जो बीत गयी- शकुन्तला दूबे की आत्म कथा का अगला भाग
दादी के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। विलायती शिक्षा को कोस कर वे चुप हो गईं। यूँ भी उन दिनों औरतें घर के मालिक के विरुद्ध नहीं जा सकती थीं , चाहे वह उनका अपना बेटा ही क्यों न हो। संभवत यह चाचा के कउदार विचारों का ही नतीजा था कि पढ़ने के लिए मेरा नाम हमारे घर से कोई एक मील दूर स्थित एक मिशन स्कूल मे लिखा दिया गया जहाँ ईसाई टीचरें पढ़ाया करती थीं। अपनी आज़ादी छिन जाने से मैं बहुत खुश नहीं थी पर क्या करती, मजबूरी थी। मैं पढ़ने रोज़ स्कूल जाने लगी। किसी सवारी की सुविधा न होने के कारण मुझे पैदल ही स्कूल जाना होता था। मुझे स्कूल ले जाने और लाने के लिए हमारी नौकरानी वैधा मेरे साथ जाती थी। सब ठीक ही चल रहा था। लेकिन एक दिन बड़ी गड़बड़ हो गई।मेरे स्कूल के रास्ते में एक मुहल्ला यजबेदी नाम का पड़ता था। बड़ी जिज्जी की सहेली जया दी का घर इसी मुहल्ले में था। मैं उनके साथ एक- दो बार जया दी के घर गई थी। एक दिन जब मैं स्कूल जा रही थी तो मैंने देखा कि जया दी के भाई़ जिन्हें घर के लोग प्यार से पापा कहा करते थे, बिल्ली के दो छोटे छोटे बच्चों के साथ खेल रहे थे। मैं इतने सुंदर बच्चों को देख कर अपने को रोक नहीं पाई और उनके पास चली गई। पापा ने कहा, “इनसे खेलोगी? पर तुम तो स्कूल जा रही हो?”
बच्चे मुझे बड़े ही प्यारे लग रहे थे। उन्हें छोड़ कर जाने का मेरा मन नहीं हुआ। स्कूल की यूँ भी कोई अहमियत तब तक मेरे लिए नहीं थी।
“आज स्कूल नहीं जाऊँगी। बिल्ली के बच्चो से खेलूंगी,” मैंने कहा।
यही कह कर मैंने वैधा को वहीं से वापस भेज दिया। मैं बच्चों से इतनी मुग्ध हो गई थी कि मुझे यह खयाल भी नहीं आया कि वैधा घर जा कर माँ को मेरे स्कूल नहीं जाने की बात बताएगी तो माँ कितना नाराज़ होंगी। मैं वहीं खेलती रही। इस बीच एक और घटना हो गई। उस दिन जया दी के पूरे परिवार को किसी आयोजन में सम्मिलित होने श्रृंगार हाट जाना था।मुझे वह लोग वहाँ अकेला छोड़ कर कैसे जाते? सो वह मुझे भी साथ लेते गए। जब माँ को पता चला कि मैं स्कूल न जाकर जयादी के घर चली गई हूँ तो स्वाभाविक था कि उनका पारा चढ़ जाता। उन्होंने तुरंत सावित्री जिज्जी को हरगुन के इक्के पर मुझे लाने के लिए भेजा। सावित्री जिज्जी पहले यजबेदी गईं। वहाँ मुझे न पाकर मुझे ढूंढ़ती हुई वह श्रृंगारहाट पहुँचीं। मुझे देखते ही डाँटने लगीं, “चलो तुरंत। बहुत मनमानी करती हो। आज तुम्हारी अच्छी धुनाई होगी। तुम्हें स्कूल भेजा गया था कि यजबेदी?” मैं तो भीतर तक काँप गई। अब मुझे अहसास हुआ कि मुझसे कितनी बड़ी गलती हो गई है। मैं बिना कुछ बोले उनके साथ इक्के पर बैठ गई। घर पहुँची तो माँ का रौद्र रूप सामने दिखाई दिया।
जानती थी कि आज मेरी खूब पिटाई होगी। पर शायद माँ को मेरा सकपकाया हुआ चेहरा देख कर कुछ दया आ गई थी। कठोर स्वर में उन्होंने पूछा,
“ स्कूल क्यों नहीं गई? यजबेदी में क्यों रुकीं?”
