पिछले भाग से आगे ....
बोर्डिंग स्कूल के हालात ब्रांट बहनों के बद से बदतर थे। बच्चों को आधे पेट खाना मिलता था, वह भी बेस्वाद और गंदगी से पकाया हुआ। धर्म का पालन उनसे बेहद सख्ती से करया जाता| ठंडे-भीगे मौसम में छोटी -छोटी लड़कियाँ पैदल चल कर गिरजाघर तक जातीं और वहाँ घंटों गीले कपड़ों में ठिठुरते हुए बिता देतीं। अनुशासन कठोर था| खेल-कूद के लिये कोई समय नहीं दिया जाता और पढ़ाई घंटों कराई जाती| लगता था कि वहाँ के प्रबन्धकों ने गरीब घरों से आई हुई बच्चियों को उनके आने वाले कठिन जीवन के लिए तैयार करने का ठेका ले लिया था। बच्चियों को वहाँ न किसी का प्यार नसीब था, न पोषक भोजन और न उचित देख-भाल। तयशुदा था कि छात्राएं बीमारियों का शिकार बनतीं। स्कूल में क्षयरोग की बीमारी एक महामारी की तरह फैली। कई लड़कियां बीमार पड़ गईं। क्षयरोग का कोई इलाज उस समय तक ढूंढा नहीं जा सका था, इसलिए यह रोग रोगी के प्राण लेकर ही जाता थ। ब्रांट परिवार की दो बड़ी लड़कियाँ , ग्यारह साल की मारिया और दस बरस की एलिज़ाबेथ क्षयरोग की चपेट में आ गईं। बोर्डिंग के प्रबन्धकों ने उन्हें अपने अंतिम दिन बिताने के लिये छोटी बहनों के साथ उनके घर भेज दिया, यह कह कर कि इन बहनों को बोर्डिग की आबो-हवा रास नहीं आती| | तीनों छोटी लड़कियों- शार्लोट, एमिली और ऐन के लिये अपनी माँ को खो देने के बाद दोनों बड़ी बहनों को खो देना एक बहुत बड़ा सदमा था, जो उन्हें जीवन भर का आघात दे गया।
बच्चों को किसी और स्कूल में भेजना संभव नहीं था, इसलिये मौसी श्रीमती ब्रैनवेल स्वयं लड़कियों को घर पर ही पढ़ाने लगीं | सहमी- दुखी लड़कियों ने राहत की साँस ली | मौसी लड़कियों को पढ़ाने के साथ-साथ उन्हें सिलाई-बुनाई, खाना पकाने और दूसरे घरेलू कामों की शिक्षा देने लगीं| जीवन की कठिन परिस्थितियों ने लड़कियों पर अलग-अलग तरह से असर डाला | एमिली का स्वभाव संकोची और अन्तर्मुखी हो गया| ऐन धर्म की ओर झुकी| शार्लोट के चरित्र में एक ज़िद्दी किस्म की दृढ़ता और जुझारूपन ने जगह बना ली|
एक अत्यंत निराशाजनक माहौल में रहते हुए भी आश्चर्य्जनक रूप से तीनों छोटी लड़कियों ने अपनी जिजीविषा कायम रखी और ज़िंदगी से लड़ने का एक और रास्ता ढूँढ लिया। यह रास्ता था साहित्य-रचना का। कच्ची उम्र से ही लड़कियाँ प्रतिभा की धनी थीं। अपने मन से नया कुछ लिखना उनके लिए अपने कठिन जीवन को भूलने का एक सहज तरीका सा बन गया। खाली समय में वे अपनी कलम- कापी लेकर बैठ जातीं | उस छोटे-मामूली से से घर में मौलिक कविताएं, कहानियाँ और यहाँ तक कि उपन्यास भी लिखे जाने लगे। इस काम में लड़कियों एक-दूसरे की राज़दार थीं। रचनाएं लिखी जातीं और कापियों में बंद हो जातीं | संकोची एमिली अपनी रचनाएं किसी को दिखाना पसन्द नहीं करती थी| पहली बार जब उसकी कविताएं शार्लोट ने चोरी से पढ़ लीं तो वह बहुत नाराज़ हुई, पर अपनी बहनों के सामने भी उसकी झिझक धीरे-धीरे खुल गई | पिता को अपनी किशोर वय की बेटियों की रचनात्मक क्षमता के बारे में कुछ पता नहीं था।
पन्द्रह वर्ष की उम्र में एक बार फ़िर शार्लोट को रोवुड में मिस वूलर के स्कूल में भेजा गया जहाँ उसने पढ़ाई ही नहीं की बल्कि पहली बार कुछ सहेलियाँ भी बनाईं| स्कूल से लौटने के बाद जो कुछ भी उसने वहाँ सीखा था, वह अपनी छोटी बहनों को सिखाया|
पिता ने बेटे ब्रैनवेल में एक कलाकार होने की संभावनाएं देखीं, तो किसी तरह रुपये पैसे का प्रबन्ध करके बड़ी उम्मीद के साथ उसे शिक्षा के लिये लंदन भेजा। वह कलाकार बनने में बिलकुल असफ़ल रहा और कुंठित होकर उसने शराब और नशे का सहारा ले लिया। सब पैसे समाप्त हो जाने पर एक हारे हुए, दिमागी और शारीरिक रूप से बीमार इंसान के रूप में वह घर वापस आ गया। पिता, जो अपने एकमात्र पुत्र से बहुत आशाएं लगाए बैठे थे, बहुत निराश हुए पर बहनों ने भाई को हाथों-हाथ लिया और अपनी सेवा शुश्रुषा से उसे पुनः स्वस्थ बनाया।
3 comments:
सुन्दर कथा
बढिया श्रृंखला है ।
Dhanyavaad
Post a Comment