पुरुष जितना स्त्री के बारे मे कह सकते हैं , उतना खुद के विषय मे नही कह पाते और पुरुष के लिए पुरुष होना और साबित होना एक महत्वपूर्ण और जोखिम भरा काम है ऐसा मुझे महसूस हुआ है । खैर, रियल मैन या रियल वूमेन जैसा कुछ होना भी चाहिए क्या ? मेरे सामने अभी यही सवाल है जिसकी तलाश है!
पिछले एक दो साल से देख रही हूँ कि शाम के समय आस पास के पार्कों मे कुछ युवा पिता अपने 6 महीने से लेकर 5-6 साल तक के बच्चों को लेकर आते हैं, खेलते हैं,खिलाते हैं।हालांकि वहाँ बच्चों को लेकर आने वाली माताएँ फिर भी संख्या मे उनसे चार गुना होती हैं।तो भी यह देख अच्छा लगता है। एक और अजीब बात पिछले 3- 4 महीने मे मैने तीसरी बार देखी।साल डेढ साल के बच्चे को गोद मे बैठाकर पिता का ड्राइविंग करना।न काम रोका जा सकता है न ही बच्चे को!! मै सोचती हूँ बच्चों को लेकर ममत्व से भर उठना , उनकी देखभाल करना,पत्नी और बच्चों के लिए सम्वेदनशील होना,गृहस्थी के काम मे हाथ बंटाना -क्या यह सब आज के नए पुरुष (जो भले ही संख्या मे बहुत कम हैं)की नयी तस्वीर हैं?
यदि यह बदलते समय का पूर्व चिह्न है तो बहुत अच्छा है, लेकिन फिर भी एक चिंता लगातार बरकरार है।हम अब तक पारम्परिक तौर पर जिसे मर्द , पुरुष या रियल मैन मानते आ रहे हैं यह नयी छवि उससे मेल नही खाती क्योंकि इसमे स्त्रैण गुणों की मिलावट(?) है।फेमिनिन गुण क्या हैं, मस्क्यूलिन क्या हैं यदि हम इसे जानने का प्रयास करें तो एक बेहद खतरनाक बात सामने आती है।
शायद यह विज्ञापन उसमे कुछ मदद करे-
तो आम धारणा यह है कि रियल मैन वह होता है जो है -
बहादुर
ताकतवर
साहसी
निडर
लड़ाका / योद्धा
रौबदार
मुच्छड़
गर्वीला
अहंकारी
दम्भी
आत्मविश्वास से भरपूर
जिसे कोमलता ने छुआ भी न हो
अपनी बात मनवा सकने वाला
जो चाहे उसे पा सकने का माद्दा रखने वाला
गर्दन उठा कर सीना तान कर चलने वाला
जिसे देख लड़कियाँ दीवानी हो जाएँ ऐसे गठे शरीर वाला
कभी किसी के सामने न झुकने वाला
बड़े दिल वाला
दिक्कत अब शुरु होती है।जब आप मस्क्यूलिन गुणों के रूप मे इन्हें कहते हैं तो फेमिनिन या स्त्रैण गुणों के लिए क्या आपको इनके ठीक उलट चलना होता है?शायद यही माना जाता है।इस मानने के हिसाब से देखें तो फेमिनिन गुण हैं -
डरपोक
कमज़ोर/निर्बल
भयभीत/भीरू / कायर
युद्ध की बजाए आत्मसमर्पण
सबकी बात सुनने वाली
बहस न करने वाली
मृदुभाषिणी
झुक कर चलने वाली
संकोची
सेवा भाव , सहजता , कोमलता , विनम्रता से भरपूर
सबका सम्मान करने वाली
अपनी ख्वाहिशें दबा लेने वाली/ आत्मोत्सर्ग / बलिदान करने वाली
जिसे देख पुरुष पाने की इच्छा करे ऐसे रूप वाली
सर्वस्व समर्पण करने वाली
छोटी छोटी बातों मे उलझने वाली
दिक्कत यहाँ और भी बढती है।यह दिखाई दे रहा है कि स्त्रैण और मर्दाने गुणो में विपर्यय , कंट्रास्ट का सम्बन्ध है।इसलिए ये पूरक नही कहे जाएंगे बल्कि उलट कहे जाएंगे।यहाँ और भी दिक्कत है।हिम्मत के मुकाबले आप कोमलता को कैसे श्रेष्ठ गुण कह सकते हैं?इसी तरह गर्व के मुकाबले आप दबने-सिमटने को कैसे श्रेष्ठ मान सकते हैं?इसका मतलब है कि स्त्रैण गुण मर्दाने गुणों से हीन हैं? इसलिए स्त्रियाँ पुरुषों से हीन हैं?इसलिए स्त्री मे मर्दाने गुण हों तो वह "खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी " कहा जाएगा और पुरुष मे कोमल गुण हों तो उसके मर्द होने पर शंका जताई जाएगी?
इतना ही नहीं , ये सभी गुण - आप स्वीकारे या न स्वीकारें - समाज का तय किया हुआ मानक है , स्टैंडर्ड है और इस मानक से ज़रा भी विचलन हुआ कि व्यक्ति उपहास,उपेक्षा या विरोध का पात्र बन जाता है।लक्ष्मी बाई की बात जाने दें,साधारण स्त्री को आप बहस करता, तर्क वितर्क करते, मुखर होते,गाली देते देखते हैं तो असहज महसूस करते हैं, इसी मापदण्ड के अनुसार ही।
दर असल स्त्री पुरुष गुणों मे विपर्यय मानना ही गलत दृष्टि है, हमे स्वीकार करना चाहिए कि इन सभी गुणों का इधर से उधर आना जाना सम्भव है सामान्य है, इनका कम ज़्यादा होना भी स्वाभाविक , सामान्य बात है।स्त्री भी लड़ाका , योद्धा, अहंकारी, किसी के सामने न झुकने वाली है तो सामान्य है।पुरुष भी सम्वेदनशील,विनम्र,सबकी सुनने वाला,संकोची है तो यह सामान्य है।विरोध देखना हमारा दृष्टि दोष है।
लेकिन जो विज्ञापन हमने अभी देखा क्या वह बदलते हुए पुरुष की तस्वीर को धक्का नही पहुँचाता ? men are back ? माने पुरुष वापस आ गया है !! कौन सा पुरुष वापस आया है ? आखिर वह कहाँ चला गया था? कल की पोस्ट पर कोई अनाम इसी आशय का एक लिंक छोड़ गया था।लिंक काम का था।वहाँ का लेख इसी तरह की बातों पर विचार व्यक्त करता है।
क्या यह पुरुषों के लिए एक अस्मिता संकट आइडेंटिटी क्राइसेस की तरह देखा जाए? वे बदल रहे हैं लेकिन चिंतित हैं कि उनकी असली पहचान - एक माचो मैन की पहचान विलीन हो रही है।मेट्रोसेक्शुअल मैन इस पह्चान के संकट को और भी बढावा दे रहा है।मेट्रोसेक्शुअल वह पुरुष है जो फेमिनिन गुणों से परहेज़ नही करता।चाहे वह कान मे बाली धारण करना हो या लम्बे बाल रखना।सम्भवत: इसी संकट के चलते मेन आर बैक जैसे फ्रेज़ेज़ का इस्तेमाल विज्ञापन कम्पनियों को सटीक प्रतीत होता है।
दिल्ली पुलिस जब छेड़खानी सम्बन्धी विज्ञापन बीते सालों मे छाप रही थी तो वह भी ऐसे मर्दों को पुकार रही थी जो आकर छिड़ती हुई अबला की रक्षा करें।तस्वीर मे छेड़खाने करते कुछ युवक हैं और बाकी चुपचाप खड़े कुछ लोग और विज्ञापन कहता था कि - लगता है इनमे कोई मर्द नही है, वर्ना ऐसा नही होता।क्या यह चिन्ता वाजिब है कि असली मर्द लुप्त हो रहा है जबकि मर्दानगी का एक लक्षण-प्रकाश झा की फिल्म दिल दोस्ती वाला भी है और वह फल फूल रहा है और एक लक्षण साहस-बहादुरी,अपनी बात का पक्का होने वाला भी है जो घट रहा है।
