जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने !
पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है !
वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना !!
आकांक्षा
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15 comments:
इक्कीसवीं सदी की बेटी की आवाज बुलंद करती एक भावपूर्ण कविता. इस भावपूर्ण कविता हेतु आकांक्षा जी को बधाई.
पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है
........Bade uttam bhav hain.21th century ki ladki badal rahi hai.Is kavita hetu badhai !!
२१वीं सदी के प्रथम दशक का नौवाँ वर्ष...हर कुछ खिला-खिला, ताजगी लिए,उल्लास से भरपूर. इस परिवेश में यह कविता कर्तव्यों और अधिकारों के बीच एक दंद भी उत्पन्न करती है. अपने अधिकारों को लेकर आज की युवा नारी काफी सचेत है, तभी तो कभी सोशलाइट लोगों तक सीमित फेमिनिस्म आज नारी-सशक्तिकरण के रूप में धरातल पर उतर आया है.पर इस सशक्तिकरण की आड़ में नारी मोहरा भी बनी है और लोगों ने उसका दुरूपयोग भी किया है....जरुरत है इस दंद के बीच एक सामंजस्य भी कायम किया जाय, तभी २१वीं सदी की बेटी सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक-वैयक्तिक सभी स्तरों पर ज्यादा सशक्त होकर उभर सकेगी.
.........आप अच्छा लिख रही हैं, सोच में धार है, बरकरार रखें.
I wish all woman make this poem a "mulmantr"
very nice aakansha
keep it up
आशा और विश्वास की प्रतीक यह कविता आधुनिक सुशिक्षित आत्मनिर्भर नारी के विचारों का सटीक एवं सशक्त प्रतिनिधित्व करती है.Observations सटीक हैं,दृश्यानुभूति एवं वातावरण की ग्राहृाता प्रशंसनीय। बदलते हुए समय में बदलते हुए हालात का अच्छा भाव बिम्ब देखने को मिलता है।
21वीं सदी में जब महिलायें, पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, ऐसे में वर्षों से रस्मो-रिवाज के दरवाजों के पीछे शर्मायी -सकुचायी सी खड़ी महिलाओं की छवि अब सजग और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व में तब्दील हो चुकी है। अनचाहे और दहेज़-लोलुभ दूल्हों को लौटाए जाने से लेकर माता-पिता के अंतिम संस्कार से लेकर तर्पण और पितरों के श्राद्ध तक करने का साहस भी इन लड़कियों ने किया है, जिसे महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माना जाता रहा है। वस्तुत: सामाजिक व धार्मिक रूढ़ियों की आड़ में उन्हें गौण स्थान देना जागरूक महिलाओं के गले नीचे नहीं उतर रहा है। यही कारण है कि ऐसी रूढ़िगत मान्यताओं और परम्पराओं के विरूद्ध बदलाव की बयार चली है. कम शब्दों में अच्छी और सार्थक-सहज अभिव्यक्ति है.
बहुत भावपूर्ण रचना है अच्छा लगा पढ़कर। समाज को राह दिखने का जज्बा है.
ऐसी हर बेटी हो जाये तो फिर क्या बात है, बहुत सुन्दर भाव।
बहुत सुन्दर कविता.
आकांक्षा जी,माफ़ी चाहूँगा एक कविता के तौर पर आपकी रचना प्रभावित नही कर सकी.
पर,हाँ, इसके भाव अच्छे रहे.उम्मीद करना चाहिए कि आज की हर लड़की ऐसी ही हो,पर गुजारिश इतनी है कि कम से कम कुछ न्यूनतम मूल्यों का ध्यान भी रखा जाए,अगर समन्वय बन गया तो फ़िर क्या कहने.
आलोक सिंह "साहिल"
badhai
सही कहा
- लावण्या
आकांक्षा जी ! आपकी यह कविता पहले ही ''कादम्बिनी'' पत्रिका में पढ़ चुका हूँ. यहाँ पर पढ़कर और भी सुखद लगा. सिर्फ भाव ही नहीं, शब्दों के चयन स्तर पर भी आपकी रचनाधर्मिता का कायल हूँ. आशा करता हूँ कि अब इस ब्लॉग पर आपकी रचनाधर्मिता के नित् दर्शन होते रहेंगे. नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित....
ऐसी चेतना-संपन्न बेटियां ही सामजिक परिवर्तन को दिशा और गति दे सकती हैं। बधाई।
वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना !!
....lajvab hain kavita ke bhav.
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