इनकी शक्लो-सूरत और हैसियत पर मत जाईये। ये न तो फेमिनिस्ट के रूप में नारी आन्दोलनों से जुड़ी हैं और न पश्चिमी देशों की उन नारियों की तरह है जो स्वतंत्रता के नाम पर अपनी छाती उघाड़कर प्रदर्शन करती हैं। न ही इनके साथ किसी बड़े घराने या काॅरपोरेट जगत या राजनैतिक दल का नाम जुड़ा हुआ है और न ही ये कोई बड़े-बड़े दावे करती हैं। ये वो महिलायें हैं जो हमारे पास-पड़ोस की और हमारे बीच की हैं, जिनसे हम न जाने कितने बार रूबरू हुए होंगे पर हमंे उनकी खासियत का पता ही नहीं। एक लम्बे समय से धर्मशास्त्रों और रूढ़ियों के नाम पर इन्हें यही बताया जाता रहा कि फला काम तुम्हारे लिए वर्जित है और यदि तुम ऐसा करने का प्रयास करोगी तो तुम्हारे ऊपर अपशकुन व ईश्वरीय प्रकोप का खतरा मंडरायेगा। पर ये औरों से अलग हैं क्योंकि वर्जनाओं को तोड़कर एक अलग लीक बनाना ही इनकी खासियत है। पाश्चात्य सभ्यता के समर्थक कुछ लोगों को नारी स्वतंत्रता का रास्ता दैहिक वर्जनाओं को तोड़ने और उन्मुुक्तता में दिखा। नतीजन, गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह सौंदर्य प्रतियोगिताओं के आयोजन, माॅडल बनने की होड,़ फिल्मों में काम पाने हेतु सर्वस्व न्यौछावर कर देने वालों की बढती भीड़ .... पर समाज का यह वर्ग ऐसा है जो अभी भी सिर से पांव तक पूरे कपड़े पहने अपनी बौद्धिकता और जीवटता के दम पर समाज की रूढ़िगत वर्जनाओं को तोड़ने का साहस रखता है।
कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस की लड़कियों ने तमाम रूढ़िगत वर्जनाओं और परम्पराओं को बहुत पीछे धकेल कर कुछ नये मानदण्ड स्थापित किये हैं। कर्मकाण्ड का सबसे प्रमुख तत्व पुरोहिती है और पांडित्य में बनारस का कोई सानी नहीं। प्राचीन काल से ही यहाँ के पंडितों ने दुनिया भर में अपनी धाक जमाई है। प्राचीन काल में गार्गी ने यह प्रथा तोड़ी थी, पर अब पुरूष पुरोहितों की इस परम्परा को बनारस की लड़कियों ने तोड़ दिया है। तुलसीपुर स्थित पाणिनी कन्या महाविद्यालय से शास्त्री की परीक्षा उतीर्ण कई लड़कियाँ अब लोगों के विवाह करवा रही हैं और यह जरूरी नहीं कि वे ब्राह्मण ही हों। महाविद्यालय की आचार्या नंदिता शास्त्री बड़े गर्व से बताती हैं कि विवाह कराने के लिये उनकी छात्राओं को बनारस ही नहीं वरन् दूर-दूर से लोग आमंत्रित कर रहे हैं। हैदराबाद में बसी यहाँ की पूर्व छात्रा मैत्रेयी को वैदिक रीति से विवाह कराने के लिए अमेरिका तक से आमंत्रण आ चुके हैं। जब इन छात्राओं ने आरम्भ में यह कार्य आरम्भ किया तो इनका विरोध करने के लिए परम्परागत पंडितांे ने वर व कन्या पक्ष को शास्त्रों से उद्धरण देकर काफी भड़काया पर अब वही पंडित इन लड़कियों का लोहा मानने लगे हैं। कारण- मंत्रों का शुद्ध उच्चारण, उसकी सम्यक व्याख्या और वैवाहिक संस्कार की सभी रस्मों का पालन करवाने में लड़कियाँ परम्परागत पंडितों से कहीं आगे हैं। आम तौर पर कम पढ़े-लिखे पंडित विवाहों में शुद्ध मंत्र का उच्चारण तक नहीं कर पाते। अब ये छात्रायंे विवाह ही नहीं शांति यज्ञ, गृह प्रवेश, मंुडन, नामकरण और यज्ञोपवीत भी करा रही हंै। ऐसा नहीं है कि यह क्रांतिकारी बदलाव सिर्फ बनारस तक ही सीमित है वरन् देश के अन्य भागों में भी इस बदलाव को महसूस किया जाने लगा है। इलाहाबाद की स्वर्गीया गुलाबबाई त्रिपाठी ने भी इस क्षेत्र में अलख जगायी थी तो मात्र 30 साल की उम्र में कानपुर विद्या मंदिर डिग्री काॅलेज की प्राचार्या बनी डाॅ0 आशारानी राय वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच पुरोहिती का कार्य करती हैं। औद्योगिक महानगर कानपुर में उन्होंने जब छात्राओं को सार्वजनिक रूप से वेद पाठ आरम्भ कराया तो व्यापक विरोध भी झेलना पड़ा। यहाँ तक कि एक शंकराचार्य ने इसे वेद विरूद्ध तक घोषित कर दिया। पर आशारानी ने हार नहीं मानी और नतीजन आज उनकी तमाम छात्रायें कर्मकाण्ड कराने लगी हैं। डाॅ0 आशारानी राय ने डिग्री काॅलेज में बी0ए0 की छात्राओं के लिये व्यवसायिक संस्कृत वेद पाठ्यक्रम भी यू0जी0सी0 से मान्य कराया। हरदोई स्थित आर्य कन्या इण्टर काॅलेज से सेवानिवृत्त होकर सामाजिक कार्यों से जुड़ी सुधा भी वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच पुरोहिती का कार्य करती हैं।हरिद्वार में कनखल स्थिति माँ योग शक्ति धाम की अधिष्ठाता माँ योग शक्ति ने अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल की साध्वी माँ ज्योतिषानन्दन को जगद्गुरू शंकराचार्य के समकक्ष पार्वत्याचार्य की उपाधि से अलंकृत किया तो गुस्साये साधु सन्तों ने किसी महिला को यह उपाधि देने के विरोध में जमकर हंगामा किया।
सिर्फ घरेलू कर्मकाण्डों तक ही क्यों, माता-पिता के अंतिम संस्कार से लेकर तर्पण और पितरों के श्राद्ध तक करने का साहस भी इन लड़कियों ने किया है, जिसे महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माना जाता रहा है। संयोग से इसकी शुरूआत भी कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस से ही हुई। इस दिशा में सुनीति गाडगिल ने अलख जगाई जिन्होंने विवाह, पूजा, यज्ञ आदि करवाने में ही भूमिका नहीं निभाई वरन् श्राद्ध कर्म भी करवाकर मिसाल कायम की। बनारस के ही पाण्डेयपुर क्षेत्र की निवासी तनू उर्फ वन्दना जायसवाल, मंडुवाडीह की लक्ष्मीणा देवी, नगर निगम के सफाईकर्मी रहे गोलगड्ढा निवासी मुन्ना की विधवा बीदा देवी और भेलूपुर की महिला चित्रकार और विदेश में कला की प्रोफेसर रहीं डाॅ0 अलका मुखर्जी ने परिवार में किसी अन्य पुरूष सदस्य के न रहने पर अपनी माँ, पिता और पति का अंतिम संस्कार धार्मिक क्रियाओं के बीच विधिवत सम्पन्न किया। वन्दना जायसवाल ने घंट इत्यादि बाँधकर नित्य घाट पर अपनी माँ का तर्पण भी किया। अब तो इस सामाजिक बदलाव की बयार का असर देश के अन्य भागों में भी दिखाई पड़ने लगा। तभी तो कानपुर की डाॅ0 आशारानी राय और हरदोई की सुधा महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार सम्पन्न कराने से नहीं हिचकतीं। अपने पिता और श्वसुर का अंतिम संस्कार भी स्वयं उन्होंने ही सम्पन्न किया। यही नहीं कुछेक समय पहले तक प्रयाग के रसूलाबाद घाट पर महाराजिन बुआ नामक महिला श्मशानघाट में वैदिक रीति से अंतिम संस्कार सम्पन्न कराती थीं। राजस्थान के भीलवाड़ा में एक 72 वर्षीया विधवा की मृत्यु पर उसकी सात बेटियों ने मिलकर अर्थी को कंधा दिया तथा अंतिम संस्कार के लिये चिता को मुखाग्नि दी और पिण्डदान किया। परिवार में बेटों के न होने पर लोगों ने बड़े दामाद से मुखाग्नि दिलवाने का प्रयास किया पर सातों बेटियों ने कहा कि- ‘‘उनकी माँ ने बेटा न पैदा होने पर बेटियों को ही बेटों की तरह पाला तथा किसी भी तरह की कमी नहीं होने दी।’’ हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले की दलित महिला प्रेमी देवी ने तो अपने पति की अर्थी को बेटों को कन्धा तक नहीं लगाने दिया और अर्थी को कंधा देने की जिद करने पर उन्हें धक्के मारकर घर से निकाल दिया। उसने कहा कि मेरे पति के जिन्दा होने पर इन बेटों ने कभी हमारी सेवा नहीं की और न ही रोजमर्रा के खर्च के लिये कोई इन्तजाम किया और ऐसे में पति का निर्देश था कि- ‘‘इन अवारा कलयुगी बेटों को मेरी अर्थी में कंधा न लगाने दिया जाये।’’ अंततः अर्थी को दोनों बहुओं व पड़ोस की दो अन्य औरतों ने कंधा दिया और मुखाग्नि उसके चार पोतों ने दी। धार्मिक मान्यताओं पर विश्वास करें तो अंतिम संस्कार कोई भी सम्पन्न करा सकता है किन्तु अदृश्य की उत्पत्ति का अधिकार शास्त्रों में पुत्र और पौत्र के अलावा राजा व ब्राह्मण को ही होता है। भले ही धर्म के पुरोधा मानंे कि शवदाह के बाद का काम ब्राह्मण ही करेगा वरना आत्मा भटकेगी और अगले जन्म में शरीर का अंग-प्रत्यंग भी ठीक-ठाक नहीं होगा पर इन महिलाओं की मानें तो यह पुरूष प्रधान पितृसतात्मक समाज की सोच है जो सारे पुण्य अकेले ही लूटना चाहता है। हिमाचल प्रदेश की घटना समाज के सामने यह भी सवाल खड़ा करती है कि अपने माँ-बाप की देखरेख न करने वाले बेटों को धार्मिक मान्यताओं के नाम पर माँ-बाप की अर्थी में कंधा देने का क्या नैतिक अधिकार है? निश्चिततः उस निरक्षर दलित महिला ने इसी बहाने माँ-बाप के प्रति संतानों को दायित्व बोध का पाठ भी पढ़ाया।
याद कीजिये ‘बीबी हो तो ऐसी’ फिल्म में नायिका रेखा का घोड़ी पर सवार होकर दूल्हे के द्वार बारात ले जाना। इस फिल्मी कथानक को भी लड़कियों ने हकीकत में बदल दिया। संयोग से इसकी शुरूआत भी कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस से ही हुई यानी भोलेनाथ की नगरी में गंगा एक बार फिर उल्टी बही। इस सब के पीछे कश्यप फिल्म एण्ड टेलीविजन रिसर्च इन्स्टीट्यूट के निदेशक डा0 डी0एल0कश्यप की प्रमुख भूमिका रही, जिन्होंने अपने तीन बेटों और दो बेटियों के हाथ बनारस के घमहापुर गाँव में एक साथ एक ही मण्डप में पीले किये। अभी तक दहेजलोलुप दूल्हों को लड़कियों द्वारा विवाह मण्डप से बाहर निकालने या शराबी दूल्हे के साथ विवाह करने से इन्कार करने जैसे उदाहरण ही सामने आये हैं पर परम्पराओं को दरकिनार करते हुए डा0 कश्यप के तीनों बेटों से विवाह करने उनकी दुल्हनें घोड़ी पर सवार होकर मय बारात उनके दरवाजे आयीं जहाँ दूल्हे के पिता ने बहुओं की आगवानी की तथा उन्हें घोड़ी से उतारकर उनका पाँव पूजा। जबकि परम्परा है कि लड़की का पिता दूल्हे का पाँव पूजता है। प्रतीकात्मक द्वारपूजा के बाद दुल्हनों को मंच पर महाराजा कुर्सी पर बिठाया गया और फिर दूल्हे राजा मंच पर आये। लड़की वालों की ओर से निभाये जाने वाले सभी रस्मोरिवाज लड़कों के पिता ने पूरे किये। इस विवाह में न तो कोई मंत्र पढ़ा गया और न ही सात फेरों के साथ कसमें खायी गयीं, अपितु सिर्फ जयमाल व सिन्दूरदान हुआ। इसी प्रकार जयपुर में कानून की छात्रा रही दो जुड़वा बहनें अपनी शादी के अवसर पर निकाली जानेवाली ‘बिन्दौरी’ में घोड़ी पर सवार होकर निकलीं। उनका मानना था कि- ‘‘यह क्रांतिकारी कदम दर्शाता है कि हमारे समाज में लड़के-लड़कियों में कोई भेद-भाव नहीं है।’’ उ0प्र0 के जौनपुर में जब शादी पश्चात एक लम्बे समय तक पति अपनी विवाहिता को लेने नहीं पहुँचे तो कुछेक लड़कियाँ खुद ही बारात (गौना) लेकर पतियों के दरवाजे पहुँच गयीं।
सामान्यतः शादी योग्य लड़कियांे के लिये लड़के ढूँढ़ने का काम पुरूष वर्ग का माना जाता रहा है पर लखनऊ के अमीनाबाद में रहने वाली नीलम पाण्डे 1996 से इस कार्य को सहजता के साथ कर रही हैं और अब तक उन्होंने सैकड़ों शादियाँ करवाई हैं। नीलम बेबाक रूप में स्वीकारती हैं कि- ‘‘वर्तमान परिवेश में शादी को लेकर सबसे बड़ी समस्या यह है कि दस काबिल लड़कियों पर मुश्किल से एक लड़का ढूँढ़ने पर मिलता है।’’ शायद यही कारण है कि तमाम लड़कियों ने अब अयोग्य वरों को शादी के मण्डप से बाहर निकालना आरम्भ कर दिया है। दुल्हन के वेश में सजी-धजी बैठी ये लड़कियाँ किसी ऐसे व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में नहीं चाहती, जो उनको व उनके परिवार को प्रतिष्ठाजनक स्थान न दे सके या दहेज की आड़ में धनलोलुपता का शिकार हो। अब तो कुछ ऐसे भी मामले सामने आ रहे हैं, जहाँ लड़की ने कलयुग में स्वयंवर रचा कर वर चुनने की आजादी ली हो। