सारिका बेटी, यह तुमने क्या कर लिया? तुम एक गरीब मां-बाप की बेटी थीं। तुम्हारे पापा कानपुर में पान की दुकान चलाते हैं। तुम पढ़ाई में अच्छी थीं। हमेशा 76 प्रतिशत नंबर लाती थीं। इससे तुम्हारे परिवार का गौरव कितना बढ़ता था, इसका अंदाजा तुम्हें जरूर होगा। पापा-मम्मी खुश होते होंगे कि जो सपने वे पूरे नहीं कर पाए, उन्हें तुम हासिल करने जा रही हो। इसी उम्मीद में उन्होंने तुम्हें इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए गाजियाबाद भेजा था। उन्हें क्या पता होगा कि वे अपनी प्यारी बिटिया को ग्लानि और मौत के हवाले कर रहे हैं। इस बुधवार को जब तुम्हारे पापा अपनी सारिका बिटिया से मिलने कॉलेज के हॉस्टल आए, तब तक तुम आत्महत्या कर चुकी थीं और तुम्हारा कातर शव कमरे के पंखे से लटक रहा था। तुमने यह ठीक नहीं किया, बेटी। तुम्हारे मां-बाप जीने के लिए कितना कड़ा संघर्ष कर रहे हैं और तुमने एक छोटी-सी घटना से हार मान ली और अपनी जिंदगी ले बैठीं? तुमने उस लड़की के बारे में जरा भी नहीं सोचा जो तुम्हारे बाद हॉस्टल के इस कमरे में रहेगी? उसके लिए तुम कैसा अटपटा संदेश छोड़ गई हो!
माना कि अभिषेक बदमाश है। वह भी कानपुर का है और तुमसे कुछ खास उम्मीदें करता होगा। जब उसकी ये उम्मीदें पूरी नहीं होंगी, तो वह तुम्हें बदनाम या ब्लैकमेल करना चाहता था। इसी गंदे इरादे से उसने तुम्हारे बाथ रूम में कैमरा रख दिया था। कि तुम नहाती जाओ और तुम्हारी तसवीरें उस कैमरे में कैद होती जाएं। बाद में उन तसवीरों के बल पर वह तुमसे बरजोरी करना चाहता होगा। लेकिन इससे क्या। लड़की होने के कारण तुम पहले से ही जानती होंगी कि मर्द जाति का एक हिस्सा कुत्तों की तरह आचरण करता है। उसे लड़कियों की बोटी-बोटी चाहिए। फिर तुम अभिषेक से डर क्यों गर्इं? तुमने अपने पास छुरा रखना क्यों शुरू नहीं कर दिया ताकि जब वह अगली बार नजदीक आए, तो उसकी एक आंख फोड़ दो? वे आंखें देखते रहने के काबिल नहीं हैं जिन्हें लड़की का खूबसूरत शरीर पिज्जा या छोले-भटूरे की तरह लगता है। अव्वल तो कोर्ट तुम्हें माफ कर देता, क्योंकि अपनी इज्जत बचाने के लिए किसी को कुछ भी करने का अधिकार है। अगर तुम्हें सजा मिलती, तो तुम सिर उठा कर जेल की जिंदगी जी सकती थीं। तब तुम्हारी उम्र की सभी लड़कियों के लिए तुम्हारा यह संदेश होता कि जान ले लो या जान दे दो, पर किसी को अपनी इज्जत से खिलवाड़ न करने दो। इसके बजाय तुमने एक बदमाश को आजादी से घूमने के लिए छोड़ दिया और खुद फांसी पर लटक गर्इं। मानो इस पूरे कांड में दोष तुम्हारा ही हो। यह तुमने क्या किया, बेटी? यह दुनिया डरपोक लोगों के लिए नहीं है। जिसने संघर्ष करना छोड़ दिया, उसे कदम-कदम पर सताया जाएगा और उकसाया जाएगा कि वह या तो लाश की तरह बेजुबान हो जाए या लाश में तब्दील हो जाए। मैं अच्छी तरह जानता हूं, सारिका बेटी, कि इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है। बचपन से ही लड़कियों के दिमाग में यह बात ठूंस दी जाती है कि उनकी इज्जत उनके चरित्र में नहीं, उनकी देह में बसती है। लड़की के शरीर को किसी ने छू लिया, किसी ने मसल दिया, उसके साथ किसी ने बलात्कार कर दिया, तो वह