सरिता की शादी को तीन माह भी नही हुए थे , वह अपने मायके आयी । उसकी सहेलियाँ मिलने आयीं तो उसके हाथों पर नीले निशान देख हैरान थीं । पूछने पर सरिता ने कहा -"कुछ नही, गिर गयी थी " और सहेलियाँ हिदायतें दे कर अपनी हँसी-ठिठोली मे लग गयीं।उधर माँ ने पूछा- "बेटी खुश है न?" तो सरिता ने आँखें झुकाकर जवाब दिया "हाँ, माँ आपने इतना अच्छा ससुराल जो ढूंढ दिया मेरे लिए अब आप बिट्टू की पढाई पूरी करवाओ , उसे कुछ बनाओ , अकेले सारा बोझ उठा उठा कर ,ज़माने से लड़ते लड़ते थक गयी हो "सरिता ससुराल चली गयी वापस, अपने आँसू पीकर। उसने नौकरी करना शुरु किया ।दफ्तर मे भी शरीर पर जब तब निशान देख लोग पूछते तो वह कह देती -गिर गयी , खाना बनाते जल गयी, चक्कर आ गया था वगैरह ...मानो उसे भय हो कि मुझे लाचार देख दुनिया भी मेरा फायदा उठाएगी ,घर की बात बाहर आने से वह अपमानित महसूस करेगी उन औरतों के सामने जो अपनी अनिवर्सरी पर पति द्वारा दिए गए डायमंड्स का प्रदर्शन करते हुए फूली नही समातीं ।
1 1/2 साल बाद वह एक बच्ची की माँ बनी। लेकिन 40 दिन भी पूरे किए बिना चल बसी।
माँ रोई , अपनी , अपनी बेटी की, नातिन की किस्मत को बहुत कोसा, नातिन को मनहूस कहकर ससुराल वालों ने उसे नानी को ही थमा दिया।
समय गुज़र रहा था लेकिन पिछली बार मिली एक सहेली से रहा न गया , वह पूछ बैठी कि कहीं सरिता सताई तो नही गयी थी?कहीं यह मृत्यु हत्या तो नहीं ?
कहीं दूर दूर तक कोई सबूत नही था।ऑफिस वाले , पड़ोसी, अपनी माँ , सहेलियाँ सबकी नज़रों मे वह खुश थी ,उसने कभी नही कहा कि उसे पीटा गया था , उसे अपमानित किया गया था, उसे गर्भावस्था मे तरह तरह के शारीरिक मानसिक कष्ट दिए गए ,कि आठवें महीने मे संकट आ जाने पर उसे अस्पताल मे भर्ती नही कराया गया था ,बच्चा जन्मने पर उसे व बच्ची को उपेक्षित छोड़ दिया गया था,कोसा गया था। उसने किसी सहेली को कभी फोन पर दुख की दास्तान नही सुनाई, किसी को चिट्ठी नही लिखी।
कोई सबूत न होने से सरिता की मौत एक दुखद घटना मान कर भुला दी गयी।
काश पहली बार ही उसने शोर मचा दिया होता जो उसके पड़ोसियों ने अक्सर सुना होता।
काश माँ ने उसे भावनात्मक दबावों मे पाला-पोसा न होता,शिक्षा के साथ आत्मनिर्भरता की सीख भी दी होती।
काश वह ससुराल के अपमान की बजाए स्वाभिमान के बारे मे सोचती।
और मरना ही चुना था तो कम से कम कभी सच्चाई बयाँ करती चिट्ठी लिखी होती , फोन ही कर दिया होता।
कह देना बहुत ज़रूरी है
चुपचाप पिटने-सहने वाली स्त्रियों को समझना होगा और हमें उन्हें यह हौसला देना होगा ।
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31 comments:
kaash
maine bhi ek sarita aise hi khoi hai apni bhteeji is liye is dard ko jaanti hoon meri sanvednaaye uski atmaa ke saath hain aur akrosh is samaaj par hai
bahut sahi....ab chup rehne se kaam nahi chalega..
bole, lade apne adhikaaro ke liye..
