हैं पुरूष समाज से . क्या मौन का अर्थ स्वीकृति हैं सुजाता ??
20/20
I just saw this whole debate. And Sujata you have done a wonderful job. I agree 100% with your stand.
अफलातून जी , स्वप्नदर्शी जी , धन्यवाद । मुझे तो पूरे नम्बर मिले पर हमारा समाज फेल हो गया। और रचना जी ने रिपोर्ट कार्ड भी सामने रख दी है।
मुझे बहुत दुःख हुआ सुजाता जी की आपको यह सब सुनना पड़ा ..जाने कैसे - कैसे लोग होते हैं.वैसे मैंने भी काफी सुना था साईं ब्लॉग प्रकरण में चोखेर बालिओं की यही नियति है ..छोडिये भी ऐसे तर्कहीन दोगले लोगों को.वैसे यह भी अच्छा हुआ की उनकी मन की बात सबके सामने आ गई .
और उससे भी अच्छा हुआ की एकता क्या होती है यह नारीओं ने पुरुषों से प्रेरणा लेकर सिख लिया.
ग़ालिब बुरा न मान जो वाइज बुरा कहे,
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे!!
यह अच्छी उभयपक्षीय सहिष्णुता है ! बनाएं रखें इसे !
मेरी टिप्पणी को लेकर कुछ गलतफहमी फैलाई जा रही है। जब गालियों की बात उठी और कुछ सशक्त महिलाओं ने कहा कि हम भी पुरुषों की तरह छूट ले सकते हैं तो मेरी प्रतिक्रिया थी कि उन्हें कौन रोक सकता है। ज़रूर कीजिए और आगे बढिए।
सुजाता जी के विचार हैं कि-
"जैसे स्वाभाविक इच्छा किसी पुरुष की हो सकती है -सिगरेट पीने ,शराब पीने , दोस्तों के साथ ट्रेकिंग पर जाने,अपने करियर मे श्रेष्ठतम मुकाम तक पहुँचने और उसके पीछे जुनून की हद तक पड़ने,या फ्लर्ट करने, या गाली देने, या लड़कियों को छेड़ने ,या गली के नुक्कड़ पर अपने समूह मे खड़े रहकर गपियाने ...............
ठीक इसी तरह ऐसे या इससे अलग बहुत सारी इच्छाएँ स्त्री की स्वाभाविक इच्छाएँ हैं।
"जब आप भाषा के इस भदेसपने पर गर्व करते हैं तो यह गर्व स्त्री के हिस्से भी आना चाहिए। और सभ्यता की नदी के उस किनारे रेत मे लिपटी दुर्गन्ध उठाती भदेस को अपने लिए चुनते हुए आप तैयार रहें कि आपकी पत्नी और आपकी बेटी भी अपनी अभिव्यक्तियों के लिए उसी रेत मे लिथड़ी हिन्दी का प्रयोग करे और आप उसे जेंडर ,तमीज़ , समाज आदि बहाने से सभ्य भाषा और व्यवहार का पाठ न पढाएँ। आफ्टर ऑल क्या भाषा और व्यवहार की सारी तमीज़ का ठेका स्त्रियों ,बेटियों ने लिया हुआ है?”