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के घुमका गाँव में 8 जुलाई 2008 को एक लड़की अन्नपूर्णा ने स्वयंवर द्वारा अपना पति चुना। 8वीं पास 22 वर्षीया अन्नपूर्णा द्वारा स्वयंवर रचा कर वर चुनने की योजना का शुरू में समाज में काफी विरोध हुआ लेकिन समाज की परवाह किए बिना वह अपने रास्ते चलती रही। आखिरकार समाज भी साथ हो गया। स्वयंवर के प्रचार के लिए बाकायदा इलाके में पोस्टर लगाए गए और पास-पड़ोस के गाँवों में डुग्गी और लाउडस्पीकर के जरिए भी लोगों को इसकी जानकारी दी गई थी। स्वयंवर में शामिल होने वाले युवाओं की अधिकतम उम्र 26 साल तय की गई थी। अन्नपूर्णा से विवाह के इच्छुक लोगों को उसके पाँच धार्मिक सवालों का जवाब देना था। हल्बा आदिवासी समुदाय के युवकों को ही इसमें शामिल होने की अनुमति थी। स्वयंवर में केवल तीन युवक ही शामिल हुए। इनमें मात्र 12वीं पास और पेशे से किसान घनाराम नामक व्यक्ति ने स्वयंवर में पूछे सभी पाँच सवालों के सही जवाब दिये और अन्नपूर्णा ने इस व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में चुना।
वक्त के साथ पुरानी परम्परायें टूटती हैं और नयी परम्परायें स्थापित होती हैं। आंध्रप्रदेश का तिरूपति बालाजी मंदिर पूरे विश्व में विख्यात है और हर दिन यहाँ बेशुमार लोग भगवान बालाजी कोे अपने केश अर्पित करने आते हैं। इनमें अच्छी खासी तादाद महिलाओं की होती है और एक लम्बे समय से मंदिर में महिला मुण्डनकर्मियों को बिठाने की माँग उठती रही है। 31 मार्च 2005 को एक लम्बे संघर्ष बाद नाईनों को यहाँ नियुक्त करने का फैसला किया गया। इसके बाद तो इस निर्णय को भी धार्मिक आस्थाओं से जोड़कर देखा जाने लगा और तर्क दिया गया कि- ‘‘प्रतीकात्मक रूप से स्त्रियाँ देवी लक्ष्मी की प्रतिनिधि हैं इसलिए उन्हें मुण्डन कर्म नहीं करना चाहिए क्योंकि यह कृत्य उनकी दरिद्रता को दर्शाता है।’’ पर नाईनों ने हार नहीं मानी और तर्क दिया कि इस कार्य से उन्हें रोजगार मिलेगा और उनकी दरिद्रता व गरीबी दूर हो सकेगी। यही नहीं कर्म के आधार पर पुरूष नाईयों से अपने को कमतर नहीं आंकने वाली इन महिलाओं ने यह भी कहा कि उनसे बाल उतरवाने वाली महिलायें अपने को ज्यादा सहज महसूस कर सकेंगी।
राजस्थान सदैव से सामंती समाज माना जाता रहा है पर उस सामंती समाज की विधवाओं ने उन अमानवीय सामाजिक रूढ़ियों को दुत्कारने का साहस दिखाया है, जहाँ सती प्रथा जैसी बुराईयों के महिमामण्डन के जरिये विधवाओं से जीने का हक तक छीना जाता रहा है। यह वही राजस्थान है जहाँ 1987 में देवराला सती काण्ड के दौरान सती रूपकँवर के चबूतरे पर चूड़ियाँ और सिन्दूर चढ़ाने की स्त्रियों में होड़ सी मची थी। अब उसी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में ‘एकल नारी शक्ति संगठन’ के नेतृत्व में वैधव्य जीवन जी रही हजारों स्त्रियों ने उन साज-श्रंृगारों का इस्तेमाल करना आरम्भ कर दिया है जो विधवा होते ही समाज उनसे छीन लेता है। हाथों में मंेहदी, कलाईयों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, माथे पर बिंदिया और खूबसूरत परिधानों के साथ ये विधवायें मांगलिक कार्यों में भी बढ़-चढ़ कर अपनी सहभागिता दर्ज करा रही हैं।