विचारणीय पोस्ट!
बच्चो को बचपन से ही परवरिश में सिखाया जाना चाहिए.. परंतु आम तौर पर ये सब बेटियो को उनके ही माँ बाप बचपन से ये सीखा देते है.. लड़किया ससुराल जाने से पहले ही जान जाती है.. कि किसी भी अवस्था में उन्हे चुप रहना है..
यदि शुरू से ही उसकी परवरिश ऐसी ना होती तो ये हादसा ना होता.. हमे अपने बच्चो को निडर बनना सिखाना है..
अफसोस कि बहुत सी सरिताएँ ऐसे ही चली जाती हैं और दूसरी ओर कानून सबूत मागता है ,फिर दुखी होने और सोचने के सिवाय कुछ नहीं बचता..
सब से पहला काम है विवाह पूर्व लड़कियों का प्रशिक्षण। उन के लिए यौन शिक्षा के साथ साथ सामाजिक स्थितियों, स्त्री अधिकार और पहली बार हिंसा का शिकार होने पर क्या करना चाहिए इस की शिक्षा। इन्हें माध्यमिक शिक्षा में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
बीसियों बार काश, काश, काश !!!!!!!!!!!!!!!!लिखने के सिवा मेरे पास भी कहने को कुछ नहीं है। आप ने एक बहुत ही विषम समस्या की तरफ़ पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है।
अत्यंत दुखद प्रसंग। परन्तु ऐसी स्त्रियां करुणा की ही पात्र हो सकती हैं सम्मान की नहीं। अन्याय और अनाचार के सामने समर्पण उसे एक तरह से मौन सहयोग और प्रोत्साहन ही देता है। सरिता का पालन-पोषण करने वाले मां-बाप भी उतने ही दोषी हैं जितने उसके ससुराल वाले।काश!,काश!,काश! से काम चलने वाला नहीं है। सुजाता जी ने बिलकुल सही कहा है कि 'चुपचाप पिटने-सहने वाली स्त्रियों को समझना होगा और हमें(इसमें पुरुष भी शामिल हैं) उन्हें ये हौसला देना होगा।'
I have no compensation for Sarita.
Evil requires sanction of victim.
Sarita chose to be the victim.
She doesn't deserve my condolences.
ReasonForLiberty
bouth he aacha post kiyaa hai aappne yaar keep it up
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" घर की गरिमा को चाहरदिवारी में रखना" "देखना घर की इज्जत चौराहे पर न उछालना" "हमारी बेटी तो गऊ है" कब तक हम अपनी बेटियों को ऐसे संस्कार देते रहेगें, और जब तक देते रहेंगे सरिताएं मरती रहेगी। एक सीधा सा कायदा है किसी ने एक हाथ उठाया तो उसे इस कदर शर्मिंदा कर दो कि वह खुद अपना हाथ तोड़ने की बात सोचने लगे । और यदि बेशर्म हो तो खुद में हिम्मत रखें कि खुद पर उठे हाथ को तोड़ सके। बस यही शिक्षा, स्वाभिमान का मंत्र हमें अपनी बच्चियों में डालना होगा।
दब कर, सहमकर, सिसककर नहीं बल्कि अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर ही हम नारी सम्मान को बचा सकते हैं।
यहाँ एक मतान्तर है न सिसक कर माँ-पिता को चिट्ठी लिखने, अपने दोस्तों को दुखभरी दास्तां सुनाने की जगह घरेलू प्रताड़ना से पीड़ित महिलाओं को हल्ला बोलना चाहिए। गलत करने वाले को पूरी हिम्मत और स्वाभिमान के साथ बेनकाब करना चाहिए। क्योंकि मैंने जिंदगी में कई सरिताएं ऐसी भी देखीं हैं जिन्होंने दहेज या अन्य किसी कारण से होने वाली घरेलू हिंसा के बारे में कई बार परिजनों को बताया लेकिन आत्महत्या या हत्या ही उनके नसीब में आई। अपनी बच्ची को खोने के बाद बदहवास माँ-बाप बच्ची की दुखभरी जिंदगी के कागजी टुकड़े लेकर कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते-लगाते थक गए लेकिन.....
