
स्त्रियों के सम्मान में जैसे ही कोई कहता है- यत्र नारी पूजयन्ते, रमन्यते तत्र देवता, हम लगभग इत्मिनान हो लेते हैं। हमे लगता है कि एक स्त्री की इससे बेहतर स्थिति, दुनिया के किसी भी देश और वहां की संस्कृति में नहीं सकती। हमें अपने पूर्वजों की सोच और संस्कृति पर गर्व होता है,हम लगातार स्त्री को देवी के रुप में बनाए रखने के लिए प्रयासरत नजर आते हैं। अपनी संस्कृति को बचाने के नाम पर जो कुछ भी प्रयास चल रहे होते हैं,उन पर गौर करें तो उनमें से सत्तर से अस्सी फीसदी प्रयास नारी को देवी के तौर पर बनाए औऱ बचाए रखने के लिए किए जाते हैं। संस्कृति को सबसे बड़ा खतरा, स्त्री को देवी रुप से अपदस्थ किए जाने में ही साबित होता है। इसलिए संस्कृति और स्त्री का देवी रुप एक -दूसरे के पर्याय रुप में आते हैं।
संस्कृति को बचाने के क्रम में स्त्री, देवी रुप में कितनी बनी रह पाती है और फिर इसकी जरुरत भी क्या है, इस बहस में न भी जाएं तो एक सवाल तो जरुर उठता है कि क्या ऐसा करते हुए पुरुष देवता रह जाते हैं। इस तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक मसलों पर बहस करते हुए इतनी हिम्मत हममे है कि हम चीजों को मिथको और उपमानों को देखने के बजाय एक स्वाभाविक प्रक्रिया के तौर पर देखने की कोशिश क्यों नहीं कर पाते। यदि हम ऐसा नहीं भी कर पाते हैं तो क्या हमने जिन मिथकों को गढ़ा है, उनके भीतर जो गुण औऱ स्वभाव भरे हैं, उसी के अनुसार मौजूदा परिस्थितियों का विश्लेषण कर सकें.
अव्वल तो हमें स्त्री को देवी मान इनने पर ही आपत्ति है, क्योंकि ऐसा करके स्त्रियों का भला होने के बजाय, पितृसत्तात्मक समाज की जड़े है मजबूत होती है। स्त्री को देवी के रुप में मानने का मतलब है उसे एक पुरुष एपरेटस के तौर पर स्थापित करना। खैर इस बहस पर बाद में। फिलहाल,इतना भर मान लें कि जो स्त्रियों की रक्षा करते हैं वो देवता के समान होते हैं औऱ स्त्री को देवी के रुप में स्थापित किए जाने से समाज में चारों तरफ देवता का वास होता है। इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि स्त्री को देवी रुप में बनाए जाने के प्रयास में यह भी अनिवार्य है कि इस प्रयास में लगे पुरुष देवताओं की तरह व्यवहार करें।
(1)राम सेना के प्रमुख मुतालिक ने कहा कि हमारी संस्कृति में स्त्रियां नारी की तरह पूजी जाती है। अगर कानून इनकी रक्षा नहीं करती है तो हम हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रह सकते,हम नागरिकों का कर्तव्य है कि अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए आगे आएं। मंगलूर पब में लड़कियों के साथ जो कुछ भी हुआ वो मंगलूर और कर्नाटक के लिए आम बात है, इसे जबरदस्ती नेशनल न्यूज बनाया जा रहा है।
- इ मत्तालिक, संस्थापक,रामसेनाःकर्नाटक
(रेडियो मिर्ची,12:26 बजे सुबह,27 जनवरी 08)
रेडियो मिर्ची के जॉकी अनंत औऱ सौरभ से ये पूछे जाने पर कि संस्कृति को बचाने का ठेका आपको किसने दे दिया, उस पर इ मत्तालिक ने अपना बयान दिया।)
(2) मंगलूर में लड़कियों के साथ जो कुछ भी हुआ, उसके लिए हम माफी मांगते हैं।(इ मुतालिक,टाइम्स नाउ रात 8ः35 अर्नव गोस्वामी से सवाल पूछे जाने पर दिया गया जबाब)
(3) मंगलूर में जो कुछ भी हुआ, उसमें राम सेना का कोई भी कार्यकर्ता नहीं था( वही, अर्नव के इस सवाल पर कि राम सेना के चालीस गुंड़ों ने क्या किया, मुतालिक का जबाब)
(4) विष्णु बैरागी said...
