अनामिका
पढा गया हमें
जैसे पढा जाता है कागज़
बच्चों की फटी कॉपीयों का
चनाजोरगरम के लिफाफे बनाने के पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाए घड़ी
अल्ल्सुबह अलार्म बजने के बाद !
सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के
दुख की तरह !
एक दिन हमने कहा
हम भी इंसान हैं-
हमें कायदे से पढो एक एक अक्षर
जैसे पढा होगा बी ए के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन !
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग !
सुनो हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा !
इतना सुनना था कि अधर मे लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफवाहें
चींखती हुईं चीं चीं
'दुश्चरित्र महिलाएँ, दुश्चरित्र
महिलाएँ ' -
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली-फैली
अगरधत्त जंगली लताएँ !
खाती पीतीं सुख से ऊबी
और बेकार , बेचैन , आवारा महिलाओं का ही
शगल है ये कहानियाँ और कविताएँ *...
फिर ये इन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं!'
{कनखियाँ , इशारे , फिर कनखी}
बाकी कहानी बस कनखी है।
हे परमपिताओं ,
परम पुरुषों -
बख्शो ,बख्शो ,अब हमें बख्शो !
* यहाँ कहानी,
कविता के साथ साथ 'ब्लॉग' भी पढ लिया जाए मेरी ओर से !!
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34 comments:
sujata ji,anamika ki kavita ke maddenazar ek prashn ubharta hai k strivadiyon ke pas nae samaj ka koi blueprint hai kya?
yah to mujhe bhi samajh me ata hai k kuchh galat hai par vikalp par bhi to vichar hona chahiye.
बेहतरीन .....सच बयां करती
यह कविता पहले भी कहीं पढ़ी थी। तब भी अच्छी लगी थी, आज भी अच्छी लगी। क्यूंकि पढ़ा इसे मैंने ऐसे जैसे अपनी ही कोई रचना दोबारा पढ़ी हो। जैसे अपना ही भोगा दोबारा भुगता हो अन्यत्र किन्हीं कायाओं में जाकर और जीकर/मरकर।
रवीन्द्र जी ,
सोचती हूँ कि क्या समाज ब्लू प्रिंट तैयार करके बनते हैं ?यदि ऐसा है तो हमें वाकई विकल्प पर विचार करना चाहिए !यह भी सवाल है कि "हम" मे वे कौन कौन हैं जिनके हाथ मे ताकत है नए ब्लू प्रिंट के हिसाब से समाज को बदलने की!क्या अवचेतन को बदले बिना किसी ब्लू प्रिंट को लागू कर देने भर से हल होगा ?
सुजाता जी,
इस अच्छी कविता को दोबारा पढ़ने का मौका देने के लिए धन्यवाद। शायद हर पोस्ट पर हम यही बात कहना चाह रहे हैं जो अनामिका जी ने इस कविता में कह डाली।
और समाज के ब्लू प्रिंट पर सुजाता से सहमत।
I loved the sheer feel. It is a tactile poem. There is a unlimited pain throughout the poem, coming to a crescendo in the last two lines.
Is the situation so bad? Must be.
सुजाता जी,
कविता बहुत बढिया लगी
बहुत बढ़िया। कुछ ही शब्दों में बहुत कुछ कहती कविता।
मन को झकझोर देने वाली रचना।
-----------
तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
bahut achchhe. bavazood isake yah dhyan to rakhna hoga k samaj banta nahi hota.
yadi hamari bat buri lagi to muafi.
कठोर सत्य की प्रभावी अभिव्यक्ति। पर क्षमायाचना सहित इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि ऐसी फूहड़ और अनर्गल टिप्पड़ियां सिर्फ़ 'परम पिताओं' और 'परम पुरुषों' की ओर से ही नहीं अपितु 'परम माताओं' और 'परम नारियों' की ओर से भी आती हैं। उन्हें क्यों बख़्श दिया आपने? मेरे विचार से संघर्ष स्त्री या पुरुष के विरुद्ध न होकर उस पुरुषवादी सामन्ती मानसिकता के विरुद्ध होना चाहिये जो अभी भी बहुत मज़बूत और आक्रामक है।
रवीन्द्र जी, सम्वाद का सदा स्वागत है!यह बात भी बुरी लगे मुझे तो सार्वजनिक मंच पर लिखना ही छोड़ देना चाहिए!
@टिप्पणियां
डॉ अमर ज्योति ,
कविता अनामिका जी की है, पर मेरी पसन्दीदा है सो कहना चाहूंगी कि सार्वजनिक मोर्चे,साहित्यिक मंडियाँ सब पुरुषों ने सम्भाले हैं सदा से ....स्त्री का वहाँ दखल सहज नही लिया गया "परम पिताओं" से!
जहां तक कविता का प्रश्न है वह तो उत्कृष्ट है ही और मुझे भी अच्छी लगी। मेरा प्रश्न भी कवियित्री को ही लक्षित है।
डा. अमरज्योति जी की बात पर विचार कर लेने में कोई हर्ज़ नहीं है।
Baat ko samjhane ke liye Deshkal.com meN rajendra yadav se kiye sawaaloN meN se ek ka uttar yahaN rakhna prasangik hoga.