इसलिए यदि कभी भी आपके साथ किसी भी प्रकार की घरेलू हिंसा हो रही है तो चुप रहने की जगह पूरे होशोहवास में उसकी खिलाफत करें.....क्योंकि आपकी जिंदगी अलमोल है।
काश .................अंतर्मन से निकल रहा हैं काश,काश!की हर लड़की में इतनी हिम्मत होती की वह ग़लत का विरोध करती,काश!हर लड़की के माता पिता में इतनी हिम्मत होती की वो बेटी के दुःख दर्द को ज़माने के सामने कहते और उसका साथ देते ,काश! पढ़ी लिखी लड़किया इतनी सरल और सहनशील नही होती ..
काश !काश !काश.....................काश! की काश नही कहना पड़ता .
पहले मुर्गी कि पहले अंडा वाली बात है.
हमारे समाज में लड़कियां जन्म लेकर बोलना और समझने लायक होती हैं,तभी से उनके दिमाग में सबसे पहले यह डाला जाता है कि ,जहाँ
उन्होंने जन्म लिया है यह उनका अपना घर नही,जहाँ वे ब्याहकर जायेंगी ,वह उनका अपना घर होगा और वहां के सभी सुख दुख उसके अपने होंगे.लोकलाज,कर्तब्य और पाता नही किस किस बात पर सिर्फ़ और सिर्फ़ डरना सिखाया जाता है.जल्द से जल्द बिटिया को ब्याह कर कर्तब्यमुक्त होने को अभिभावक तत्पर रहते हैं.
ऐसे में यदि उसके तथाकथित अपने घर में उसके साथ कोई दुर्व्यवहार भी होता है तो ,वह लडकी न तो प्रतिकार को हिम्मत जुटा पाती है और न ही उस घर का आसरा संजो पाती है,जहाँ हमेशा उसे मेहमान समझा गया है...
जबतक समाज बेटियों के प्रति अपना नजरिया नही बदलेगा,ऐसी घटनाएँ घटित होती ही रहेंगी.
I am very curious do you use a normal keyboard to type such beautiful Hindi? This is an excellent blog.
Good and meaningful post.
RC
हमे अपने बच्चो को निडर बनना सिखाना चाहिये....
दिनेश जी की बात भी गौर करने लायक है
कुछ दिन पहले की बात है। अपनी बेटी की सगाई की रस्म में न्यौता देने आईं थी एक आंटी। मां को कह रही थीं कि बेचारे लड़के वाले सीधे हैं और ज्यादा दान दहेज नहीं मांग रहे हैं। कम दहेज में बात बन रही है इसलिए अगले ही महीने शादी कर देंगे मीनू की। मेरे टोकने पर कि दहेज मांग तो रहे ही हैं ना, इसमें कौन सा सीधापन है आदि इत्यादि, उनका कहना था कि बस डेढ़ लाख की बात है वरना हमारे यहां (वे बिहार से हैं)5-7लाख से कम में बात नहीं बनती। ....
मुझे याद है, मां बता रहीं थीं कि आंटी के पांवों में सूजन की शिकायत बहुत बढ़ गई है और कपड़े धोने जैसे पानी के काम करना उनके लिए खतरनाक हो उठा है। इसलिए वॉशिंगमशीन खरीदने की सलाह मां ने उंहें दी थी मगर वे मना कर देती हैं। आप लोग जानते हैं वे कुछ हजार की मशीन नहीं खरीद रही हैं क्योंकि..''बेटी की शादी के लिए जितना बच सके बचाना है।''
बीए पास मीनू भी ये सब जानती है। वह भी पैसे बचा रही है। बचाया पैसा मां के इलाज या रोग की रोकथाम के लिए काम नहीं आएगा...दहेज का पैकेज बनाने के काम आएगा..
