राजकिशोर सामाजिक मामलों में खुशी और गम का अद्भुत मिलान होता है। पंद्रह अगस्त औरछब्बीस जनवरी की तरह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस भी एक मुट्ठी में खुशी और दूसरी मुट्ठी में गम लेकर आता है। अगस्त और जनवरी के पर्व हमारे पुरखों के संघर्ष की यादगार बन कर आते हैं और हमें स्वाधीनता संघर्ष के मूल्यों और आदर्शों की याद दिलाते हैं। वह समय इतना दूर भी नहीं था कि उसकी अनुगूंजें हमें झंकृत न कर दें। देश में अभी भी ऐसे हजारों लोग जीवित हैं जिन्होंने इस संघर्ष में हिस्सा लिया था और अपना बहुत कुछ गंवाया था। यही वजह है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर देश की उपलब्धियों का मूल्यांकन करते समय हमारा मन उदास हो जाता है। हमें लगता है कि हमारे साथ धोखा हुआ है और इन दोनों दिवसों पर होनेवाले समारोह बिलकुल रस्मी हैं। क्या अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का चरित्र भी कुछ ऐसा ही है? जब राष्ट्र संघ ने हर साल 8 मार्च को विख्ा महिला दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया, तब तक दुनिया भर में स्त्री चेतना का संघर्ष एक निर्णायक दौर तक पहुंच चुका था। लेकिन इस संघर्ष को पश्चिमी देशों में जैसी सफलता और मान्यता मिली, वह विश्व के अन्य भूखंडों में रहनेवाली आधी आबादी को नहीं मिल सकी। जहां तक हमारे अपने देश का सवाल है, हमने अपने संविधान में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर जगह देने में जरा भी कृपणता नहीं की। हमारा संविधान बनानेवालों ने उन परिस्थितियों में जितना आदर्श संविधान बनाना संभव था, उसकी पूरी कोशिश की। उस विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उन महानुभावों की थी, जिन पर इस दस्तावेज को लागू करने की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी थी। था। यह काम कितना हुआ और कितना नहीं हुआ, यह हमारे सामने है। किसी भी देश के सांस्कृतिक विकास को आंकने का यह एक विश्वसनीय पैमाना हो सकता है कि वहां स्त्रियों की हालत कैसी है। इस मामले में हम भारतीय अपने आप पर बहुत ज्यादा इतरा नहीं सकते। यही कारण है कि भारत में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस स्त्रियों का कोप दिवस बन जाता है। वे तरह-तरह के तथ्य और आंकड़े जुटा कर यह साबित करती हैं कि देखो, आज भी हमारे साथ कितना अन्याय हो रहा है। इस दिन हर मुखर स्त्री समाज के विरुद्ध अपने एफआईआर को फिर से लिखती है और उसमें नई घटनाएं जोड़ती है। महिला दिवस पर गाना-बजाना कम होता है और दुखड़ा ज्यादा रोया जाता है। यह स्वाभाविक भी है। साल भर में हम जितनी समस्यओं से फारिग होते हैं, उससे ज्यादा नई समस्याएं पैदा हो जाती हैं। इसलिए भारत में नारी संघर्ष के कम से कम दो चेहरे हैं। एक चेहरा मध्यवर्गीय महिलाओं का है, जिसकी मुख्य मांग आजादी की है। वह अपने शरीर को लेकर, अपनी आत्मा को लेकर और अपनी पारिवारिक तथा सामाजिक भूमिका को लेकर बहुत ही सचेत हैं और अपने सारे अधिकार हासिल करना चाहती है। दूसरा चेहरा ग्रामीण महिलाओं या शहर में रहनेवाली गरीब महिलाओं का है। उनके लिए स्वतंत्रता से ज्यादा मूल्य दैनंदिन जीवन की सुविधाओं का है। उन्हें देह की आजादी से ज्यादा प्यारी है कई किलोमीटर दूर से पानी लाने और ढिबरी या लालटेन की मद्धिम रोशनी में चूल्हा-चौका करने के बोझ से आजादी। वे मूर्ख या पागल हैं जो इन दोनों आजादियों को एक-दूसरे के विकल्प के रूप में देखते हैं। जीवन में इस तरह का बंटवारा नहीं होता और न चलता