मुझे विज्ञापन देख देख यकीन हो चला है कि बाइक लड़कियों के लिए नही होते , उनके लिए बनाए ही नही जाते।वैसे कार भी शायद लड़कियों के लिए नही होतीं(कार स्त्रीलिंग है !!)।कम से कम विज्ञापन यही कहते हैं। बाइक हो या एस बी आई बैंक का खाता दोनो मे कस्टमर केवल पुरुष है।बाइक पर लड़की पीछे की सवार है और खातेदार पुरुष के धन से छुट्टी मनाने वाली पत्नी या प्रेमिका है।अब शायद एस बी आई की वह एड बदल गयी है।
मेरे लिए यह हैरानी का विषय नही है जब कोई चोखेरबाली पर या बाहर कहीं कह देता है कि औरत ही औरत की दुश्मन है इसलिए आप लोगों के सारे विमर्श और सन्घर्ष बेकार के हैं।दर असल हम चाह कर भी अपनी दिमागी जकड़नो से मुक्त नही हो पा रहे हैं और इस सबमे मीडिया एक बड़ा रोल अदा कर रही है।बाज़ार का शोहदा बन कर टी वी स्त्री विरोधी मानसिकता तैयार करने मे अपना योगदान दे रहा है।विज्ञापन इस नज़रिए से देखें जाएँ तो आप पाएंगे कि हमारे समाज की कमज़ोरियों को किस तरह से बाज़ार ने पहचाना है और अब उन्हे बार बार गहरा करता है ताकि वह उनका इस्तेमाल अपने हित मे कर सके।
ज़्यादा समय नही हुआ है उस पर्फ्यूम के विज्ञापन को जिसे लगाते ही कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री के अन्दर वासनात्मक कल्पनाएँ जगा सकता है या उस कार की एड को जिसमे क्रोध , मुच्छडपना, ताकत , लड़का मिजाज़ , अकड़ को मर्दाना खूबियाँ कहते हुए उनका महिमामंडन किया गया है।वह बाकी छुईमुई गाड़ियों के बीच "एक असली मर्द है"।कोई भी लड़का जो मानता होगा कि स्त्री और पुरुष मिलकर दुनिया चलाते-बसाते हैं और मर्दाना-जनाना खासियतों को दोनो मे ही पाया जा सकता है या कम से कम मानना चाहता होगा वह इस ऎड को देखकर मान लेगा कि वह गलत था "असली मर्द" सहयोगी,कोमल,सेंसिटिव ,केयरिंग नही होता ......... वह अक्खड़ , लड़ाका, गुस्सेवर , ताकतवर ही होता है।
एक नया विज्ञापन बजाज की बाइक का ऐसा ही आया है।आप ही खुद देखिए कि दो बहनें आपस मे कट्ट्र दुश्मन की तरह लड़ती हुई किसके लिए दिखाई गयीं हैं !
काश कि वे बाइक चलाने के लिए लालायित दिखाई जातीं।
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10 comments:
हो सकता है कि यह भेदभाव आगे चलकर मिट जाये और लिपस्टिक और गहनों के विज्ञापन में लड़कों को लड़ते हुए दिखाया जाये… :) :)
एकता कपूर सभी विधाओं में हाथ आजमा चुकी बस विज्ञापन बचा है.........उम्मीद कीजिये वे यहाँ भी उतरे फिर तो विज्ञापनों में बस स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ होंगी............
हर चीज के लिए एक ही नजरिया रखना ठीक नही है, समझना चाहिए की बाइक का मुख्य लक्ष्य 17-22 वर्ग के लड़के हैं, इस उम्र में उनमें रूमानियत जन्म लेती है, और विज्ञापन में दिखाया गया है की नए जमाने की सशक्त लडकियां इस बाइक को पसंद करती हैं इसीलिए यह लड़कों को खरीदना चाहिए.