अपवित्र हो गई! ऐसी अपवित्रता की ऐसी की तैसी ! औरतों को छुईमुई बनाए रखने के लिए, उनके आत्मबल को नष्ट कर देने के लिए समाज ने ऐसे नियम और विश्वास बना रखे हैं कि औरत के साथ कुछ हो जाए, तो इसका कलंक औरत पर ही लगता है। तभी तो यह सोच-सोच कर तुम दहल जाती होंगी कि अभिषेक के पास तुम्हारी निर्वस्त्र तसवीरें हैं और वह इनका पता नहीं क्या इस्तेमाल करे। तुम्हें यह डर भी सताता होगा कि यह बात उजागर हो जाने से तुम्हारे मम्मी-पापा क्या सोचेंगे। शायद वे तुम्हारा कत्ल कर दें, शायद वे तुम्हें त्याग दें, शायद वे खुदकुशी कर लें। तभी तो तुमने सारा बोझ अपने पर ले कर अपने को वह सजा दे डाली जिसका हकदार वह अभिषेक है, जिसकी शैतानी इच्छाएं बेकाबू हो गई थीं। सारिका बेटी, तुमने अपने आत्महत्या नोट में लिखा भी है, 'मेरी मौत का जिम्मेदार अभिषेक पुष्कर है, उसने मेरी इज्जत के साथ खिलवाड़ किया है। मेरे मरने के बाद, उसे कॉलेज के बाथरूम में कैमरा लगाने तथा एक लड़की को नहाते हुए देखने के जुर्म में फांसी (मौत की) सजा दो।' बिटिया, तुम तो बहुत हिम्मतवाली हो। कानपुर से निकल कर एक पराए शहर में पढ़ने आई थीं। मौत को गले लगाते हुए तुम्हारे हाथ नहीं कांपे। फिर तुमसे इतना इंतजार क्यों नहीं हुआ कि अभिषेक को सजा दिला कर ही जाओ? पुलिस का जो चरित्र है, उससे मैं नावाकिफ नहीं हूं। तुमको भी कुछ पता रहा होगा। बोलो, अब अभिषेक को सजा मिलना कितना मुश्किल हो जाएगा? उसके घरवाले नोटों की गड्डियां थाने में ढाल देंगे और वह अगले शिकार की तलाश में लग जाएगा। पर इसके लिए मैं तुम्हें क्या दोष दूं! दोषी तो हम सब हैं जिन्होंने स्त्री देह का हौआ बना रखा है। नग्न दिख जाने से कोई स्त्री शरीर अपवित्र या अनैतिक नहीं हो जाता। बलात्कार हो जाने से किसी लड़की का शील हरण नहीं हो जाता। किसी की भी मर्यादा उसके शरीर में नहीं, उसकी आत्मा में वास करती है। सही नैतिकता यही है। औरतों को समाज से इसी नैतिकता की मांग करनी चाहिए। इस मांग को स्वीकार न करना मर्दों का कमीनापन है। जिस लड़की से सहानुभूति होनी चाहिए, उसे ही कसूरवार मान लिया जाता है। मैं जानता हूं कि तुम्हारे साथ जो हुआ, उसे ले कर तुमसे सैकड़ों सवाल किए जाते। इन सवालों के डर से ही तुमने वह दुनिया ही छोड़ दी जहां इस तरह के बेहूदा सवाल पूछे जाते हैं। लेकिन सारिका बेटी, कुत्ते पीछे पड़े हों, तो अपने को भेड़िए के मुंह में नहीं फेंक दिया जाता।
11 comments:
स्त्री वर्ग के लिये बचपन से ही अस्मिता, पवित्रता, शुचिता आदि शब्द घुट्टी में पिलाये जाते है इसका दुष्परिणाम यहां तक हो सकता है!
किसी और के अपराध के लिये खुद को सजा देना अपराधी की सहायता करना ही है
bahut hi dardnaak ha yeh,par hamaare samaaj ka yahi dastoor ha, kisi ko agar ladke chedte hai to jaroor woh ladki kuch aisa pehane hogi, koi yeh nahi poochta ki chedna hi galat ha aur iske liye ham mahilaaye kam doshi nahi ha kyonki tippadi karne waali aadhi se jyaada mahilaayen hi hoti hain
बहुत ही प्रभावी और मर्मस्पर्शी ढंग से लड़कियों को इस सामाजिक कैंसर से से लड़ने का रास्ता दिखाया है राजकिशोर जी ने। साधुवाद!