...और हम कहते हैं कि हम दिल्ली में पली बढ़ी पढ़ी लड़कियां हैं। जागरूक लड़कियां।
कुश की टिप्पणी से इत्तेफाक
ऐसी कोई एक सरिता नहीं है, गौर करने लगेंगे तो बिल्कुल अपने आसपास ही ऐसी बहुतेरी मिलेंगी। यह भी सब जानते हैं कि मरने तक सहन करने की उनकी सोच के पीछे दरअसल उन्हें बङा करने के दौरान घुट्टी की तरह पिलाई गई पुरातन शिक्षाएं हैं। जब तक लङकियां खुद की अहमियत नहीं समझेंगी हालात नहीं बदलेंगी। भ्रूण में ही लङकियों को खत्म करने वाले मां-बाप से भरे हमारे समाज में किसी और से किसी भी तरह की अपेक्षा रखना बेकार है। अपने हक के लिए, अपने जीवन के लिए लङकियों को खुद लङना होगा। अन्याय होने पर चुप रहने की नहीं चिल्ला कर सब को बताने की जरूरत है।
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चुपचाप पिटने-सहने वाली स्त्रियों को समझना होगा और हमें उन्हें यह हौसला देना होगा ।...bahut sahi kaha apne.
बहुत हुआ 'काश!!' बहुत हुए -'करने चाहिए' आदि-इत्यादि। हम सब मोटे तौर पर इस और ऐसी दूसरी मिलती-जुलती घटनाओं के कारण-निदान और इलाज से सैद्धांतिक रूप से वाकिफ हो चुके हैं। अब ईमानदारी से, अपने आप से ये सवाल करें कि अपने बच्चों को हम इस बारे में लगातार सकारात्मक ढंग से सचेत और शिक्षित कर रहे हैं? लड़कियों को सक्षम, बोल्ड, आत्मनिर्भर इत्यादि बनाने के साथ-साथ लड़कों को भी सिखा रहे हैं कि उन्हें लड़कियों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए? अपने परिवार में महिलाओं के सम्मान का ख्याल रख रहे हैं, जिसे देखकर अगली पीढ़ी़ बड़ी बारीकी और तेजी से सामाजिक व्यवहार सीखत है? अपने आस-पास कभी ऐसी मदद की पुकार पर सकारात्मक कार्रवाई कर रहे हैं? अपने घर-परिवार में हो रही ऐसी घटनाओं के लिए अपने दिमागी एंटीना को सजग रखे हुए हैं या (दुर्) घटना के बाद ही याद करते हैं कि 'ऐसा कुछ होता समझ में तो आ रहा था, पर इतना बुरा होगा, सोचा ही न था'?