सीधी बात है, हर जगह एक सा नजरिया विषय की गंभीरता और स्वीकार्यता को प्रभावित करता है
आपने कुछ ग़लत नहीं कहा सुजाता। लेकिन शायद हमें अपनी दृष्टि को थोड़ा और विस्तार देना पड़ेगा और उन पूर्वाग्रहों से भी बचना पड़ेगा जो तात्कालिक तौर पर तो स्त्री के पक्ष में जाते लगते हैं, मगर दूरगामी नतीजे स्त्री के खिलाफ ही जाते हैं।
बचपन से किशोरावस्था तक हमने देखा कि हमारे साथ के लड़के गर्व से बताते कि आज हमने फलां लड़की की चुन्नी खींच दी या फलां के अंगविशेष पर इंस तरह हमला किया तो उन्हें चहुंओर जो प्रंशसा मिलती उसके तहत हम सीधे, भोले, कन्फयूज़ड बच्चे अपनी मर्दानगी (यह जो कुछ भी होती हो) को लेकर तरह-तरह की शंकाओं और हीन-भावनाओं से भर जाते। हमारी फ्रस्ट्रेशन और तिलमिलाहट और भी बढ़ जाती जब हम देखते कि अधिकांश लड़कियों से भी फायदे, शाबाशी और सराहना उन्हीं ‘मर्दों’ को मिलते थे जो इन्हीं ‘‘प्रयत्नों’’ को कुछ ‘‘सोफेस्टीकेटेड’’ ढंग से करते और सफल होते थे। इंस तरह के विश्लेषण करने की क्षमता तब हममें नहीं थी कि लड़कें हो या लड़कियां, दोनों के ऐसे व्यवहारों के पीछे एक सामाजिक-पारिवारिक-मानसिक अनुकूलन/कंडीशनिंग काम करते हैं।
शायद आपको विषयांतर लगे पर यहीं मैं विवेक आसरी की कविता के बहाने कुछ कहना चाहूंगा। मैं कविता में व्यक्त विचार के कतई खिलाफ नहीं हूं। बल्कि ऐसे विचारों को सिर्फ व्यक्त करने के एवज में ही कई सालों से कई तरह के नुकसान भी उठाता आ रहा हूँ। मगर मैं जानना चाहता हूँ कि पति की बगल में अतृप्त लेटी स्त्री की अतृप्ति की वजह क्या है ? शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक या कुछ और ? अगर यह शारीरिक है तो हमें यह जानना चाहिए कि इसके लिए मर्द को बहुत तरह के अतिरिक्त प्रयत्न करने होते हैं। अगर हमें सिर्फ वही मर्द चाहिए जो हमें शारीरिक तौर पर पूरी तरह संतुष्ट कर सकें तो फिर हमें उन मर्दों से शिकायत करना छोड़ देना होगा जो किसी स्त्री से इसलिए शादी नहीं करते कि वह मोटी है, या उसका रंग ऐसा-वैसा है, या वह ठंडी दिखती है। आखिरकार मर्द को भी तो शारीरिक संतुष्टि चाहिए। एक से न्याय करने के हमारे तर्क ऐसे भी न हों कि दूसरा अन्याय की चपेट में आ जाए। कृपया बताएं कि क्या मैं अपनी बात ठीक से कह पाया ?
लडकी को खुद भी तो बाइक पर सवार होते देखा सकते थे । और कुछ हासिल करने के लिये हर वक्त शारिरिक ताकत की जरूरत नही होती । यह सब इस एड को चीप बनाता है ।
संजय जी ,
आप मैं अलग अलग बात नही कह रहे, इसलिए विषयांतर का सवाल ही नही है।
सवाल तो स्त्री देह के व्यवसायीकरण का था. सवाल रूमानियत का नहीं, लैंगिक भेदभावों के कंक्रीट हो जाने का था. और सवाल यह भी था की वो कैसा समाज है जो स्त्री को माँ-बहिन-पत्नी के रूप में या फिर भोग की वस्तु के रूप में ही देख पाता है, एक पूर्ण विकसित मानव के रूप में नहीं! सुजाता को अच्छी पोस्ट यह लिए धन्यवाद.
और Mrs. Asha Joglekar की बात आगे बढाऊँ तो सवाल इस बात का भी था की हम इस cheapness को बर्दाश्त क्यों कर lete हैं?
हम मजबूर हैं वो दिखाते हैं और हम देखते हैं ऐसा कहती है कंपनियां। बाजारवाद में ये सब कितना जायज है इसका कोई मानदण्ड नहीं है । इसका प्रभान क्या पड़ता है ? इसका जिम्मेदार कोई नहीं । जो भी बिकता है बेचो ।
sanjaygrover said...
** और भी बढ़ जाती जब हम देखते कि अधिकांश लड़कियों से भी फायदे, शाबाशी और सराहना उन्हीं ‘मर्दों’ को मिलते थे जो इन्हीं ‘‘प्रयत्नों’’ को कुछ ‘‘सोफेस्टीकेटेड’’ ढंग से करते और सफल होते थे।
*cntd.**
**उन ‘सोफेस्टीकेटेड’ तरीकों में से एक तरीका ‘भैया’ या ‘दीदी’ बना लेना भी होता था जो कालांतर में ‘कज़िन’ में परिवर्तित हो गया और उन्हीं में से ज़्यादातर ‘‘कज़िन्स्’’ (कालांतर में) धर्म, संस्कृति आदि की चिंता में सूखने-अकुलाने लगे।
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