आपको बुरा लगे तो लगे। भई, जिस हिन्दुत्व पर हमें गर्व है वह तो ऐसा ही है, ऐसा ही रहेगा और आप चाहे जो कर लो, बदलेगा बिलकुल भी नहीं। आप सबकी औकात जग जाहिर है। आप क्या कर लोगे। लिख कर या फिर वक्तव्य जारी कर गालियां दे दोगे। दे दो। मैदानी सक्रिया का मुकाबला शब्दों से कभी हो नहीं सकता और शब्द-शूरों में इतनी हिम्मत नहीं कि मैदान में उतर आएं।
सो,आप गरियाते रहो। हिन्दुत्व को तो आना ही है। आकर ही रहेगा और आप सब ही उसकी पालकी ढोओगे। अभी भी ढो ही रहे हो भैया।
26 January, 2009 10:43 AM
(चिंतनः सुप्रतिम बनर्जी के ब्लॉग से साभार)
मुतालिक के तीन अलग-अलग बयानों और विष्णु बैरागी की टिप्पणी को नत्थी करके देखें तो कुछ बातें हमारे सामने है-
(1) संस्कृति की रक्षा करने का काम राम सेना जैसे संगठनों का है, कानून इस मामले में पूरी तरह नाकाम है।
(2) देश की स्त्री देवी के पद से अपदस्थ हो रही है, इसलिए इस तरह की कारवाई जरुरी है। अगर देश की स्त्री नारी के सांचे में फिट नहीं है तो उसके साथ कुछ भी किया जा सकता है और ये मामूली होगा।
(3) स्त्री को हर हाल में देवी रुप में ही होना होगा, उसे अपनी तरफ से जीने का कोई अधिकार नहीं है।
(4) स्त्री को नारी के तौर पर स्थापित करना हिन्दुत्व का हिस्सा है औऱ देश में हिन्दुत्व की संस्कृति का आना अनिवार्य है। इस मामले में हम जैसे लोगों के लिखने-पढ़ने से कुछ भी नहीं बदलने वाला है।
(5) मैगलूर में जिस तरह से संस्कृति को बचाने की कोशिश की गयी, वही हिन्दुत्व की संस्कृति है और हमें संस्कृति के इस रुप पर गर्व होनी चाहिए।
इस पूरे मामले में चाहे तो मुतालिक साहब से सवाल कर सकता है कि जब राम सेना के लोग शामिल ही नही थे तो फिर आप माफी किस बात की मांग रहे हैं। आप क्यों चाहते हैं कि स्त्रियां देवी रुप में ही रहे। वैरागी साहब से सीधा सवाल होगा कि मैगलूर की घटना पर आरएसएस जैसे हिन्दुवादी संगठन औऱ उसकी वैचारिक ताकत से चलनेवाली बीजेपी तक निंदा कर रहे हैं तो आप किस हैसियत से इसे जायज ठहरा रहे हैं। कहीं आप देश की जनता की हैसियत से तो नहीं कह रहे कि देश की जनता चाहती है कि स्त्री के बनाए मानदंड से जो भी भटके, उसके साथ मैगलूर जैसी कारवाई अनिवार्य है।...तो फिर क्या आप इस बात के लिए भी तैयार है कि कोई इस देश के बारे में कहे- यत्र नारी न पूज्यन्ते,रमन्यते अत्र दानवः। यहां अब राक्षस बसते हैं...सही फरमा रहे हैं न आप ?
13 comments:
मेंगलूर में जो कुछ हुआ वह तो निश्चित ही निंदनीय है. पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण भी अशोभनीय ही है. आभार.
गजब की ठसक है भई बैरागी साहब की।
इनका हिन्दुत्व जब आएगा तो इसमें हमारे लिए क्या सजा मुकर्रर की है बैरागीजी ने ये भी बता देते। चौराहे पर गोली मारी जाएगी या कोई और तालीबानी तरीका अपनाया जाएगा।
प्रभु , इन्हें क्षमा करो ! यह भाजपा -आर एस एस को नहीं समझ पा रही हैं | विष्णु बैरागी को समझने में इन्हें और कठिनाई होगी ही ! काश, उनके व्यंग्य और क्रोध को समझ पातीं ।
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यह तो सरासर हिंदुत्व की आड़ में "तालिबानी" संस्कृति के दर्शन करा रहे हैं..... वाह रे फतवा-धारी क्यूँ भगवा-धारी को बदनाम कर रहे हो"
atyant hi nindaniya va ashobhniya kaary hai ye....