मुस्लिम समुदाय में जहाँ काजी का काम पुरूष के बूते का ही माना जाता रहा है, एक नारी ने पुरूषों का वर्चस्व तोड़ दिया है। पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के गाँव नंदीग्राम की काजी शबनम आरा बेगम इस देश की पहली महिला काजी हैं। शबनम के काजी बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं। अपने काजी पिता की सातवीं बेटी शबनम ने पिता के लकवाग्रस्त हो जाने पर निकाह कराने में उनकी मदद करना आरम्भ किया। शरीयत का अच्छी तरह इल्म हो जाने पर पिता जी ने उसे नायब काजी बना दिया। सन् 2003 में पिता जी की मौत के बाद शबनम ने अपने पैरों पर खड़े होने हेतु काजी बनने का रास्ता चुना और संयोग से काजी के रूप में उनका पंजीयन भी हो गया। पर काजी बनने के बाद शबनम की असली दिक्कतें आरम्भ हुयीं। अंततः धमकियों और मुकदमों के बीच शबनम अपने को काजी पद के योग्य साबित करने में सफल हुयीं।
21वीं सदी में जब महिलायें, पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, ऐसे में सामाजिक व धार्मिक रूढ़ियों की आड़ में उन्हें गौण स्थान देना जागरूक महिलाओं के गले नीचे नहीं उतर रहा है। यही कारण है कि ऐसी रूढ़िगत मान्यताओं और परम्पराओं के विरूद्ध उन्हीं क्षेत्रों से सामाजिक बदलाव की बयार चली है, जिन्हें इन रूढ़िगत कर्मकाण्डों का गढ़ माना जाता रहा है। इस सामाजिक बदलाव का कारण जहाँ महिलाओं में आई जागरूकता है, जिसके चलते महिलायें अपने को दोयम नहीं मानतीं और कैरियर के साथ-साथ सामाजिक परम्पराओं के क्षेत्र में भी बराबरी का हक चाहती हैं। वर्षों से रस्मो-रिवाज के दरवाजों के पीछे शर्मायी -सकुचायी सी खड़ी महिलाओं की छवि अब सजग और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व में तब्दील हो चुकी है। आधुनिक महिलायें इस तर्क को बेबाकी से खारिज करतीं हैं कि पुण्य कमाने के क्षेत्र में ईश्वर ने पुरूषों को ज्यादा अधिकार दिये हैं। ऐसे तर्कों को वे पुरूष प्रधान पितृसतात्मक समाज की सोच मात्र मानती है। उनके लिये सवाल अब परम्पराओं का ही नहीं वरन् उनके कसौटी पर खरे उतरने का भी है। मात्र किसी धार्मिक गं्रथ के उद्धरणों के आधार पर नारी शक्ति को दबाया नहीं जा सकता। अब ये महिलायें पूछने लगी हैं कि पुण्य के कामों के समय हाथ पर बाँधा जाने वाला कलावा लड़कों के दायें और लड़कियों के बायें हाथ पर क्यों बाँधा जाता है, क्यों नहीं दोनों के एक ही हाथ पर बाँध दिया जाता है? यदि पूजा-पाठ या पुण्य के कार्य कराने के लिए जनेऊ धारण करना शास्त्रों में जरूरी माना गया है तो पुरोहित का कार्य करने वाली महिला जनेऊ क्यों नहीं धारण कर सकती? योग्यता चाहे वह पुरूष की हो अथवा महिला की- बराबर ही कही जायेगी। धर्म या परम्परा की आड़ में अतार्किक आधार पर स्त्रियों को तमाम सुविधाओं से वंचित करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। कोई महिला यदि किसी क्षेत्र में जाना चाहती है तो मात्र इसलिए कि वह एक महिला है, उसको उस क्षेत्र में जाने से नहीं रोका जा सकता। आखिर अपनी पसन्द का क्षेत्र चुनने का सभी को अधिकार है। प्रख्यात ज्योतिषी के0ए0दुबे पद्मेश जैसे विद्वान भी इन छात्राओं के कदम से उत्साहित दिखते हैं और इससे प्रेरित होकर अपना उत्तराधिकारी किसी नारी को ही बनाना चाहते हैं। फर्क मात्र इतना है कि आजादी के दौर में भी कुछ महापुरूषों ने इन रूढ़िगत सामाजिक मान्यताओं के विरूद्ध आवाज उठायी थी पर अब महिलायें सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रही हैं वरन् इन रूढ़िगत मान्यताओं को पीछे ढकेलकर नये मानदण्ड भी स्थापित कर रही हैं।
कृष्ण कुमार यादव
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23 comments:
बहुत ही सशक्त लेखन का परिचय .....और ढेर साड़ी जानकारी से भरा है ...यकीनन स्त्रियाँ बेडियाँ तोड़ रही हैं ...उन्हें यूँ ही आगे बढ़ते रहना चाइए .... लेकिन उनकी तरह नहीं जो पाश्चात्य संस्कृति की नग्नता को साथ लेकर चलती हैं चुइंगम चबाकर ......
