"बलात्कार का हर्जाना " और "सीढीयों पर मौत " को दो किश्तों की तरह देख रही हूँ । और कहना चाहती हूँ, दोनों पोस्ट कुल मिलाकर एक एकहरी सोच जो हमारे इस अमानवीय समाज मे व्याप्त है उसी का विस्तार है, और उसी को नए तरह से शब्दजाल मे पिरोकर परोसने की कोशिश है, जिसे देखकर तनिक आश्चर्य होता है, बहुत नही!!! दोनों ,का मिलाकर लब्बोलुबाब ये है, " पीड़ीत अगर अपना बचाव न कर सका, और जिंदा बच गया तो ये उसका नैतिक पतन है, अगर उसने हर्जाना स्वीकार किया
तो भी नैतिक पतन है। और सुझाव ये कि लड़कर मर जाओ। अगर इस तरह की दुर्घटना के बाद खुदा न खास्ता घर लौटना हुया तो वहाँ कोई सहानुभूती या फ़िर लड़ाई मे सहयोग की अपेक्षा न रखो। यही सब तो होता आया है, इसमे नया और मानवीय क्या है?
जो बात प्रतीश और संजय ने उठाई है, वों इस एकहरी सोच की सही काट है। बलात्कार की घटनाओं मे कमी स्त्रीयों के किसी भी तरह के आचरण करने से काबू मे नही आ सकती (चाहे वों बुर्का पहने, रात-बेरात घर से बहार न निकले, या फ़िर हथियारों से लैस होकर सड़क पर निकले)। ये एक सामाजिक समस्या है, और इसकी जड़े भी इसी व्यवस्था मे है।, चाहे अनचाहे स्वीकृति भी। और सबसे आसन तरीका ये है की दोष पीड़ीत पर मढ़ दिया जाय। और अपनी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से आसानी से मुह मोड़ लिया जाय।
बलात्कार के तमाम पहलू है जिन पर बहुत कुछ बोला-लिखा जाता है, जिसमे नर होरमोंस पर दोशोरोपन से लेकर, स्त्रियों का व्यवहार, वेश भूषा चपेट मे आती है। पर इसका एक महत्तवपूर्ण पक्ष ये है, कि हमारे समाज मे माता-पिता, नाते रिश्तेदार, और दोस्त, तीनो जिन्हें पीड़ीत का संबल बनाना चाहिए, वों उसका साथ छोड़ देते है। कम से कम इस अर्थ मे कि कानूनी लड़ाई लड़ना नही चाहते और समाज मे अपनी रुसवाई से डरते है। इसीलिये बलात्कार के आघात से कम और अपनो की कायरता और उपेक्षा से उपजी असहायता अक्सर पीड़ीत को आत्महत्या की तरफ़ धकेलती है। समाज, पास पड़ोस, और स्त्री के प्रति एक गहरा अमानवीय नजरिया कि बलात्कार की पीडीता, विधवा और तलाकशुदा स्त्री एक झूठी थाली है, न
कि एक मनुष्य। योंशुचिता और उसके आधार पर स्त्री को हाशिये पर फेंक देने के लिए समाज जिम्मेदार है। जब तक ये स्थिती रहेगी, पीडीत कैसे सिर्फ़ अपने बूते और अपनी सोच के बूते इस समस्या का हल ढूँढ सकता है? इससे पहले कि बलात्कार की पीड़ीता ये मानने लगे कि ये एक मात्र दुर्घटना थी, उसके परिवार को, और वृहतर समाज को इस मूल्य को अपनाना पडेगा। बलात्कार स्त्री और उसके परिवार के लिए सामाजिक कलंक है, और जब तक सामाजिक सोच नही बदलेगी, खाली पीड़ीत की सोच बदलने की बात से क्या होगा?
धीरे-धीरे ही सही पर हमारे समाज मे बदलाव आए है, और
प्रिदर्शनी मट्टू के पिता के जैसे पिता भी हमारे देश मे है, जिन्होंने बेटी की मौत के बाद भी न्याय के लिए संघर्ष किया, और अपराधी को सजा हुयी।
भावरी देवी के पति भी है, जिन्होंने अपनी पत्नी का साथ दिया। मेरी नज़र मे यही एक अभूतपूर्ण पहल हमारे जनतंत्र मे हुयी है, जिसमे एक आम, बूढा पिता, और परिवारजन , एक गरीब ग्रामीण, अहिंसक तरीके से और जनतंत्र का इस्तेमाल करके न्याय पाने मे सक्षम रहे है। पर इन सफलताओं का सहरा सामाजिक भागीदारी को जाता है, केवल एक अकेले व्यक्ति और परिवार के लिए ये सब अपने बूते करना मुमकिन नही है।
क्या किसी को ये भ्रम है कि पीड़ीत व्यक्ति बलात्कार के लिए ख़ुद को दोषी मान सकता है?जिस पर राजकिशोरजी और अनुराधा की बहस है कि स्त्री अपना शरीर पुरूष से छिपाती है, और शरीर पर परपुरुष के छू जाने मात्र से विचलित होती है, और इसी मे अपना शील गया समझती है। और अगर इस पर काबू पा ले तो बलात्कार की पीडा कम हो जायेगी। अगर ऐसा होता तो पश्चिमी देशो मे जहा काफी हद तक यौन शुचिता का भ्रम टूटा है, वहा बलात्कार की पीडीत स्त्रीयों और योन हिंसा को झेलने वाले बच्चों का दर्द कुछ कम होता। कम से कम इन देशो ने इतने गहरे जाकर, न सिर्फ़ बलात्कार, बल्कि सेक्सुअल हरासमेंट के क़ानून कई परतों मे बने है, जिनमे हाव-भाव, बॉडी लंग्वैज़, भाषिक हिंसा, तक तमाम आयामों को परिभाषित किया गया है।
योंशुचिता से छुटकारे के बावजूद मानसिक पीडा बहुत गहरे वहां भी है। और ये पीडा इसीलिये है की इंसान का अस्तित्व कुचला जाता है, एक असहायता के बोझ, और मनुष्य का सिर्फ़ एक वस्तु बन जाने का अहसास इससे गहरे जुडा है. दूसरा उदाहरण, पुरुषो के लिए समाज मे योन शुचिता के मानदंड स्त्री के जैसे नही है, पर फ़िर भी अगर "सोडोमी" का शिकार हुए बच्चे जो लिंग से पुरूष है, इसे सिर्फ़ शारिरीक दुर्घटना की तरह भूल जाते है?
बलात्कार की रोशनी मे नही,
बल्कि मनुष्यता की सम्पूर्णता की रौशनी मे इस तथ्य को खुलकर स्वीकार करने की ज़रूरत है की योनिकता और सेक्सुअल व्यवहार,
और उससे जुड़े मानव अनुभव,
हमारे मन,
शरीर और समस्त व्यक्तित्व पर बहुत गहरा,
और चौतरफा असर डालते है।
और किसी भी तरह का अन्याय,
जबरदस्ती,
और निजता का उलंघन जो मनुष्य के बेहद निजी योनिक व्यवहार से जुड़े है,
उनकी शिनाख्त इसी के तहत होनी चाहिए।
भले ही सामाजिक रूप से ये कितना ही,
अवांछनीय विषय हो! और अगर ऐसी घटना से पीड़ीत को अपने काम मे हर्जा होता है, स्वास्थ्य मे समस्याए आती है,
तो हर्जाना उस नुक्सान का ज़रूर मिलना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा, और हरजाने के साथ साथ कडा कानूनी दंड मिलना चाहिए।
या खुदा न खास्ता गर्भ और अनचाहे बच्चे पैदा हो जाए, तो उनके पालन की जिम्मेदारी भी पुरूष पर होनी चाहिए।
ये सिर्फ़ पुरुषो के दिमाग का फितूर है, कि स्त्री पुरूष स्पर्श से असहज हो जाती है, और ख़ुद को योनिकता के अर्थ मे अपवित्र मानती है। मैं फिलहाल किसी ऐसी स्त्री को नही जानती जिसका शरीर जाने अनजाने और मजबूरी मे हजारो पुरुषो के शरीर से न टकराया हो। पर-पुरूष के रोज़-ब-रोज़ के स्पर्श की आज की स्त्री अभ्यस्त हो गयी है, और पहले भी हमारी दादी नानिया अभस्य्त रही है। कोई नई बात नही है।
रोज़-रोज़ की बसों मे, हवाई जहाज़ की तंग सीटो मे भी, भीडभाड से भरे बाज़ारों मे, घरों मे सब जगह, नाते रिश्तेदारो और दोस्तों को गले लगाने मे भी। स्पर्श किसी एक तरह का नही होता, स्पर्श और स्पर्श मे फर्क है। आत्मीयता का, दोस्ती का स्पर्श, प्रेम का वांछनीय है, और भीड़ का तो आपकी इच्छा हो न हो , आपको भुगतना ही है, अगर आप "असुर्यस्पर्श्या"
नही है तो। इन स्पर्शो की तुलना बलात्कार के या फ़िर योनिक हिंसा से उत्प्रेरित स्पर्शो से नही की जा सकती है। और अन्तर इन स्पर्शो मे सिर्फ़ इंटेंशन का है, शारीरिक एक्ट का नही!!