“ पापा के पास बिल्ली के बच्चे थे। मैं उनसे खेलने के लिए रुक गई थी,” मैंने अपराधी स्वर में कहा। “तुम इतनी नालायक हो कि तुम्हें स्कूल भी नहीं भेजा जा सकता। कल से तुम्हारा स्कूल बंद। रहो निरक्षर भटटाचार्य, करिया अक्षर भैंस बराबर,” माँ ने कहा।
मेरा स्कूल जाना बंद हो गया। उस समय लड़कियों का पढ़ना लिखना विशेष ज़रूरी नहीं समझा जाता था। हाँ, लड़कों का पढ़ना आवश्यक था। लड़कों का स्थान वैसे भी लड़कियों से ऊँचा माना जाता था। लड़के इस बात का फायदा उठाने से नहीं चूकते थे। अगर किसी भाई-बहन में, कोई बाल सुलभ ही सही, झगड़ा हो जाता, तो यह तय था कि गलती चाहे किसी की भी क्यों न रही हो, डाँट या मार लड़की को ही पड़ती थी। वह भी इस ताने के साथ कि “, दिमाग तो देखो, लड़के को मार रही है। मरदमार औरत बनेगी।”
मैं अकसर इस अन्याय से क्षुब्ध हो जाती थी। मेरे छोटे भाई गंगा बाबू के साथ हुए झगड़ों की वजह से मुझे कई बार मार पड़ी। वैसे मैं भी कम नटखट नहीं थी, पर कभी- कभी शरारत गंगा बाबू की भी होती थी। मुझे याद है कि एक बार इसी तरह गलती न होने पर भी सज़ा पाने पर मुझे बहुत गुस्सा आया था और मैंने गंगा बाबू को घर से कुछ दूर ले जाकर उनकी खूब पिटाई की थी। मैं जानती थी कि इस बात की खबर माँ तक पहुँचने पर मेरी बहुत मरम्मत होगी पर मैं एक बार जी भर कर अपने मन में इकट्ठा अपना सारा गुस्सा निकाल लेना चाहती थी।
माँ का खयाल था कि मेरा स्कूल बंद कर के वह मुझे सज़ा दे रही हैं पर मैं तो ऐसी सज़ा पाकर बड़ी खुश हुई। अब मुझे न सुबह तैयार होकर एक मील पैदल जाना पड़ता था, न पाँच घंटे एक ही जगह टीचर के अनुशासन में बैठना पड़ता था और न कड़ी दोपहरी की धूप में चल कर वापस आना पड़ता था। मुझे सारी मुसीबतों से छुट्टी मिल गई थी। अब तो सारा दिन अपना था। जैसे चाहूँ वैसे बिताऊँ। मेरा पूरा दिन और बच्चों के साथ खेल में बीतने लगा। तरह तरह के खेल। कभी इक्कड़ दुक्कड़ खेलती, कभी ईंटों का घर बनाती। मेरे घर के पास ढेर से बड़े- बड़े बाँसों का झुंड था जिसे बँसवारी कहा जाता था। मोटे बाँसों के नीचे से उनके छिलके निकलते थे जो सूप की शक्ल के होते थे। हम लोग उसमें बालू डाल कर सूप की तरह फटका करते थे। पर मेरा यह आनंद-भरा जीवन ज्यादा दिन नहीं चल सका। बड़ी जिज्जी ससुराल से कुछ दिनों के लिए मायके आईं। जब उन्होंने देखा कि मैं पूरा दिन खेल में बिताती हूँ और स्कूल नहीं जाती तो उन्होंने इसका कारण पूछा। कारण जान कर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वह माँ से बोलीं, “ एक दिन अगर वह स्कूल नहीं गई तो आपने उसका स्कूल जाना बंद करा दिया? बच्चे तो खेलते ही हैं, उन्हें स्कूल का महत्व क्या मालूम? ऐसी कोई अनहोनी बात तो नहीं हुई थी। कल मैं इसका नाम फिर स्कूल में लिखवा दूँगी।”
जिज्जी अब शादी- शुदा थीं, ससुराल वाली हो गई थीं, इसलिए माँ खुल कर उनका विरोध नहीं कर सकीं। या हो सकता है माँ को लगा हो कि दिन भर खेलने- कूदने से तो मेरा स्कूल जाना ही अच्छा है। दूसरे दिन जिज्जी मुझे स्कूल ले गईं और मेरा नाम वहाँ फिर लिखवा दिया गया। वही मिशन स्कूल था, वही टीचरें। हाँ, मुझे स्कूल ले जाने और ले आने वाली नौकरानी बदल गई थी। नयी नौकरानी का नाम था उमराई। मेरे स्कूल जाने के रास्ते में उसका घर पड़ता था। उसके परिवार में केवल मियाँ-बीवी थे, उनके कोई बच्चे नहीं थे। उमराई मुझे अच्छी लगती थी। अब स्कूल जाना भी मुझे बुरा नहीं लगता था क्योंकि उमराई रास्ते भर मुझे कहानियाँ सुनाती चलती थी। कभी-कभी कोई गाना भी गाती थी जिसका अर्थ अकसर मेरी समझ में नहीं आता था। तब वह मुझे उसका अर्थ सरल भाषा में समझाती थी। सुबह मुझे ले जाने के लिए वह मेरे घर आ जाया करती थी। स्कूल जाते समय हमें उसके गाँव के बीच से गुज़रना होता था। उसके गाँव में छप्पर से छाए हुए बीस-पचीस घर थे जिनके दरवाज़ों पर कुछ जानवर बँधे होते थे। घरों के सामने कुछ बूढ़े लोग चारपाई पर बैठ कर हुक्का पीते हुए दिखाई देते थे। मुझे देखते ही वह लोग चारपाई से उठकर खड़े हो जाते थे। मैंने उमराई से उनके इस तरह खड़े हो जाने की वजह पूछी। उमराई बोली, “तुम बड़े लोग हो। यह लोग छोटे हैं, इसलिए अदब से खड़े हो जाते हैं।”
“पर वे मुझसे छोटे कहाँ हैं? वह तो मुझसे बहुत बड़े हैं, बल्कि बूढ़े भी हो गए हैं,” मैंने कहा।यह अंतर गहन था जो न तो उमराई मुझे समझा पाई और न ही मेरी छोटी- सी बुद्धि ग्रहण कर सकी।
उमराई जब मुझे स्कूल ले जाती थी तो वह अपने घर से एक रेहठे की बनी छोटी टोकरी लेती थी और अपने सिर पर एक लाल रंग का अंगोछा लपेट कर उसे उस पर रख लेती थी। रास्ते में उसे जहाँ जहाँ गोबर दिखाई देता, उसे उठा कर टोकरी में रख लेती थी। यह सिलसिला मेरे स्कूल पहुँचने तक चलता था। मुझे उसका ऐसा करना अच्छा नहीं लगता था, पर उसका कहना था कि उसे खाना पकाने के लिये गोबर के उपले बनाने होते हैं और उसके अपने घर में गाय या भैंस न होने के कारण उसे ऐसे ही गोबर इकट्ठा करना होता है।
स्कूल की छुट्टी चार बजे होती थी। छु्ट्टी होने पर जब मैं स्कूल के बाहर निकलती तो मुझे उमराई गेट के बाहर इंतज़ार करती मिलती थी। गर्मियों में बड़ी मुश्किल होती थी। कड़ी धूप में स्कूल से लौटना होता था। हमारे रास्ते में कहीं- कहीं पेड़ लगे थे। मैं एक पेड़ के नीचे से दौड़ कर दूसरे पेड़ के नीचे पहुँच जाती थी। उमराई मेरी तरह दौड़ तो सकती नहीं थी इसलिए मुझे हर पेड़ के नीचे रुक कर उसका इंतज़ार करना पड़ता था। हर पेड़ के नीचे पहुँच कर मैं सोचती कि काश मेरा घर यहीं होता, मुझे आगे न जाना पड़ता। धूप में हम लोग बिल्कुल भुन जाते थे। रास्ते भर उमराई न तो मुझे किसी के घर ठहरने देती थी न किसी के यहाँ का पानी पीने देती थी। कहती थी कि लोग टोटका यानी जादू-टोना किया हुआ पानी पिला देंगे। हमारे रास्ते में विद्याकुंड नाम का एक तालाब पड़ता था। उसमें पानी के ऊपर हरी-हरी काई जमी रहती थी। वहाँ का पानी उमराई को सुरक्षित लगता था। कहती थी कि काई हटा कर चुल्लू से पानी पी लो। उमराई मेरी अभिवावक थी इसलिए मुझे उसका हुक्म मानना पड़ता था। मजबूरी में मैं विद्याकुंड का ही गंदा और गरम पानी पीकर अपनी प्यास बुझाती थी।
मेरे स्कूल में टिफिन की छुट्टी के समय एक कचालू (आलू की चाट) वाला आता था जिसका नाम था जुगन। उसकी शक्ल मुझे आजतक याद है। बड़ा सा गोल चेहरा और बड़ी-बड़ी सफेद मूंछें। वह बगल में स्टैंड दबाए और सिर पर खोमचा रखे हुए आता था। टिफिन की घंटी बजते ही हम सारे बच्चे उसे घेर लेते थे। जुगन के खोमचे में शीशे के कई खाने बने थे। किसी खाने में आलू रखा होता था, किसी में इमली की चटनी , किसी में जीरा, किसी में नमक और किसी में मिर्च। जुगन कचालू बना कर आलू के टुकड़ों में पतली नीम की छोटी छोटी सींकें लगा कर पत्ते के दोने में रख कर देता था। जुगन के बनाए कचालू में जो स्वाद था वैसा घर के बने कचालू में आजतक नहीं आया। जुगन का घर मेरे स्कूल के रास्ते में पड़ता था। जब मैं स्कूल से घर लौट रही होती थी तो जुगन और उसकी बीवी दोनों अपने दरवाजे पर बैठे मिलते थे। जुगन देखते ही आवाज़ देते थे, “ बिटिया, कचालू खा कर जाना।”
