स्त्री की आज़ादी का सवाल आस्तिकता और नास्तिकता से बहुत आगे का है। और ये व्यक्तिगत आस्था के फैसलों से अधिक एक सामाजिक आन्दोलन या सचेत सामाजिक भागीदारी से ही सम्भव हो पायेगा। स्त्री अगर नास्तिक है भी तो भी इससे समाज मे उसकी भागीदारी, या सुरक्षा या फ़िर सम्मान और जीविका के समान अवसर तो मिलने से रहे।
मेरा आशय यहाँ पर ये कहना था की धर्म कोई पवित्र चीज़ नही है, एक सरंचना ही है। मनुष्य को पूरा अधिकार है उसे बदलने का, और अपनी समाज से उसमे संशोधन करने का भी। पर आशय ये भी है, जब तमाम तरह के सामाजिक संरचनाओं का जनवादीकरण किया जा सकता है, उन्हें आगे बढाया जा सकता है, तो क्या ये विकल्प धर्म के बारे मे भी रखना चाहिए? दूसरा तरीका ये भी है, की धर्म का सम्पूर्ण निषेध कर दिया जाय। परन्तु उससे जुड़े तमाम दूसरे पहलू है, और ज्ञान भी है, उसे निश्चित रूप से कूडे मे नही फेंका जा सकता है।
आज धर्म का जो स्वरुप है बहुतायत के लिए, अंध विश्वासों से घिरा हुआ, और साम्प्रदायिक भी, जो एक को दूसरे मनुष्य से नफरत करना सिखाता है और भी तमाम तरह की बुराईया लिए। या फ़िर धर्म के नाम पर जो स्वयम्भू ठेकेदार है, उनके फतवे, और धर्म का एक जो कुत्सित रूप उन्होंने बना लिया है, उससे पूरी तरह मेरी असहमति है। उसे छोड़ देने मे ही भलाई है। और इस कुत्सित रूप से जो विचलित न हो, जिसके मन मे पीडा न हो, मेरी नज़र मे वों थोडा कम मनुष्य है। और ऐसे तमाम नास्तिक सर आँखों पर।
थोडा इस तरह से भी देखा जा सकता है की धर्म बहुत से लोगो से सम्वाद कराने का प्लेटफोर्म देता है, और ज़रूरत के हिसाब से सर्वजन हिताय के लिए भी उसका इस्तेमाल हो सकता है। बुरे इस्तेमाल से तो सभी आहात है।
पर क्या उसके अच्छे इस्तेमाल के सारे दरवाजे बंद हो चुके है?
इसाई धर्म मे भी एक ज़माने मे बहस चली थी की क्या काले लोग इस लायक है की उन्हें धर्म की शिक्षा दी जाय ?
पर फ़िर वही मार्टिन लूथर किंग की तरह का एक काला पादरी, चर्च के भीतर ही मनुष्य मात्र की समानता के लिए इतना बड़ा आन्दोलन खडा कर लेता है। गांधी जी ने भी धर्म को टूल की तरह इस्तेमाल किया और पूरा हिन्दुस्तान उनके पीछे चल पडा। औरतों के लिए, दलितों के लिए, गांधी जी ने नए रास्ते खोले, सामाजिक रूप से निर्णायक भुमिका मे आने के।
मेरा आग्रह सिर्फ़ इतना है, की धर्म को भी अलग थलग न देखकर एक बनाती बिगड़ती सरंचना की तरह देखा जाय, और उसे भी समय काल और उसकी ऐतिहासिक यात्रा से अलग न देखा जाय। इसे एक सामाजिक प्रयोग की तरह देखा जाय। और निश्चित रूप से इस प्रयोग के कई ऐसे पहलू है जिनसे प्रेरणा ली जा सकती। बहुत कुछ उसमे, पवित्रता के भाव के बिना भी बचाए रखने लायक है।