ऐसे मे जबकि पुरुष भीतर माचो मैन नही रहा है लेकिन बाहर फिर भी वह वही "मर्द" दिखते रहने की चाहत लिए हुए है (ऐसे सिगरेट , ऐसी बाइक , ऐसी कार या कूल लुक्स या ऐब्स के सहारे जिन्हे पारम्परिक शब्दावली मे मैनली कहा जाएगा) तो ऐसे मे बदलता हुआ पुरुष क्या वाकई स्त्री के लिए सच्चा हमदर्द , सच्चा साथी ?क्या यह नया कनफ्यूज़्ड साथी स्त्री मुक्ति के मार्ग मे सच्चा हम सफर बन सकेगा?पत्नी उसके बराबर कमाती है इसलिए बच्चों को तैयार करना,उन्हें घुमाना-खेलाना-खिलाना, सब्ज़ी लाना उनकी मजबूरी है ; इसलिए उसके पुरुत्व की अभिव्यक्ति अन्य स्थानों पर यदा कदा होती है? या बेहतर पिता बनकर वे अपने लिए पुरुषत्व की नयी परिभाषा गढ रहे हैं?
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8 comments:
दोनों के गुणों में विपर्य नहीं है, अपितु सारे ही गुण दोनों में निहित है। बस अन्तर यह है कि पुरुष में कोई गुण अधिक है और महिला में न्यून। जैसे महिला में ममता अधिक है और पुरुष में काम। वर्तमान में पुरुष अपना ममत्व गुण विकसित कर रहे हैं और महिला अपना काम गुण।
परिवर्तन युग के अनुरूप स्वत: आते हैं, वर्तमान का युवा अपनी संतान के प्रति जागरूक है। वे भी पितृत्व को अनुभव ही नहीं करना चाहते अपितु उसे जीना भी चाहते हैं। अब वे मल मूत्र से लेकर सुलाने तक सारे ही कार्य करते हैं। अत: नवीन पीढ़ी का यह परिवर्तन स्वागत योग्य है।
जैसा कि हमने यहाँ पिछली पोस्ट के जवाब में कहा था पुरुषोचित या स्त्रियोचित गुण तय करना पुरुष प्रधानता को बनाए रखने का एक माध्यम है और कुछ नहीं.
हम इन दोनों सेट्स को नकारना पसंद करेंगे क्योंकि ज़रूरत के अनुसार व्यवहार करना इंसानी फितरत है वो स्त्री हो या पुरुष.
दिल्ली पुलिस का हो या एस एक्स फोर हो दोनों के विज्ञापन अभी उसी सोच को ही प्रतिविम्बित कर रहे हैं
सुजाता जी , आपने फेमनिन गुण या फिर मेट्रोसेक्सुअलटी के गुण को प्रधानता से बताया है और रियल मैन के भी गुण बताये हैं । समय की मांग के अनुसार यह परिवर्तन हुए हैं । वैसे आपने जितने भी गुणों को बताया है क्या उसमें बदलाव से पुरूष की व्याख्या में कोई बड़ा परिवर्तन हुआ । दो के बीच किसी तीसरे का हस्तक्षेप न आपको ही पंसद होगा न हीं हमें यदि यहां पर कोई पहल होती है तो किनारा कर आगे बढ़ने की प्रथा हो गयी है । और इस बदलाव में स्त्री की भी भूमिका रही है । स्वार्थ इत्यादि गुणों के आने से खुद का जीवन चाहे जैसे जिया जाये।
अब कौन रीयल है और कौन 'सर-रियल' है इसकी कसौटी है बखत याने टेम ! बखत पड़े पे जो मादरे -वतन पे कुर्बान हो जाए , सोने से पहले ४-६ पाकिस्तानियों को सुला जाए उसे मरद -सच्चा जानो और जो तुमको गच्चा दे जाए भले उसे झूठा मानो। अरे '' जननी जने तो भगत जन ,कै दाता , कै सूर वरना छोरी बावली कहे गंवाव्वे नूर ''