राम के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है, ये बाकी था ये भी हो गया। पता नहीं कोई रामदूत निकले, कुछ नया मुद्दा लेकर! नया माने, 'पुराणों' में से कुछ पुराना। आखिर वही तो नया होता है। जय हो!
अरे नही भई सब स्त्रियाँ देवी नही चाहिए भई इन्हे। स्त्रियाँ देवी हो जाएँ लेकिन कुछ देवदासियाँ भी तो चाहिएँ पर दोनो अलग अलग रहें
एक मे मिक्सचर न हो जाए आखिर हिन्दुत्व देवदासियों को भी तो चाहता ही होगा।
ग़ज़ल
दासी बनाके मारा देवी बनाके मारा
औरत को यार तुमने कैसा चढ़ाके मारा
सदियों से साजिशों पर भी दाद दे रही है
औरत को यार तुमने कैसी कला से मारा
की ख़ुदकुशी सती ने, तुमने मनाई ख़ुशियां
फ़िर मरचुकी को तुमने, मंदिर बनाके मारा
मर्ज़ी न उसकी पूछी, करदी कहीं भी शादी
सौ बार तुमने उसको बेटी बनाके मारा
प्रियतम दहेज-भूखा, प्यासी हैं सास-ननदें
इस बार यंू समझिए औरत ने ख़ुदको मारा
मक्कारियों पे मर गई मजबूरियां समझकर
औरत को तुमने कैसी क़ातिल अदा से मारा
-संजय ग्रोवर
--अमर उजाला (आखर) में प्रकाशित--
रावण के दस सिर थे। तालिबानी फ़ासिस्टों के हज़ारों हैं। इनकी नाभि में चोट किये बिना ये नहीं मरेंगे।
भाई,
जो कोटेशन्स आपने दिये हैं उस चिट्ठे का लिंक भी दे देते तो पूरा कान्टेक्स्ट समझ कर टिप्पणी देने का सोचते। पता नहीं ऐसा आपने जानबूझ कर किया या अनजाने में, लेकिन बिना स्रोत दिये "Quote" करना कमर से नीचे का प्रहार है।
Neeraj Rohilla said...
भाई,
जो कोटेशन्स आपने दिये हैं उस चिट्ठे का लिंक भी दे देते तो पूरा कान्टेक्स्ट समझ कर टिप्पणी देने का सोचते।
kis-se mukhaatib haiN aap? Kya mujhse !!!?
यह सारी घटना ही निंदनीय है । संजय ग्रोवर जी की शायरी बहुत सटीक है ।
मुझे यह समझ में नहीं आता कि ये कौन होते हैं यह तय करने वाले कि कौन क्या पहने क्या न पहने ? क्या ये अपनी वो धोती हमसे पूछ कर पहनते हैं जिसकी लांग भर खींच दी जाए तो सारी उतर कर नीचे आ पड़े। पहने-पहने भी जिसमें से आधी टांगे नंगी दिखती रहती हैं। स्त्रियों के लिए भी ऐसी ही कई अनसिली-अधखुली पोशाकों का प्रबंध हमारी संस्कृति में है। जब दूसरा कोई इन पोशाकों पर आपत्ति नहीं करता तो इन्हें क्या अधिकार है कि सारे देश के लोगों के लिए खाने-पहनने-नाचने का मैन्यू बनाएं। हम सबके बाप-दादा देश का पट्टा क्या इन्हीं सब उजबकों के नाम लिख गए थे !? गाँवों में चुड़ैल बताकर मार डाली जाने वाली औरतें, मानसिक रोगों से ग्रस्त,मातों-जागरातों में सिर पटककर झूलने वाली औरतें, वृंदावन में आलुओं की तरह ठुंसी विधवाएं, दंगों-पंगों में रोज़ाना बलत्कृत होती दलित औरतें, इन सबको देखकर इन्हें अपनी संस्कृति पर ज़रा भी शर्म नहीं आती !?
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