दरअसल जानकारी हो जाने के बाद हम जागरूक होने के स्तर तक ऊंचा उठें, यही समय की दरकार है। वरना यह और ऐसे दूसरे किस्से और उस पर टिप्पणियां बार-बार चोखेर... और दूसरे मंचों, चर्चाओं में दोहराए जाएंगे, और बस... ।
सुजाता जी,
एक टिप्पणी करने के बाद आप दोबारा सम्वादघर मे नहीं आयीं। काफी इंतज़ार के बाद टिप्पणी पर टिप्पणी लेकर मैं खुद ही हाजि़र हो गया। लीजिए पढ़िए, गुनिए और कुछ कहिए-
सुजाता जी, आज से कोई 8-9 साल पहले एक मनोचिकित्सक का साक्षात्कार लिया था। एक प्रश्न यह भी पूछा था कि बलात्कृत स्त्री को बलात्कार के बाद की मानसिक स्थिति से छुटकारा दिलाने के लिए क्या करना चाहिए ? आशा के विपरीत उन मनोचिकित्सक ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण जवाब बल्कि समाधान सुझाया था। कहा कि हमें यानि समाज को और उस स्त्री को भी बलात्कार को एक दुर्घटना की तरह लेना चाहिए। जिस तरह बीच रास्ते एक ट्रक या एक जानवर अचानक हम पर हमला कर देता है जिसका न तो हमें पहले से पता होता है, न हमारी ऐसी कोई नीयत होती है न इसमें हमारा कोई दोष होता है ठीक उसी तरह बलात्कार की घटना है।
कहना मैं यह चाहता हूँ कि देह मुक्ति के कई आयामों में से एक आयाम यह भी है। जिस तरह स्त्री मुक्ति के कई आयामों में से एक देह-मुक्ति है। आप ही सोचिए, हर सामाजिक व्यवहार, आवागमन के तहत जो चीज़ स्त्री को बार-बार हीनता-बोध, अपराध-बोध, लज्जा-बोध/बोझ कराती है वो क्या है ? क्या देह से अलग इसका कोई उत्तर हो सकता है ! इंस हीनता, अपराध, शर्म आदि बोधों से जुड़े कारणों जैसे सामाजिक मान्यताएं, मर्यादाएं, स्त्री व पुरुष के लिए तयशुदा वस्त्र-भूषाएं व इन सब से जुड़ी समाज की मानसिकता को हम समझ सकें तो देह-मुक्ति के व्यापक अर्थ शायद हमें समझ आने लगेंगंे। मसलन देह से मुक्त स्त्री ही अदालत में खुलकर बता पाएगी कि बलात्कार के दौरान उसके साथ क्या-क्या किया गया। तलाक के मामले में ऐसी स्त्री ही खुलकर बता पाएगी कि किस तरह उसके साथ अप्राकृतिक कर्म किए गए। या कि किस तरह उसका पति स्वस्थ-साहचर्य में सक्षम था या नहीं। देहमुक्त स्त्री ही समझ और समझा पाएगी कि जानलेवा गर्मी के आलम में अगर मर्द-महाराज की तरह स्त्री भी कमीज़ उतारकर दो घड़ी सुस्ता लेगी तो आसमान नहीं फट पड़ेगा। कई बार तो इन्हीं ‘मर्यादाओं’ के चलते एक पुरुष द्वारा
स्त्री मरीज़ की या स्त्री द्वारा पुरुष रोगी की देख-भाल करना ही असम्भव हो जाता है।
कोई स्त्री या हमारी बेटी अपने फैसले लेते समय अपने समाज, संस्कृति, परम्परा, परिवेश, ट्रेनिंग वगैरह से निरपेक्ष कैसे रह सकती है!? क्या बेटे या पुरुष रह पाते हैं !? सभी को तो भीड़ के पीछे चलना, समाज से डरना सिखाया गया है।