रोंगटे खड़े करने वाली सच्चाई बयान की है आपने. बहुत धन्यवाद.
सादर
आत्माराम
सारिका अपनी तकलीफ़ अपने माँ बाप से क्यों नहीं बता सकी, यह भी विचार करने योग्य बात है। क्या उसे लगा कि वे उसकी निर्दोषिता पर विश्वास न करके उसे ही दोषी ठहराएंगे? या यह, कि उसकी बात पर विश्वास करने के बाद भी वे 'अपवित्र'बेटी की बजाए मृतक बेटी के माँ-बाप होना ज़्यादा पसन्द करेंगे? बेटी ने माँ- बाप की बजाए मौत की शरण में जाना ज़्यादा ठीक समझा, ऐसा क्यों हुआ? क्या हम माँ बाप अपने बच्चों को यह विश्वास दिला पा रहे हैं कि कैसी भी कठिन परिस्थिति आए, हम उनके साथ खड़े होंगे? और यह भी, कि कोई भी घटना या परिस्थिति स्वयं चुनी मौत का कारण होने के लिए पर्याप्त नहीं है।
"किसी की भी मर्यादा उसके शरीर में नहीं, उसकी आत्मा में वास करती है। सही नैतिकता यही है। औरतों को समाज से इसी नैतिकता की मांग करनी चाहिए। इस मांग को स्वीकार न करना मर्दों का कमीनापन है। जिस लड़की से सहानुभूति होनी चाहिए, उसे ही कसूरवार मान लिया जाता है। "
अगर इस लेख को पढ़ कर हम दसेक या सौ या कुछेक सौ या हजार लोग (बहुत ज्यादा उम्मीद कर ली मैंने भी!) भी इस बात को समझ पाए और जीवन में इसे अमल में ला पाए तो समझिए समाज में बदलाव आया।
काश ! ये हम समझ पाते कि मर्यादा शरीर नही आत्मा की होती है .आत्मा मे ही उसका वाश होता है .ऐसी दर्दनाक घट्ना मन को चीर देती है .
sarika kee kahanee se ladkiyon tatha unke matapitaon ko sabak lena hoga. ladkiyon ko jyada himmat batorni hogi aisi ghatanaon kee aur prashaan tatha ma pita ko turant batane ke liye aur mata pita ko betiyon ka ishwas hasil karna hoga.
सारिका की कहानी के माध्यम से राज किशोर जी ने एक सकारात्मक सन्देश देने की कोशिश की है. लडकी के लिए देह की सुचिता का जैसा माया जाल फैला है उसे हमें काट देना होगा. माँ बाप को भी बच्चो को ये गहरा अहसास करना चाहिए कि चाहे जो दिक्कत जीवन मे आये वो हमेशा उनके साथ खड़े होंगे और झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा उनके समबन्ध के बीच नहीं आयेगी.
rajkishor ko stree vimarsh par baat karte huve sharm aani chahiye. unka doglapan kai baar ujagar ho chuka hai. JNU mein main khud unke aur ramesh chandr shah ke beech ghatiya sanvad ko sun chuka hoon
हालांकि घटना बहुत पुरानी है लेकिन असामयिक नहीं है। रोजाना हम ऐसी खबरें पढ़ते रहते हैं जहां कोई लड़की आज के जमाने में भी खुद को अबला साबित कर ही जाती है। इसी पोस्ट में वंदना जी की एक टिप्पणी भी पढ़ी की यह भी प्रश्न है की सारिका अपने माँ बाप से कुछ कह क्यूँ नहीं पायी। बिलकुल जायज़ प्रश्न है । दरअसल हमारा समाज एक माहौल तैयार करता है जो लड़की को खुद ब खुद यह सिखा देता है की दोष उसीका है। हमारी फिल्में, हमारे मूल्य, संस्कार, धर्म ( किसी भी पंडित को कथा बाँचते सुनिए, सभी कथाएँ स्त्री विरोधी हैं), कानून (व्यभिचार से संबन्धित धाराओं में कितना अंतर्विरोध है कोई भी वकील बता देगा) यहाँ तक की हमारी शिक्षा भी। ऐसे में सारिका का अपनी समस्या को मम्मी पापा से न बाँट पाना उसकी गलती नहीं है बल्कि समाज की गलती है, उसके माँ बाप की गलती है जो उसके मित्र ना बन कर उसके संरक्षक ही बने रहे ।
Post a Comment