जब एक तरह का विचार, या प्रतिबद्धता, सारे पुराने पर लकीर फेरकर शून्य की सतह से शुरू होती है तो वों फ़िर से गलतिया और बर्बरता को दोहराने के लिए भी अभिशप्त होती है। कई धाराओं का समांतर बहाव समाज के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। कभी-कभी मुझे लगता है की अगर अफगानिस्तान जैसी जगह पर जो एक जमाने मे बोद्ध साहित्य और शिक्षा का गढ़ था, सब कुछ एक ऐसी कट्टरता की भेट न चढ़ा होता की मूर्ती-पूजा के विरोध के नाम पर सभी कुछ ख़त्म होगया। अगर आज भी वों एक सहनशील धारा और उसके बिम्ब बचे होते, तो हालत कुछ और होती। इस्लाम के पहले का जो पैगन संस्कृति थी, अगर वों इतनी आक्रमकता से नस्ट न हुयी होती तो एक bouncing इफेक्ट समाज मे होता।
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12 comments:
पवित्रता शब्द सुजाता ने इस्तेमाल किया। लेकिन उससे आशय शायद पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता। इस पवित्रता को उस ‘ईश्वर’ से जोड़ा गया है जिसने सारे धर्मग्रन्थ लिखे। और चूंकि ये धर्मग्रन्थ ‘‘ईश्वर ने लिखे हैं’’ तो बंदे इन्हें पढ़े बिना भी इनके लिए जान देने को तैयार हैं। धर्म के साथ सबसे बड़ी और खतरनाक दिक्कत यही है। जब तक
पूरे साहस, तैयारी और तर्क के साथ ईश्वर और धर्म पर चोट नहीं होगी तब तक आम आदमी की नजर में धर्म और ईश्वर अपराजेय और अपरिवर्तनीय बने रहेंगे। बात फिर वहीं आती है कि हम इन सब चीज़ों को आम नज़रिए से देखें अन्यथा मेरे और आपके बीच तो समस्या किसी भी स्तर पर सुलझाई जा सकती है। बल्कि समस्या है ही नहीं।
गांधी जी ने जो किया वो किसी सामाजिक बदलाव का काम नहीं था। अगर करते तो क्या पता उन्हें भी वी पी सिंह की तरह न जाने क्या क्या विशेषण दे दिए जाते।
अफगानिस्तान में मूर्तिपूजा के विरोध के नाम पर जिन्होंने ‘सब-कुछ’ नष्ट किया, मुझे नहीं लगता कि वे मूर्तिपूजकों से बहुत अलग समझ वाले लोग रहे होंगे। मेरे अपने परिवार में आर्यसमाज का प्रभाव रहा। पर मुझे बचपन से हैरानी होती रही कि मूर्ति की जगह फोटो टांग देने से आखिर क्या बदलाव आ जाएगा। यज्ञ को हवन कहने और करने से क्या अंतर हो जाएगा। जरुरी नहीं कि हर विरोध के पीछे यथोचित समझ, संवेदना, तार्किकता, बौद्धिकता रही हों।
कुल मिलाकर, अगर धर्म/धार्मिक कार्यों को समय के साथ अपडेट किया जाये तो सब ्ठीक रहेगा.