यह प्रसन्नता की बात है कि इस छूट को लगभग सभी लोगों ने नकारा है जिनमें सिधार्थ ने कहा है कि "उम्मीद के मुताबिक प्रतिक्रियाएं इस छूट के विरुद्ध रही। मनिशा जी ने भी कहा है कि महिलाओं को इस तरह का सशक्तिकरन नहीं चाहिए जिससे वो पुरुषों की बुराई को अपनाएं।
मैं आज की चिट्ठाकार विवेकजी का आभारी हूं जो उन्होंने इस संदर्भ के सभी चिट्ठे एक जगह जमा करके सुविधा पहुंचाया। संदर्भ से काट कर बात का बतंगड बना कर चरित्रहनन करना सरल है, बात को समझना अलग बात है।
सुजाताजी, जिस व्यक्ति में तर्क अपनी संवेदना, मानवता, साहस और विवेक से आए हैं वो आपको छोड़कर भागने वाला नहीं। अगर आपको छोड़ेंगे तो इसका मतलब होगा कि वे अपने आप से भाग रहे है। क्योंकि मानवता ही वह शय है जो व्यक्ति को हर मुद्दे पर बार-बार सोचने को मजबूर करती है फिर चाहे वह मुद्दा नारीमुक्ति हो कि समलैंगिकता, लैंगिक विकलांगता हो या चमड़ी के रंग से जुड़े मुद्दे, दलित-शोषण हो या धार्मिक कट्टरता। दूसरे, यह डगर इतनी आसान भी नहीं है। अभी हमने देखा कि किस तरह वामपंथिओं तक ने तसलीमा को देश छोड़ने को मजबूर कर दिया। तीसरे, ऐसे भी उदाहरण हैं जब (यह मैंने किसी सीरियल में देखा था, शायद ‘‘भारत एक खोज में’’) एक पुरुष, राजा राम मोहन राय, सती-प्रथा का विरोध कर रहा था और उसके घर की औरतें उसे ‘‘धर्म-भ्रष्ट’’ कहकर उसके पास भी नहीं बैठती थीं, मगर वह फिर भी लगा रहा। यानि कि लगे रहो मुन्ना भाई।
सी एम परशाद ,
आपकी टिप्पणी बहुत स्पष्ट है , इसे लेकर गलतफहमी किसी को है तो वह आप खुद हैं। आप रेड लाइट इलाका खोलने के लिए मुझे जो सुझाव दे रहे हैं वह किसी भी तरह आप जस्टीफाई नही कर सकते।मेरी पोस्ट से लाइने अलग कर कर के आप ही उन्हें आउट ऑफ कॉंटेक्स्ट इस्तेमाल कर रहे हैं ताकि आप अपना मनचाहा अर्थ उसमे से निकाल सकें।आप तो केवल टिप्पणियाँ देते हैं ,फिकरा कसने की तर्ज़ पर!
अरविन्द मिश्रा जी, संजय जी ,लवली ,शाश्वत जी
हौसला अफज़ाई के लिए बहुत शुक्रिया !
पूरे समूह को नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएँ!
सी.एम.प्रसाद जी,
यदि आपकी भाषा आपके विचारों का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर सकी है तो इसे स्वीकार करके सुधार लेने में कोई हर्ज नहीं है। इससे कोई मानहानि नहीं होगी। वैसे भी भाषा में सुधार की गुन्जाइश हमेशा बनी रहती है।
लेकिन अगर आपके विचार वही हैं जो उक्त वाक्यों से स्पष्ट होते हैं तो निश्चित रूप से आप उस पाशविक विरासत को ढो रहे हैं जो पिछले तीन चार दिनों से ब्लॉग जगत में जुगुप्सा फैला रही है। विषय वस्तु चाहे जो भी हो उसे प्रस्तुत करने वाली भाषा में संयम और शिष्टाचार का होना आवश्यक है। अन्यथा विषयान्तर और अनर्गल विवाद अपरिहार्य हो जाता है।
इन दोनो ही स्थितियों में उचित होगा कि आप वस्तुनिष्ठ ढंग से अपना और अपनी टिप्पणी का मूल्यांकन स्वयं करे और यदि कर सकें तो एक सकारात्मक सोच के साथ अपनी बौद्धिक यात्रा को आगे बढ़ाएं। विघटन की प्रवृत्तियाँ तो यूँ ही प्रचुर मात्रा में नकारात्मक जोर-आजमाइश में लगी हुई हैं।
क्षमा करें, कदाचित् इसे व्यर्थ का ‘उपदेश’ कहकर खिल्ली भी उड़ाई जाय।
आइये नए साल पर हम सब मिलकर ये प्रण करें की गालियों से ख़ुद को दूर रखेंगे|
(वैसे सुजाता जी की पोस्ट का असर तो हुआ है, जब भी कोई गाली निकालने वाला होगा, उसे चोखेर बाली की याद जरूर आएगी!)