मैत्रेयी पुष्पा नोएडा, उत्तरप्रदेश(भारत) से
आपका प्रश्न: साहित्य में स्त्री विमर्श की जो परिभाषा हम देना चाहते हैं उसे तरह-तरह से काटकर और केवल सेक्स सिंबल बनाकर स्त्रियाँ ही स्त्रियों को गुमराह करने में लगी हैं। आप कहेंगे उनकी कंडीशनिंग ऐसी है, लेकिन सच में ही क्या वे यौनिक अभिशाप से न खुद मुक्त होती हैं ,न किसी और को मुक्त होने देना चाहती हैं। लोकतंत्र का ये कैसा मज़ाक है कि पुरुष व्यवस्था द्वारा दिए गए बंधन वे तोड़ने को तैयार नहीं हैं। शिक्षित और साहित्यकार स्त्रियों की इस "चेतना" को हम क्या नाम दें?
उत्तर:-इस चेतना को कंडीशनिंग ही कहेंगे। ये उदाहरण मैं हमेशा देता हूँ कि पुराने क़ैदी जेल के कायदे-कानून और वातावरण को इस तरह से आत्मसात कर लेते हैं कि खुद ही जेल के वार्डेन की तरह व्यवहार करने लगते हैं। वे नए क़ैदियों का हल्का सा भी विचलन बर्दाश्त नहीं कर पाते और नियमों को लागू करने में पूरी कठोरता बरतते हैं। ये दिमाग़ की कंडीशनिंग है, उसी से मुक्त होना है। स्त्री को शुरू से आज तक शरीर में ही क़ैद रखा गया है। चाहे वह साहित्य का नख-शिख वर्णन हो, चाहे वात्सायन का नायिका भेद, स्त्री को देह के आस-पास ही परिभाषित किया गया। मैं एक सवाल पलटकर पूछना चाहता हूँ...क्यों सारे धर्म, सारी संस्कृतियाँ, इतिहास, नैतिकता, पवित्रता आदि स्त्री के शरीर से ही जोड़े गए। आदमी अगर नंग-धड़ंग हो जाए तो उसे संन्यासी मान लिया जाता है और औरत नग्न हो तो संस्कृति का बंटाढार हो जाता है। स्त्री को इस क़ैद से निकलना होगा। जहाँ तक स्त्री विमर्श के वर्तमान स्वरूप का सवाल है तो कोई भी विमर्श ऐसा नहीं होता जिसे सभी स्वीकार कर लें। लेकिन ये निरंतर बढ़ने वाला और साहित्य की मुख्यधारा बनने वाला विमर्श है।
sujata,aisa lagta hai jaise apni hi anugunj sun rahi hun.
narendra ji,
situation is extremely bad. this is just the trailor.if u see the entire movie( which is not just 3 hrs long but spans innumerable life times) u wld be shocked out of not just speech but all ur faculties.
ghughutibasuti
वाकई अदभूत व अकल्पीय कविता। अर्न्तमन के भाव थोडे खुरदुरेपन के साथ अपनी मौजूदगी का कोमल अहसान कराते हैं। प्रशंसनीय।
कविता की अभिव्यक्ति काफी खूबसूरत है.....
बहुत बढिया कविता है अनामिका जी की। प्रस्तुति के लिए सुजाता जी को धन्यवाद।
Nice blog. Only the willingness to debate and respect each other’s views keeps the spirit of democracy and freedom alive. Keep up the good work. Hey, by the way, do you mind taking a look at this new website www.indianewsupdates.com . It has various interesting sections. You can also participate in the OPINION POLL in this website. There is one OPINION POLL for each section.
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The Future Mantra
हे परमपिताओं ,
परम पुरुषों -
बख्शो ,बख्शो ,अब हमें बख्शो !
इस बहुत बहुत अच्छी रचना के लिए धन्यवाद
अनामिका जी की बेहतरीन कविताओं में से एक।
...वाकई कहना ही होगा परमपिताओं अब तो बख्शो हमें
ye kavita na sirf dil ki gahraiyon ko chuti hai balki ek kadvi sachchai ko badi hi bebaaki se kah jati hai..
आज आपके ब्लाग पर कविताएं पढ़कर सुखद अनुभूति हुई शायद यह मेरा दुभाग्य ही था कि अब तक में इतनी अच्दी कविताओं से रूबरू नहीं हुआ था। आप इन्हें प्रकाशनाथ्र अवश्य ही भेंजे।
अखिलेश शुक्ल
संपादक कथा चक्र
please log on to
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बख्शो ,बख्शो ,अब हमें बख्शो !
UF ! kab aayenge BKHSHI JI ?
मसिजीवी क्या आपके यानी चोखेर वाली के प्रथम प्रवक्ता हैं। या कोई संबंधी हैं। बस जानकारी के लिए।
ACHHI KAVITA HAI .WELL EXPRESSED.
---AJIT PAL SINGH DAIA
kavitaa bahut achchhe hai bhav bhee lekin he navyug kee chetnaa apne aapko itnaa giraa hua mat samjho. aur kyu koi kya samajhtaa hai is se naaree lekhan kaa bhagya tay hogaa ? nahee aap ye soche binaa likhe ki ise purush lekhan mana jayegaa ya naree lekhan tab bhale use koi kuchh bhee samjhe aap apnaa kaam kare baqt apnaa kaam karegaa,
इस तरह कोप भवन में जा बैठना सुजाता एण्ड कंपनी को शोभा नहीं देता । अब कोई नयी पोस्ट भी लगाएंगी या बख्शी जी का इंतज़ार करती रहेंगी। हिम्मते-औरतां, मददे-इंसां।
very nice post and poems
every post is interesting
bahut baiya.......
kavita aatmvishleshan ke liye majbur karati hai
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