है। यही कारण है कि भारत में महिला आंदोलन तेज नहीं हो पा रहा है। ऐसा लगता है जैसे स्त्रियों के दो अलग-अलग लोक हैं और उनके बीच कोई संवाद नहीं है। मध्यवर्गीय औरत अपने लिए जिन स्वतंत्रताओं की मांग करती हैं, वे सभी स्वतंत्रताएं गरीब औरतों को भी चाहिए और उन्हें भी तुरंत चाहिए - कल या परसों नहीं। लेकिन इन स्वतंत्रताओं का उपभोग एक ऐसे ढांचे में ही किया जा सकता है जिसमें मूलभूत भौतिक स्वतंत्रताएं सभी को हासिल हों। सच तो यह है कि आर्थिक सुरक्षा की चिंता भारत की मध्यवर्गीय महिलाओं के लिए भी उतना ही बड़ा मुद्दा है जितना निर्धन महिलाओं के लिए। कोई औरत नौकरी करने जाती है, महज इससे यह अनुमान नहीं कर लेना चाहिए कि उसे आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हो गई है। असली सवाल यह है कि वह जो पैसा कमा रही है, उसे खर्च करने का अधिकार किसके पास है। हमारे परिवारों में अभी भी लोकतंत्र नहीं है। लोकतांत्रिक माहौल बनाए बिना परिवार में या समाज में किसी भी वर्ग के वास्तविक अधिकारों की रक्षा नहीं की जा सकती। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर शहरों में और मीडिया में तरह-तरह के रंगारंग आयोजन होते हैं तथा धरना-प्रर्दानों का तांता लग जाता है, लेकिन कोई भी समूह अपने शहर की वेश्या टोलियों में जा कर उन औरतों को मुक्त कराने के बारे में नहीं सोचता जो शोषण और दमन की सबसे बुरी शिकार हैं? यहां शहरी और ग्रामीण को कोई भेद नहीं रह जाता। ये औरतें पेशा तो शहरों में करती हैं, पर भगाई और उठाई गांवों और कस्बों से जाती हैं। यह औरतों का तीसरा वर्ग है, जिसके प्रति औरतों के बाकी दोनों वर्गों में पूर्ण उदासीनता देखी जाती है। इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर एक प्रयोग किया जाना चाहिए। पुरुषों को, पितृसत्तात्मकता को और व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने के बजाय महिला समूह अपनी अभी तक की गतिविधियों पर विचार करें और अपने विश्वासों का वस्तुपरक परीक्षण करें। सिर्फ मांगने से जो मिलता है, वह अकसर सांकेतिक होता है, वास्तविक नहीं। इसी तरह, मांग रखनेवालों को तभी कुछ हासिल होता है जब उनमें कुछ दम हो। सवाल है यह दम कैसे हासिल किया जाए। इसके लिए साफ समझ, आत्मीय सामूहिकता और संघर्ष का ठोस कार्यक्रम होना चाहिए। _________________________ | |
आज के दिन हिन्दी ब्लॉग जगत मे महिला दिवस सम्बन्धी विविध पोस्ट - आज महिला दिवस पर हत्या,बलात्कार के विरुद्ध धरना पुरुष की घबराहट का प्रतीक है महिला महिला दिवस पर महिलाओं की भारतीय क्रिकेट टीम का तोहफा नारी आखिर क्या?महिला दिवस से पूर्व चर्चा और इन्तज़ार है सीता सेना के गेटवे ऑफ इंडिया पर आज के प्रदर्शन का। |
Sunday, March 8, 2009
अंतराष्ट्रीय महिला दिवस - खुशी मनाएँ या गम
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6 comments:
महिला दिवस पर ही नहीं .....हमें .हमेशा ही अपने पर गर्व है ....अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभ कामनाएं
बधाई सुजाता जी इतने उपेक्षित पर जरूरी मुद्दों को उठाने के लिये । महिला दिवस शुभ ही नही सार्थक भी हो यही शुभ कामना ।
अंतराष्ट्रिय महिला दिवस की शुभकामनाएं।
बहुत सही लिखा है आपने ... अंतराष्ट्रिय महिला दिवस की शुभकामनाएं।
आपने कई मुद्दे पर चर्चा की है । पर महिला दिवस पर ही हाय हाय क्यों यह मुद्दे तो रोज के ही हैं । महिला दिवस की शुभकामनाएं।
महिला दिवस की शुभकामनाएं ।
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