फ़र्क बस यही है कि मर्द को जो मर्दानगी (?) के संस्कार दिए गए हैं वह उनके अनुसार चलता है और औरत को जो स्त्रीत्व के संस्कार दिए गए हैं वह उनपर चलती रहती है। इंस तरह तो सभी मोहरे ही नज़र आते हैं। जो आदमी दंगों के दौरान बलात्कार करता है क्या वह किसी का मोहरा नहीं होता ! और वह दूसरी स्त्री जो कि सिर्फ इसलिए इस बलात्कार पर खुश होती कि वह अन्य धर्म की है, क्या वह मोहरा नहीं है ! आखिर मल्लिका की उन्मुक्तता ही हमें मोहरा होना क्यूं लगती है !? शबाना, स्मिता, मीता या कोंकणा भी तो ऐसे दृश्य देती आयी है ! सिम्मी गरेवाल ने तो तीसियों साल पहले ‘‘सिद्धार्थ’’ में नग्न दृश्य दिया था। वजह शायद यह है कि मल्लिका वह पहली अभिनेत्री है जिसने अपने पक्ष में खुलकर तर्क देने शुरु कर दिए। एक पत्रकार ने जब उससे पूछा कि आपने तो टूपीस पहना है तो मल्लिका ने कहा कि हीरो ने तो वनपीस (सिर्फ अण्डरवीयर) पहना है, आप उसका इण्टरव्यू क्यों नहीं लेते ? एक कमर्शियल एक्ट्रेस का यह बौद्धिक पहलू हमारे सामाजिक आकाओं को समझ में नहीं आया। उन्हें शायद वही अभिनेत्रियां ‘सूट’ करती हैं जो सभी तरह के दृश्य भी देती रहें और तोते की तरह ‘‘संस्कृति-संस्कृति’’ भी रटती रहें। कमोबेश यही हाल, साहित्य समेत, हमारे अन्य क्षेत्रों में भी है। तो ये मोहरे वाला मामला तो बहुत पेचीदा और उलझा हुआ है सुजाता जी। रही बात भ्रमों की तो उसका भी कोई मानक इलाज उपलब्ध नहीं है। यहाँ तो ऐसा है कि आप ओशो रजनीश का नाम भी ले दो तो सामने वाले को भ्रम होने लगता है कि अगला वेश्यालय खोलना चाहता है। एडस् की बात उसे सेक्स की बात लगने लगती है। स्त्री-मुक्ति से जुड़े मसले उठाने पर आपको भी तो कैसी-कैसी सलाहें दे डाली हैं विद्वान लोगों ने ! हम बस यही कर सकते हैं कि बातों को और ज़्यादा समझा-समझाकर लिखें।
प्रिय मित्र शाश्वत शेखर ने पूछा है कि अगर मैं इस लेख को आज लिखता तो कैसे लिखता। होता बस यही कि ममता की जगह मल्लिका हो जाता और संजय, सुनील, जैकी की जगह सलमान, अक्षय और जाॅन आ जाते (जैसा कि चतुर्वेदी जी ने कहा है, मगर ऐसा भी नहीं कि बदलाव बिलकुल भी नहीं आया मगर उसके बरक्स कट्टरता भी उतनी ही बढ़ी है)। हां, आसपास ऐसा ज़रुर कुछ घटित हुआ है कि मैं उक्त लेख के निम्न भाग को थोड़ा और विस्तार देता:-
‘‘‘‘जहां तक पुरूष केंन्द्रित व्यवस्था का सवाल है, पुरूष कैसे प्रभु बना-इस पर बहुत कहा-सुना गया। मगर अब वह शायद इसलिए भी प्रभु है कि हमारे सामाजिक ढांचे में माता-पिता के बहुत सारे स्वार्थ जैसे वंश चलाना, कमाकर खिलाना, माँ-बाप का नाम रोशन करना, बुढापे का सहारा बनना आदि पुत्र से ही पूरे होते हैं । यह पुत्र की अस्मिता से प्रेम नहीं, बल्कि उसकी तात्कालिक/दीर्घकालिक उपयोगिता का लालच है, जो हमारे स्वार्थपरक सामाजिक,व्यक्तिगत संबंधों की कलई भी खोलता है । बदलते परिवेश में ज्यों-ज्यों स्त्रियां इस दृष्ठि से उपयोगी होती जाएंगी, मां-बाप का ‘प्यार’ स्वतः ही उन पर भी उमड़ने लगेगा । अब भी कई घरों में देखने को मिलता है कि ‘अव्यावहारिक’ व ‘नाकारा’ पुत्र उपेक्षित व अपमानित होते रहते हैं व ‘प्रैक्टीकल’ व ‘सोशल’ लड़़कियों के गीत गाए जाते हैं ।’’’’’
....इसी बहाने बड़े सार्थक सवाल भी उठते है.
