विवेक आसरी की एक और कविता, चोखेरबाली के लिए।
पति के बगल में सोई
अतृप्त मैं,
ख्वाबों से घबराती हूं।
हर ख्वाब की दहलीज पर
खड़ा रहता है
एक साया
अनजान
मुझे अपनी बाहों में समेटने को तैयार।
डर मुझे उस साये से नहीं
उन बाहों के आकर्षण से लगता है।
उस सफर से लगता है
जो दहलीज पार करते ही
शुरू हो जाता है
उस साये के पहलू में।
घबराहट मुझे
उस छद्म तृप्ति से होती है
जो बढ़ा देती है
अतृप्ति के अहसास को।
प्यार और प्यास का फर्क
सवाल बन जब खड़ा हो जाता है
हर करवट के साथ
पति और मेरे बीच का
अंतर बड़ा हो जाता है।
वो साया
मुझे मेरे मन का
गवाह क्यों लगता है?
और फिर सुबह जगकर
पति की आंखों में झांकना
गुनाह क्यों लगता है?
--
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7 comments:
छोटी सी कविता का बड़ा नारी विमर्श ! लाजवाब !
बहुत ही संजीदगी से पेश किया है ..
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
Kavita man ko chhu gayi..
यह विसंगति जिंदगी की राह में सौ बार रोई
बांह में है और कोई चाह में है और कोई
(विवाह संस्था जिंदाबाद)
मन मे दबी हुई अतृप्त वासनाओ के खुमार को आप ने अपनी कविता मे नया आयाम दिया है ,
क्या यही है नारी की आजादी ? ,
क्या यही करने के लिए वो आजाद होना कहती है , ?????????????????/
@ अमित जैन-
कृपया कवि का नाम फिर से देख लें, तब प्रतिक्रिया दें।
-धन्यवाद
kavita bahot gahri hai par apni to samajh se pare rahii..asal bhaav to likhne vala hi mehsoos kar sakta hai.
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