धर्म शब्द ही बहुत भ्रामक है। माता पिता की सेवा करना, बच्चों का वयस्क होने तक पालन पोषण करना मेरा धर्म है, किसी असहाय की सामर्थ्य के अनुसार सहायता करना मेरा धर्म है।
लेकिन वहीं यह शब्द इस्लाम, बौद्ध, ईसाई आदि पद्यतियों के लिए भी प्रयोग किया जाता है।
इस तरह धर्म एक बहुत सारे अर्थ देने वाला शब्द है।
ईश्वर क्या है? इस प्रश्न का अनेक प्रकार से उत्तर दिया जाता है। मैं किसी भी उत्तर से संतुष्ट नहीं।
एक अद्वैत वेदान्त का दर्शन जिसे समझने की कोशिश की तो वह यह कहता नजर आया कि अस्तित्ववान भौतिक जगत की समष्टि ही ईश्वर है। यदि ईश्वर की यही अवधारणा है तो मुझे ही नहीं हर एक को मानना ही होगा कि ईश्वर है।
नारी मुक्ति एक आंदोलन है जो नारी को पुरुष के समान अधिकार दिलाना चाहता है। यदि यह सही है तो तमाम धर्मों को त्यागना ही होगा क्यों कि कोई भी धर्म ऐसा नहीं जो नारी को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करता हो। किसी भी धर्म से बंध कर नारी मुक्त हो कर समान अधिकार प्राप्त नहीं कर सकती। नारी मुक्ति आंदोलन अपने लक्ष्य के लिए काम करे। यदि कोई धर्म और ईश्वर उस के आड़े आता है तो उन धर्मों और ईश्वर को नकारना ही होगा।
धर्मों और ईश्वर के लिए खुद को बचाए रखने का एक रास्ता जरूर यह हो सकता है कि वे नारी के समान अधिकारों को व्यवहारिक रूप से स्वीकार कर लें।
दिनेशराय द्विवेदी ji ke comments padh kar kuchh rahat milti hai.
स्त्री अगर नास्तिक है भी तो भी इससे समाज मे उसकी भागीदारी, या सुरक्षा या फ़िर सम्मान और जीविका के समान अवसर तो मिलने से रहे।
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स्त्री अगर नास्तिक है तो इससे कम से कम उसे मूर्ख नही बनाया जा सकेगा - धर्म के नाम पर - पत्नी धर्म , माता धर्म , स्त्री का धर्म और धर्म ये कहते हैं कि स्त्री का धर्म क्या हो आचरण क्या हो स्थिति क्या हो?क्योंकि धर्म के नाम पर जितने अधर्म हुए हैं उसके हम सभी साक्षी हैं।यह बहुत महत्वपूर्ण है!और जब बार बार बात होती है कि पुरुषों को दोष देने की बजाए आप खुद को बदलिए तो यह उसकी सबसे दृढ शुरुआत हो सकती है।
******और ज्ञान भी है, उसे निश्चित रूप से कूडे मे नही फेंका जा सकता है।******
जानने का मन होता है कि यह ज्ञान, यह छुपा खज़ाना आखिर है क्या? और क्या यह धर्मग्रन्थों से इतर, अलग या अन्य साधनों से ज़्यादा बेहतर, गेय, सरल और संप्रेषणीय ढंग से उपलब्ध नहीं है !
धर्म अपने सही अर्थों में केवल हिन्दू धर्म है। बाकी सब पन्थ हैं, जो अलग अलग पूजा पद्धतियों की पैरोकारी करते हुए अपने पैगम्बर की बातों को ही एकमात्र सही रास्ता बताते हैं। इस्लाम गैर-मुस्लिम को काफ़िर और क्रिस्चियन गैर-इसाई को पथभ्रष्ट मानते हैं। जबकि हिन्दू धर्म में कोई भी पूजा पद्धति अपनाने की स्वतंत्रता है। यहाँ कोई पैगम्बर नहीं है। यह एक सतत विकासशील धर्म है। जड़वत और संकुचित पन्थ नहीं।
KALYAAN HO BANDHU !
AAHA KI MAN PALLVIT HO UTHA !
AHA ! AAHA ! AHAHAHA !
ऎसे बुद्धिजीवियों को कोटिश: कौटिश: नमन.......आप के विचार अति वन्दनीय हैं....आज आप धर्म को बदलने की सोच रहे हैं..हो सकता है कि आगे चलकर अपने मां-बाप को भी बदल देंगें
नारी शक्ति जिन्दाबाद
khich khich khich jhak jhak rat rat rattu nam nam ut ut patang
ye wo ye wo ye wo ye wo wo ye
~~~~FUSS~~~
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