आप सभी लोगों को नया साल मुबारक|
सुजाता जी,
नए साल में औरतों के मसअलों से जुड़ा एक स्तम्भ शुरु कर रहा हूँ ‘‘दुनिया बसाऊँगी तेरे घर के सामने।’’ चाहता हूँ कि इंस स्तम्भ का ‘‘उदघाटन’’ आप करें। यानि कि पहली टिप्पणी आप करें। क्या आप मेरा आमंत्रण स्वीकार करती हैं। मैं खुदको गौरवान्वित महसूस करुंगा।
संजय जी आपको नए ब्लॉग और नए साल की बधाई|
संजय जी ,
मुझे आमंत्रण देने के लिए धन्यवाद । ज़रूर टिप्पणी करूंगी ।
स्तम्भ के नाम को लेकर मन मे ज़रा संशय है। आप उस पर पुन: विचार कर सकें तो बेहतर। इस शीर्षक में "तेरे" कौन है, यदि यह पुरुष के लिए है तो दिक्कत यह है कि स्त्री अपना संसार बसाती है तो उसका सन्दर्भ हमेशा पुरुष ही क्यों होगा । साथ ही यह एक प्रतिस्पर्द्धा की भावना भी दर्शाती है- "तेरे घर के सामने", आमने-सामने वाली बात आ जाती है। दर असल स्त्री जो पाना चाहती है वह पुरुष की होड़ करने का अर्थ लगाकर कभी सही समझ नही जा सकता ,ऐसा मुझे प्रतीत होता है।इन कारणों पर गौर कर सकें तो बहुत अच्छा होगा।
सुजाताजी,,
मैं कोई बहानेबाज़ी नहीं करुंगा। ‘तेरे’ से मतलब पुरुष से ही है। मैं आपकी बात से सहमत भी हूँ। फ़िर भी मेरे मन में जो बात थी वो तो कह ही दंू। निहितार्थ यह भी था कि तुमने सिर्फ अपने तक सीमित रहकर घर बसाया है जो कि पितृसत्ता या पुरुष-सत्ता का प्रतीक है। मै एक खुली हुई दुनिया बसा दूंगी जहाँ सब बराबर होंगे। दूसरे, मेरे मन में अपने स्तम्भों के शीर्षकों को ब्लाॅग (संवादघर) के नाम से जोडे़ रखने का लालच भी था (मसलन व्यंग्य-कक्ष)। साथ ही मैंने उसके लिए एक लोगो (प्रतीक-चिन्ह/चित्र...वैसे मुझे यद नहीं आ रहा इसके लिए सही शब्द क्या होता है।) भी बना डाला है। पहले मैंने स्तम्भ के लिए ‘‘सीढ़ियों पर’’ और ’’हटी है चिलमन, खुला है आंगन’’ जैसे नाम भी सोचे थे। बहरहाल, फिलहाल अगर आप अन्यथा न लें तो, इसी शीर्षक से शुरु कर सकते हैं, बाद में आपकी सहमति से शीर्षक बदल लेंगे। इंस पूरे प्रकरण में फायदे की बात यह है कि शुरुआत आपकी शीर्षक पर की गयी इसी टिप्पणी से की जा सकती है। बादकी आपकी टिप्पणी ‘‘समापन-उद्घाटन’’ होगा। (वैसे क्या ऐसी बहसों का कभी समापन हो सकता है जो अभी ठीक से शुरु भी नहीं हुई!)
तो क्या आप सहमत हैं?
आमंत्रण स्वीकार करने के लिए धन्यवाद।
सुजाताजी!
नमस्कार।
नव वर्ष के आगमन पर मै आपको ढेर सारी शुभकामनाये प्रेषित करता हु। आप नये वर्ष मे और शसक्त बनकर समाज देश के लिये इसी शक्ति से अपना कार्य करे, ईश्वर से मेरी यही प्रार्थन है। सफलताओ को प्राप्त करे। विजय बने।
हे प्रभु यह तेरापथ के परिवार कि ओर से नये वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये।
कल जहॉ थे वहॉ से कुछ आगे बढे,
अतीत को ही नही भविष्य को भी पढे,
गढा है हमारे पुर्वजो ने सुनहरा इतिहास ,
आओ हम उससे आगे का इतिहास गढे
2>>>>>>>>>
पुरब मे हर रोज नया ,
सूरज अब हमे उगाना है।
अघिकारो से कर्तव्यो को,
ऊचॉ हमे उठाना है।
ज्ञान ज्योति से अन्तर्मन,
के तम का अब अवसान करना है।
छोडो सहारो पर जीना,
जिये विचारो पर अपने।
सही दिशा मे शक्ती नियोजिन,
करे फले सारे सपने।
स्वय बनाये राह,
स्वय ही चरणो को गतिमान करे।
जय हिन्द
संजय जी ,
समापन तो नही होना चाहिए किसी भी विमर्श का...और यह भी सही है कि ये विमर्श अभी शुरु भी ठीक से कहाँ हो पाए हैं।विमर्श और चिंतन चलते रहना चाहिए।
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