मेरी जितनी समझ है उस लिहाज़ से एशिया महाद्वीप मे ऐतिहासिक रूप से मर्द और औरत के गुणो मे इतना विरोधाभाष नही रहा है. इसका ठीक उल्टा ही रहा है और बहुतायत मे लोकमानस मे स्त्री-गुणो का बहुत मान रहा है. पुरुष जब इन गुणो को अपना लेता है, तो उसे देवतुल्य कहा गया है. कृष्ण, गौतम, गाँधी, चैतन्य, महावीर की परंपरा इसी मिट्टी की दें है. ये सभी पुरुष थे, पर इन सभी मे पुरुष के तथाकथित गुनो से ज़्यादा स्त्री के मानवीय गुण है. जंगल मे जंगल राज चलता है, इसीलिए जो ज़्यादा जंगली होगा उसी का बोलबाला होगा. सभ्य समाज मे जंगलीपन से ज़्यादा रचनात्मकता का मूल्य होता है, और स्त्री-के नाम पर जिन गुणो का यन्हा वर्णन है, उनका मूल्या सिर्फ़ एक सभ्य समाज मे हो सकता है. सहिसुण्ता और दूसरे इंसान को थोडा स्पेस देना अपने आप मे बुरा नही है. पर अगर एक व्यवस्था की तरफ़ से एक लिंग के लोगो से इसकी माँग हो तो ये अन्याय है. मज़े की बात ये है, की दुनियाभर मे एशियाई मर्द की एमेज बहुत ही फेमिनिन किस्म की है. ये जो रफ-टफ वाली छवी है ये पस्चिमी मर्द की है. कभी -कभी अपनी ज़मीन पर खड़े होकर अपने मूल्य और संस्कृति की तलाश की भी बहुत ज़रूरत है. और उस विरासत , उस आत्मा को जीवित रखने की भी. अपने संस्कारो की ज़मीन पर खडे होकर उसमे जो अमूल्य है उसे सहेजना चाहिए. कभी -कभी मेरा मन करता है की ढेर सी इमेज वाला एक ब्लॉग बनाया जाय जहा पर स्त्री और पुरुष दोनो ही इस जेंडर रोल्स के खाँचे तोडते दिखते हो. स्त्री के लिए ये जितना कस्ट्कारी है, उतना ही शायद मर्द के लिए भी है.
मेरे लिए यह पहेली है कि हम हर बात को अपनी या उनकीे संस्कृति का चश्मा लगाकर क्यो देखते हैं !
वेलेंटाइन डे आता है तो पहले हम कहते हैं गंदा है, गलत है ये है वो है। फिर जब हम देखते हैं कि बस नहीं चल रहा तो हम कहते हैं कि इसमें नया क्या है ? अपनी संस्कृति में तो बसंतोत्सव है, उसे क्यों नहीं मनाते ? अरे जब हमने मान ही लिया है कि प्रेम में कोई बुराई नही ंतो कोई उसे अपनी संस्कृति के हिसाब से मनाए, उनकी के हिसाब से मनाए, किसी नयी संस्कृति के तहत मनाए, बिना संस्कृति के मनाए, फर्क क्या पड़ता है !? प्रेम तो खुद एक संस्कृति है। प्रेम से संस्कृति पैदा हो सकती है, संस्कृति से पे्रम नहीं। ऐसा ही व्यवहार हम सैक्स के मुद्दे पर करते हैं। यह कैसा अहंकार है जो हर मानवीय भावना को संस्कृति का चश्मा लगाए बिना नहीं देख पाता !
