उदास लड़कियाँ,
मोटी लड़कियाँ,
भैंगी लड़कियाँ,
छोटी लड़कियाँ,
काली लड़कियाँ,
चश्मे वाली लड़कियाँ,
सुड़क कर चाय पीती
छींकती खाँसती बीमार लड़कियाँ,
प्राइवेट पढ़ रही आर्ट की लड़कियाँ,
मुँहासों वाली सौ हज़ार लड़कियाँ,
दुमंजले झरोखों से झाँकती,
नज़र मिलते ही चेहरा ढाँपती लड़कियाँ,
मेंहदी से सफेद बाल रंगती
शॉल ओढ़े काँपती लड़कियाँ,
गोबर उठाती, उपले थापती
घास के गठ्ठर लेकर लौटती, हाँफती लड़कियाँ,
खचाखच बसों में सिमटकर नींबू चूसती खट्टी लड़कियाँ
दहलीजों पर गिट्टे खेलती मुल्तानी मिट्टी लड़कियाँ,
नुक्कड़ों की सीटी लड़कियाँ,
कतारों में लगी चींटी लड़कियाँ,
बच्चे पढ़ाती आँगनबाड़ी लड़कियाँ,
सलवार कमीज साड़ी लड़कियाँ,
सरकारी अस्पतालों की नर्स लड़कियाँ,
झाड़ती, पोंछा लगाती फ़र्श लड़कियाँ,
गाली देती लड़कियाँ
सिपाही लड़कियाँ,
कागज़ लड़कियाँ,
स्याही लड़कियाँ,
आत्मनिर्भर अकेली लड़कियाँ,
झुंड में पानी पीती सहेली लड़कियाँ,
सिन्धी, हरियाणवी, मारवाड़ी, मैथिली बोलती लड़कियाँ,
सहारनपुर, बलिया, संगरिया, छिंदवाड़ा की लड़कियाँ
न अख़बार में हैं,
न टीवी पर,
न सिनेमा में,
न किताब में,
न सिलेबस में,
न एटलस में,
न योजनाओं में,
न घोषणाओं में,
न उत्तेजनाओं में,
न कल्पनाओं में।
उफ!
सामने अब्बास मस्तान की एक फ़िल्म में
अपने वक्ष दिखाने को मरी जाती हैं
बिपाशा बसुएँ, समीरा रेड्डियाँ, कैटरीना कैफ़ें।
ताली पीट पीटकर हँसता है विजय माल्या।
भारत जनहित में जारी करता है
लम्पट पुरुष,
नंगी स्त्रियाँ
और चन्द्रकला, ब्रेक के बीच तुम्हारा क़त्ल!
Monday, January 5, 2009
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अनुप्रिया के रेखांकन
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18 comments:
स्थिति का सुंदर चित्रण-
हालात सुधारे कैसे?
बहुत ही सटीक विवरण...मेरा भी यही प्रश्न है, ये हालत सुधरे कैसे?
खचाखच बसों में सिमटकर नींबू चूसती खट्टी लड़कियाँ
दहलीजों पर गिट्टे खेलती मुल्तानी मिट्टी लड़कियाँ,
ये लड़कियॉं ..वो लड़कियॉं
ये हैं, लेकिन नहीं दीखती
वो नहीं हैं लेकिन बार बार दिखती
अख़बार में हैं,
टीवी पर,
सिनेमा में,
किताब में,
सिलेबस में,
एटलस में,
योजनाओं में,
घोषणाओं में,
उत्तेजनाओं में,
कल्पनाओं में।
मन को व्यथित करता विवरण। नारी को सिर्फ देह समझने वाली दुनिया का सही चित्रण....और क्या कहूँ सच कड़वा होता है...मन को छलनी करता है।
और मिटाने पर भी न मिटती लड़कियाँ
फिर फिर कोख में आती लड़कियाँ
बेटियाँ जन्मती, कम दहेज लाती लड़कियाँ
पुरुष जन्मती, उसकी सत्ता से उलझती लड़कियाँ।
पड़ोस के देश के कुछ इलाकों पर जो हो रहा है उसे देख, सुन, महसूस कर कल ही बेटियों पर एक कविता लिखी है, 'बेटियाँ'। पोस्ट नहीं हुई है।
घुघूती बासूती
बहुत सामयिक और सार्थक।
और मिटाने पर भी न मिटती लड़कियाँ
फिर फिर कोख में आती लड़कियाँ
बेटियाँ जन्मती, कम दहेज लाती लड़कियाँ
पुरुष जन्मती, उसकी सत्ता से उलझती लड़कियाँ।
sahi hai par dukhad hai..
सच्चाई बयान करती कविता। विडम्बना की गहरी पड़ताल है इसमें जो सोचने पर मजबूर और व्यथित करती है। साधुवाद।
truth of life..
क्या लिखते हो यार
और कहाँ कहाँ लिखते हो??
सब जीना चाहते हैं अपनी तरह, उन्हें सभ्यता की परिभाषा मत बताओ, वह नहीं सुनते!
---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम
तभी तो नही दिखती यह लड़कियां
क्युकी कभी सड़क पे मरती हैं किसी जयश्री की तरह
कभी घर में किसी आरुशी की तरह
और अक्सर तो कोख में ही ख़त्म हो जाती हैं यह लड़कियां !
तभी तो नहीं दिखती यह लड़किया
( वैसे भी जो बिकता है वही दीखता है...
क्या करे
बाज़ार है ....व्यापार है )
उफ!
सामने अब्बास मस्तान की एक फ़िल्म में
अपने वक्ष दिखाने को मरी जाती हैं
बिपाशा बसुएँ, समीरा रेड्डियाँ, कैटरीना कैफ़ें।
ताली पीट पीटकर हँसता है विजय माल्या।
भारत जनहित में जारी करता है
लम्पट पुरुष,
नंगी स्त्रियाँ
और चन्द्रकला, ब्रेक के बीच तुम्हारा क़त्ल!
...Bahut khub !!
अच्छे भाव.....
I wonder how many of the readers seriously felt sad about the problem and how many enjoyed the way the "imagination" has been painted.
You know I respect your Poems, but this one was a little disappointing.
RC
बहुत विचारोत्तेजक !
- आनंद
RC जी,
कविता के तौर पर मैं स्वयं भी इसे कोई उत्कृष्ट कविता नहीं समझता। हाँ, यदि आपको तुकबंदियों से बनावटीपन या कल्पना झलकती है तो मैं शायद यही कहूंगा कि कुछ बातों पर लोगों का ध्यान खींचना इतना आवश्यक होता है कि उन बातों को हल्का सा आकर्षक बनाकर कहना पड़ता है।
Gaurav,
Back to sqaure one.
Poetry is subjective !
RC
very thought provoking...
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