कर्मकांडी पुरोहित बनना एक पेशा है, तो अच्छा है कि औरतें भी इस क्षेत्र में आ रही हैं। लेकिन कर्मकांड का जवाब कर्मकांड ही क्यों हो?खास तौर पर औरतों के लिए तो कर्मकांड हमेशा गुलामी का औजार रहे हैं। क्यों न ऐसी शुरुआत की जाए जहां कर्मकांड की जरूरत ही न पड़े।
यह तो वैसा ही हुआ कि किसी जमाने में अफ्रीकियों को गुलाम बनाया जाता था तो बदलाव के बाद अफ्रीकी लोग गोरों को गुलाम बनाएं।
असल मुद्दा तो है कि गुलामी का रिवाज ही खत्म हो, और साथ ही खत्म हो वह मानसिकता जिसके तहत कोई इंसान गुलाम बनाया जाता है।
मैं जानने को उत्सुक हूं कि कितने लोग इस मुद्दे पर मेरे साथ खड़े हैं।
इसी मुद्दे पर मेरी 01-नवंबर 2008 की पोस्ट 'अपनी ज़मीन खुद तय करो'
(http://blog.chokherbali.in/2008/11/blog-post.html) भी देख सकते हैं।
बहुत बढ़िया लेख ! स्त्री यूँ ही आगे बढ़ती रहेगी तो बहुत सी समस्याएँ हल हो जाएँगी। धर्म के क्षेत्र में भी वे आगे बढ़ी हैं यह सराहनीय है। परन्तु यह भी सच है कि धर्म स्त्री के लाभ के लिए बना ही नहीं है। जीविका कमाने के लिए गंजा भी नाई बन जाए वैसे ही स्त्रियाँ भी ये काम करें तो ठीक ही है। वैसे इसे एक तरह से रूढ़ियों द्वारा रूढ़ियों से मुक्त होना भी कहा जा सकता है। जो भी कहें इन स्त्रियों को दाद दिए बिना नहीं रहा जा सकता।
लेख व इतना कुछ बताने के लिए धन्यवाद।
घुघूती बासूती
क्या खूब लिखा कृष्ण कुमार जी ने. पढ़कर अच्छा लगा. इतने ज्वलंत उदहारण तो विरले ही किसी लेख में देखने को मिलते हैं. नारी-सशक्तिकरण को धार देता यह आलेख चोखेरबाली के अभियान को ही मजबूती देता है.
इस लेख ने एक बार फिर से नारी समाज को गौरवान्वित किया है. नारी को कमजोर और असहाय समझने वाले लोगों को इससे सीख लेनी चाहिए.
वर्षों से रस्मो-रिवाज के दरवाजों के पीछे शर्मायी -सकुचायी सी खड़ी महिलाओं की छवि अब सजग और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व में तब्दील हो चुकी है। आधुनिक महिलायें इस तर्क को बेबाकी से खारिज करतीं हैं कि पुण्य कमाने के क्षेत्र में ईश्वर ने पुरूषों को ज्यादा अधिकार दिये हैं।....बहुत सही लिखा आपने कृष्ण जी!!
Nice Article...Congts.
महिला दिवस पर युवा ब्लॉग पर प्रकाशित आलेख पढें और अपनी राय दें- "२१वी सदी में स्त्री समाज के बदलते सरोकार" ! महिला दिवस की शुभकामनाओं सहित...... !!
फर्क मात्र इतना है कि आजादी के दौर में भी कुछ महापुरूषों ने इन रूढ़िगत सामाजिक मान्यताओं के विरूद्ध आवाज उठायी थी पर 21वीं सदी के इस दौर में महिलायें सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रही हैं वरन् इन रूढ़िगत मान्यताओं को पीछे ढकेलकर नये मानदण्ड भी स्थापित कर रही हैं......बहुत उम्दा विश्लेषण और सारगर्भित आलेख.
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ढेरों शुभकामनायें !!
आर. अनुराधा said...
कर्मकांडी पुरोहित बनना एक पेशा है, तो अच्छा है कि औरतें भी इस क्षेत्र में आ रही हैं। लेकिन कर्मकांड का जवाब कर्मकांड ही क्यों हो?खास तौर पर औरतों के लिए तो कर्मकांड हमेशा गुलामी का औजार रहे हैं। क्यों न ऐसी शुरुआत की जाए जहां कर्मकांड की जरूरत ही न पड़े।
MaiN Anuradha se 100% sahmat huN khaskar is khatarnaak tathya ko dhyan meN rakhte huye ki 'karm-kand' aur 'dharm-kand' hi strioN ko gulam banaye rakhne ki vajah aur zariya rahe haiN aur aaj bhi jab-jab strioN ko vapis modne ki zarurat hoti hai, inhi ka sahara liya jata hai.