समाज में स्त्री और पुरुष के क्या संबंध होते हैं, उन्हें किस दृष्टि से देखा जाता है, यह सब आधारभूत रीति से समाज के आर्थिक विकास की अवस्था पर निर्भर करता है।
कबीलाई समाज में संपत्ति नहीं होती, या होती है तो साझी होती है, सबका उस पर अधिकार होता है। वहां स्त्रियां अधिक स्वतंत्र होती हैं।
सामंतवाद में स्त्री को गाय-भैंस की तरह बेचने-खरीदने की चीज माना जाता है, और वह अबला के रूप में प्रकट होती है।
पूंजीवाद में उसे, और पुरुष को भी, परिवार, समाज आदि से निर्दयता से अलग करके एक अकेले व्यक्ति में बदल दिया जाता है, ताकि कारखानों, दफ्तरों आदि में उन्हें जोता और व्यवसाय की आवश्यकतानुसार इधर से उधर पटका जा सके।
समाजवाद में स्त्री-पुरुषों में बराबरी स्थापित करने की ओर प्रयास होता है। पर यह एक काल्पनिक अवस्था है और दुनिया में कहीं भी सच्चा समाजवाद स्थापित नहीं हुआ है।
आज भारत में सामतंवाद कई जगह बलवती है। इसलिए स्त्री का अबला रूप और पुरुष का तगड़ा रूप अभी काफी प्रचलन में है।
इसके साथ ही पूंजीवाद भी पैर पसार रहा है, और उसके मूल्य भी प्रबल होते जा रहे हैं, खासकरके शहरी इलाकों में। पूंजीवादी दृष्टि कोण से स्त्री, पुरुष दोनों ही व्यक्ति और स्वतंत्र होते हैं।
असल में जो मूल्यों का टकराव सा हमें लग रहा है, वह इसी के कारण है। सामंतवादी दृष्टिकोण अभी पूरी तरह मिटा नहीं है, और उधर पूंजीवादी मूल्य सामंतवादी मूल्यों को मिटाने के लिए संघर्ष कर रहा है।
भारत में सामंतवाद और पूंजीवाद का अजीब सा रिश्ता है। आजादी के समय अंग्रेजों को देश से निकालने के लिए पूंजीवाद को सामंतवाद से समझौता करना पड़ा था। अन्य देशों में पूंजीवाद सामंतवाद को पूरी तरह समाप्त करके अस्तित्व में आता है।
यहां भारत में पूंजीवाद इसमें उतना सफल नहीं हो पाया है। अभी सिंगूर में जो हुआ, यह इसका प्रमाण है। रतन टाटा जैसे शक्तिशाली पूंजीवादी भी अपने कारखाने के लिए जमीन प्राप्त नहीं कर पाए। क्योंकि अभी देश में सामंतवाद मजबूद है। उसके मूल्य भी मजबूत है।
साम्यवाद तो अभी दो मंजिल दूर है। उसे सामंतवाद ही नहीं, पूंजीवादी को भी समाप्त करके स्थापित करना होगा। वह अभी रुका हुआ है, इसके लिए कि पहले पूंजीवाद सामंतवाद को समाप्त कर ले। तब तक पूंजीवादी की भूमिका प्रगतिशील होती है।
खैर, मेरे कहने का मतलब यह है कि स्त्री और पुरुष के आपसी संबंध समाज के आर्थिक-प्रौद्योगिकीय अवस्था पर बुहत कुछ निर्भर करते हैं, और उसे हम केवल जागरूकता लाकर और लोगों को सिखा-पढ़ाकर नहीं बदल सकते।
यदि पार्क में पुरुष नवजात बच्चों के साथ दिखाई देने लगे हैं, तो इसका कारण यह नहीं है कि उनका हृदय परिवर्तन हो गया है, बल्कि इसलिए कि उनकी बीवियां नौकरी करती हैं, और मोटी तन्खा घर लाती हैं, जिसके बिना आजकल की महंगाई वाले जमाने में घर नहीं चल सकता है, अथवा उतने विलासितापूर्ण ढंग से नहीं चल सकता है, जितना दो तन्खाएं होने पर चल सकता है।
बदला पुरुष ही नहीं है, स्त्री भी है, क्योंकि वह घर में बैठे रोटी बेलने के स्थान पर दफ्तर में काम कर रही है। इससे दोनों को ही समझौता करना पड़ा है।
वे किस स्तर तक समझौता करते हैं, क्या पारिवारिक मधुरता बरकार रख पाते हैं, इत्यादि पर उनका कम ही नियंत्रण होता है, क्योंकि समाज की आर्थिक अवस्था पर उनका नियंत्रण नहीं होता है।
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