कैसे?
"उसने किसी सहेली को कभी फोन पर दुख की दास्तान नही सुनाई, किसी को चिट्ठी नही लिखी।
कोई सबूत न होने से सरिता की मौत एक दुखद घटना मान कर भुला दी गयी।"
Hmmm...ghatna vicharniy hai parantu kya ye ek katha matra hai ya haqiqat? Kyunki aapne khud se hi kaha hai ki usne koi sabut nahi choda tha...jab koi sabut hi nahi hai to kya ye matra ek kalpnik ghatna hai? Ise anytha na len, main bus janna chah rahi hun!
"मसलन देह से मुक्त स्त्री ही अदालत में खुलकर बता पाएगी कि बलात्कार के दौरान उसके साथ क्या-क्या किया गया। तलाक के मामले में ऐसी स्त्री ही खुलकर बता पाएगी कि किस तरह उसके साथ अप्राकृतिक कर्म किए गए। या कि किस तरह उसका पति स्वस्थ-साहचर्य में सक्षम था या नहीं। देहमुक्त स्त्री ही समझ और समझा पाएगी कि जानलेवा गर्मी के आलम में अगर मर्द-महाराज की तरह स्त्री भी कमीज़ उतारकर दो घड़ी सुस्ता लेगी तो आसमान नहीं फट पड़ेगा। कई बार तो इन्हीं ‘मर्यादाओं’ के चलते एक पुरुष द्वारा
स्त्री मरीज़ की या स्त्री द्वारा पुरुष रोगी की देख-भाल करना ही असम्भव हो जाता है।"
संजय ने सही कहा, पर वह स्थिति ज्यादातर औरतों के लिए सोच पाना भी आज की तारीख में नामुमकिन है। ऐसे में शुरुआत कैसे हो, रास्ता कैसे निकले? और तब तक क्या किया जाए कि इस आदर्श स्थिति को पाने की उम्मीद बनी रहे?
और रेवा जी की उत्सुकता का जवाब मुझे यही सूझ रहा है कि कहानी किसी व्यक्ति विशेष के लिए सच्ची हो या नहीं, समाज में कई लोगों के लिए यह पूरा सच है, इसलिए इसे समाज का आइना समझ कर आगे सोचें और अपने विचारों से हमें भी अवगत कराएं। समाज में बराबरी लाने का यह भी एक तरीका हो सकता है।
रेवा ,
यह किसी एक सरिता की नही है और काल्पनिक तो है ही , लेकिन इस कल्पना की खुराक इसी दुनिया के बीच से मिली है। समय नही मिला पर इसकी प्रेरणा मुझे जिस घटना से मिली उसे अगली पोस्ट मे ज़रूर लिखूंगी।
चुपचाप पिटने-सहने वाली स्त्रियों को समझना होगा और हमें उन्हें यह हौसला देना होगा ।
Ekdum Sahi!
अनुराधा, बहुत बहुत शुक्रिया आपको! वैसे मैं उत्साहपूर्ण होकर ये सवाल नही पूछी थी, बल्कि कष्टपूर्ण भाव से पूछी थी. लेकिन आपने बहुत उत्साहित होकर हमारे प्रश्न का उत्तर देकर, मन में उठते सवाल को कुछ देर के लिए शांत कर दिया है. इसके लिए हम आपके आभारी हैं. चलिए ब्लोगिंग कीजिये और यूँ ही मस्त रहिये.
शुक्रिया सुजाता, करीब ६ महीने बाद आपके ब्लॉग पर आई, और आपकी ये पोस्ट पढ़कर, मन कुछ देर के लिए शांत हो गया था. लेकिन ये जानकर की ये एक काल्पनिक कथा है तो दिल को थोडी सकून जरुर मिली.
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