जब तक देश के दूर दराज गाँवों में भी बालिका शिक्षण की सुविधाए होगी ,ओर उनके माँ बाप में उन्हें पढाने की इच्छा ..ओर धर्म ओर रीती रवाजो के बहाने चतुराई से पहनाई हुई जंजीर को उतारा नहीं जायेगा .....एक सभ्य ओर आधुनिक शहर में भी उन्हें देह से इतर कुछ समझा नहीं जायेगा ..न केवल ग्राम पंचायत ओर संसद में मात्र नाम की नहीं वास्तव में भागीदारी होगी ... ओर परिवार में भी निर्णय लेने में उनकी भागीदारी नहीं होगी ..ओर खुद स्त्री स्त्री की दुश्मन नहीं होगी तभी ओर तभी कुछ बात होगी वर्ना इन झुनजूनो को पकड़ने से कुछ नहीं होगा
मैं अनुराधा, संजय और अनुराग से १००% सहमत हूँ।
साथ ही ये भी जोड़ना चाहती हूँ, की कर्मकांडो मे और पुरोहिताई मे औरत की भागीदारी आज के समय मे कोई बड़ी बात नही है। न ही ये किसी सचेत प्रक्रिया की उपज है, जिसके फलस्वरूप औरतों मे इस भागीदारी की इच्छा उपजी हो। इसे लिबरल और प्रगतिशील महिलाओं के द्वारा जो एक लंबा संघर्ष भारत और उसके बाहर चला है, उसके साईड़ इफेक्ट के बतौर देखना ज्यादा उचित होगा।
वैसे भी वैश्वीकरण की आर्थिक व्यवस्था ने पुराणी पीडी के मुकाबिले, आज की पीढ़ी के लिए कामगार से लेकर, कस्टमर सेण्टर और दूसरे अनेक तरह के रोजगार खोल दिए है। सरकारी नौकरियों से ज्यादा, एन जी ओ, की नौकरिया आकर्षक हो गयी है। एक ऐसे समय मे पुरुषो के लिए पुरोहिताई, बहुत आकर्षक नही है। समाज मे ये जो जगह खाली हुयी है, इसी को स्त्री पुरोहितो से भरा जा रहा है, और इसीलिये, ये न सही तो ये सही, की तर्ज़ पर सिर्फ़ स्त्री ही नही, दलित, और गैर-ब्राहमण जातिया भी इस पुरोहिताई का हिस्सा बन गयी है, जो उनके लिए सदा से वर्जित था। सो इसे सिर्फ़ स्त्री स्वतंत्रता के मुद्दे की तरह न देखा जाय। ये सिर्फ़ मांग और आपूर्ती का मामला है। और स्त्री के बराबरी और उसके मानव अधिकारों से इससे कुछ हासिल होगा, ये कम से कम मुगालता मुझे नही है।
ये गैर-बरहमन , और स्त्री पुरोहित भी कट्टर रूप से जातिवादी, और साम्प्रदायिक ही है, ऐसी धारणा इनमे से कुछ को देख कर मेरी बनी है। मानव मात्र की समानता की भावना इनमे नही है। जब आज ऑफिस जाती औरत, विमान चलाती औरत, और रास्ट्रपति औरत स्वीकार्य है, तो फ़िर पुरोहित औरत तो मुह मे घी-शक्कर है, इस पित्र्सत्ताक समाज के लिए ।
अगर भारत के इतिहास को देखा जाय तो इससे मिलता जुलता उदहारण अभी पुराना नही पड़ा है। ब्रिटिश रूल के समय, भारत मे इतने ब्रिटिश नही थे जो उनके तन्त्र को और भारत के बड़े समुदाय को परतंत्र रख सकते। इसीलिये, उनकी पुलिस , आर्मी, और प्रसाशन तंत्र मे तमाम भारतीय थे, जो उनकी इस गुलामी की व्यवस्था को सम्भव बनाते थे। सिर्फ़ आदेश और कमांड ब्रिटिश हाथो मे था, जिस पर भारत का एक बड़ा हिस्सा अपनी वफादारी, जान तक लगाने को तैयार था। पर क्या उस व्यवस्था का अंग बनकर, भारत को या सिर्फ़ उन भारतीयों को भी आजादी मिली? आज़ादी तो उस व्यवस्था को चुनौती देकर, अवरोध खड़े करके, और अवज्ञा से ही हासिल हुयी है।