शारीरिक से बहुत ज्यादा बलात्कार पहले एक अस्वस्थ, रोगी, और अपराधी मानस मे जन्म लेता है, और ऐसी परिस्थिति जब उसे कम से कम अवरोधों का सामना करना पड़े, शारिरीक रूप लेता है। इसीलिये, बलात्कार की घटनाओं से भी ज्यादा सर्वव्यापी वों अपराधी मानस है, जिसकी शिनाख्त बिना इस व्यवस्था और पारंपरिक सोच को समझे बिना नही की जा सकती है। और इसकी रोकथाम भी, सामाजिक सोच और स्त्री के प्रति समाज का नज़रिया बदलने के ज़रिये हो सकती है, और तत्कालीन उपाय क़ानून व्यवस्था को सक्षम बना कर और तमाम छोटे-बड़े हर तरह के बुनियादी स्पोर्ट सिस्टम को बना कर किए जा सकते है जो बलात्कार की राह मे लगातार रोड़ा खडा करते रहे।बलात्कार से भी ज्यादा "
योन शुचिता"
और "
बलात्कार का खौफ"
हमारे समाज मे इतना व्याप्त है,
की वों स्त्री और पुरूष दोनों से उनकी मनुष्यता छीन लेता है।
और कुछ हद तक हम सब अप्रत्यक्ष रूप से उसका शिकार हो जाते है।
स्त्री-
पुरूष के सम्बन्ध विशुद्द रूप से यौनिक संबंधो के दायरे मे बंध जाते है,
उनमे एक मनुष्य की तरह दोस्ती की,
सहानुभूती की और कुछ हद तक एक स्वस्थ "
कम्पीटीशन"
की तमाम गुंजाईश ख़त्म हो जाती है।
एक दूसरे से सीखने की संभावनाए ख़त्म हो जाती है,
एक दूसरे के साथ खड़े होने की संभावनाए ख़त्म हो जाती है,
और कही न कही बहुत सी समस्याए जो सामूहिक भागीदारी से ही सुलझाई जा सकती है,
उनका मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।
ले देकर स्त्री और पुरूष अपना जीवन मनुष्य नाम के एक प्राणी का जीवन न जीकर "
अपने अपने लैंगिक कटघरों"
मे बिताने को बाध्य है। स्त्रीयों का अच्छा स्वास्थ्य, और उनकी देह मे थोडा रफ-टफ पना, मार्शल आर्ट की ट्रेनिग आदि बलात्कार की समस्या का समाधान नही है, पर ये कुछ हद तक उनके भीतर एक मनुष्य होने का विश्वास पैदा कर सकता है, और अपनी परिस्थितियों के आंकलन को इम्प्रूव कर सकता है। और शायद कुछ हद तक, स्त्री पुरूष के बीच खड़ी लैंगिक कटघरों की दीवारों को ढहाने का काम कर सकती है।