दूसरा बड़ा सवाल ये भी है की क्या स्त्री एक शोषक व्यवस्था का एक अंग बनकर बराबरी पा सकती है ? या फ़िर दूसरे शोषितों के लिए उम्मीद की कोई किरण ला सकती है? या फ़िर एक ज़र्ज़र व्यवस्था को जीवनदान दे कर आज़ादी की राह को जाने-अनजाने और कठिन बना देंगी? क्या ये औरते, उन वैदिक मान्यताओं और रूढियों पर भी सवाल उठाएगी जो औरत की अस्मिता और स्वाभिमान पर वार करती है? क्या कभी ये कन्यादान जैसी प्रथा का, दहेज़ विरोध और घरेलु हिंसा का प्रतिकार भी करेंगी? इन स्त्रीयों को जो पुरोहित है, और जिन्हें नया-नया ये मुल्लापन नसीब हुया है, को स्वीकारना मर्दवादी समाज के लिए वरदान है। एक तो इनसे जुड़े परिवारों के लिए सीधा आय का साधन। और वृहतर समाज के लिए अपनी सविधा को बनाए रखने का आसान तरीका, एक नए तरह से औरतों का ब्रेन वाश।
बहुत सुंदर आलेख है .... ढेर सारी जानकारी से भरा हुआ .... पर एक महिला होने के नाते गर्व तबतक नहीं हो सकता ... जबतक की सारी महिलाओं को समान अधिकार न मिल सके ... अभी भी बहुत कम जगहों पर महिलाएं पुरूषों के समकक्ष हो पायी हैं ... इसलिए नहीं कि उनमें प्रतिभा की कमी है ... वरन इसलिए कि उन्हें समुचित माहौल नहीं मिल पा रहा ... समाज के निम्न तबकों में तो महिलाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय है।
बहुत सुंदर लेख । स्त्रियों की हर क्षेत्र में भागीदारी के ज्वलंत उदाहरण । अभी भी 80-90 प्रतिशत लोग वैदिक
परंपराओं के अनुसार ही विवाह मुंडन, दहन आदि करना चाहते हैं । लडकियों औरतों का इस क्षेत्र में आना
बहुत ही अच्छा है । प्रेम विवाह करने वाले लडके लडकियों को पंडितों की कमी नही रहेगी । पुराना सब कुछ जैसे सोना नही होता वैसे ही कचरा भी नही होता ।
अपने संस्कृती का अभिमान होना बहुत अच्छी बात है ।
नये में भी वही स्वीकार्य हो जो उत्तम है ।
इस संदर्भ में आज के राष्ट्रीय सहारा में छपा मुद्राराक्षस जी का लेख आंशिक रुप से प्रासंगिक है। स्वप्नदर्शी ने अच्छा विश्लेषण किया है। दरअसल तो ये वे तरीके हैं जिनके ज़रिए एक शोषित को शोषित के खिलाफ, पिछड़े को पिछड़े के खिलाफ, औरत को औरत के खिलाफ, ठगे हुए को ठगे हुए के खिलाफ खड़ा कर दिया जाता है। यह तो वैसा ही उदाहरण है कि जब श्रमिकों का लीडर उनकी मांग लेकर सेठजी के कमरे में घुसता है और थोड़ी देर बाद अंदर से सेठजी का आदमी बनकर बाहर निकलता है। अब वह ‘डबल क्रास’ करना शुरु कर देता है। मैं अपने आस-पास कुछेक ऐसे अनुभवों से गुजरा हूं जब किसी मजबूर दलित को उसका पारंपरिक, शोषक मंदिर के बाहर वाली सीट, मोहल्ले की एक और गली साफ करने का ठेका जैसे लालच और सनातन भय दिखाकर उसे उसके वास्तविक हितचिंतकों से दूर कर देता है या लड़ा देता है। जो मूल बीमारी है उसे ही हम स्वास्थ्य समझने लगेंगे तो इसके सिवाय हासिल भी क्या होना है ?
`सोशल ट्रीटमेंट´का संकल्प लेना होगा
महिला दिवस पर कुछ सार्थक इधर भी पड़ सकते हैं । महिला सशक्त हों.राष्ट्र सशक्त होगा
बहुत खूब. नारी से जुड़े सरोकारों पर बेहतरीन प्रस्तुति. आपका अंदाजे-बयां पसंद आया.
के.के. जी आपने तो समाज की कलाई ही खोलकर रख दी इस लेख के माध्यम से.
जहाँ प्रकृति पुरूष-स्त्री को बिना किसी भेदभाव के बराबर धूप-छांव बाँटती हो, वहाँ धर्म या परम्परा की आड़ में अतार्किक आधार पर स्त्रियों को तमाम सुविधाओं से वंचित करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
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बेहद तार्किक ढंग से नारी के पक्ष में आपने आवाज उठाई है...साधुवाद !!
वाह! क्या खूब लिखा है...बधाई.
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