भला इसमें बिटिया को क्या एतराज़ हो सकता था। जुगन के घर में कचालू खाने का मतलब था बिना पैसे दिए कचालू खाना। अच्छी बात यह थी कि जुगन के यहाँ खाने- पीने पर उमराई को भी एतराज़ नहीं होता था, उन्हें जुगन पर भरोसा था। मैं आराम से घर में बिछी चारपाई पर बैठ जाती थी और जुगन मुझे भरपेट कचालू खिलाते थे। जुगन की बीवी मेरे लिए पानी ले आती थी। देर होने की भी कोई चिंता नहीं होती थी क्योंकि माँ की विश्वस्त उमराई मेरे साथ होती थी।
मेरे स्कूल की सभी टीचरें ईसाई थीं और उन्हें हम मिस कह कर पुकारा करते थे। एक बूढ़ी सी टीचर थीं जो स्कूल में नहीं बल्कि घर-घर जाकर उन लड़कियों को पढ़ाया करती थीं जो पर्दानशीन थीं और स्कूल नहीं आ सकती थीं। उनकी एक मेरी उम्र की पोती थी जिसका नाम ट्रीज़ा था। ट्रीज़ा की माँ नहीं थीं। उसके पापा आर्मी में थे और कहीं दूर रहते थे इसलिए ट्रीज़ा अपनी दादी के पास रहा करती थी। ट्रीज़ा से मेरी अच्छी बनती थी। वह मुझसे अपने मम्मी पापा के बारे में खूब बातें करती थी। उसे देख कर मुझे लगता था कि मेरे परिवार में कितने सारे लोग थे और ट्रीज़ा कितनी अकेली थी।
उस समय दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था। हमारे स्कूल में एक दिन एक मैडम यह ट्रेनिंग देने आईं कि अगर बम गिरे तो कैसे बचा जा सकता है। स्कूल के मैदान में ढेर सारी बालू रखी गई और बहुत सारे घड़ों में पानी। क्या मज़ाक था। अगर बम गिरता तो क्या हम बच्चे बालू और पानी की मदद से उससे बच सकते थे। जब खतरे का सायरन बजता तो सब बच्चों को हाल में बुला लिया जाता। कोई भी उस समय मैदान में नहीं रहता था। खासी दहशत का आलम था।
हमारे यहाँ कभी-कभी अंग्रेज़ मेमें भी पढ़ाने आया करती थीं, गोरी-चिट्टी और सुंदर। वे फ्राक पहनती थीं, पैर में जूते मोजे और उनके सिर पर हमेशा हैट होता था। उनकी आवाज़ धीमी और बहुत मीठी होती थी। जब कभी वह हमसे कुछ पूछ लेतीं तो हम तो खुशी से निहाल हो जाते कि मेम ने आज मुझसे कुछ बात की।स्कूल में एक घंटा बाइबिल का होता था। उसमें हमें बाइबिल के कुछ वाक्य जिन्हें आयतें कहा जाता था, रटने के लिए कहा जाता था। बाद में हमें वह वाक्य क्लास में खड़े होकर सुनाने होते थे। मुझे यह बड़ा मुश्किल लगता था। जब किसी चीज़ का मतलब न मालूम हो तो उसे याद करना आसान नहीं होता। मैं इसके लिए अकसर डाँट खा जाती थी।
“ तुम्हारे घर में सब्ज़ी किस चीज़ में पकाई जाती है?” जवाब में लाखी दी ने मुझसे ही सवाल किया।
“एक बर्तन होता है तसला, उसमें बनती है,” मैंने उत्तर दिया।
“सब्ज़ी बनाने के छोटे बर्तन को तसल्ली कहते हैं,समझीं?” लाखी दी बोलीं।
“पर यह तसल्ली दे, तसल्ली दे, ऎसा क्यों कह रही हैं?” मैंने बड़े आश्चर्य से पूछा।
“बड़ी बुद्धू हो। अरे, उनके पास तसली नहीं होगी, इसलिए भगवानजी से कह रही हैं कि वह उन्हें सब्जी बनाने का बर्तन दें,” लाखी दी बड़े विश्वास से बोलीं।
बात मेरी समझ में नहीं आई। मेरे बालमन में शंका उठी कि भगवान किसी को कोई बर्तन कैसे दे सकते हैं, क्या वह कोई ठठेरे हैं? पर यह बात लाखीदी से कहने की हिम्मत नहीं हुई। लाखीदी जो कह दें वही हमारे लिए ब्रह्म वाक्य हो जाता था।
उस समय तो मैंने गौर नहीं किया, पर लाखीदी को उन टीचरों के बारे में कभी कोई अच्छी बात करते हमने नहीं सुना। वह खासी विद्रोही प्रकृति की थीं। एक बार बायबिल की क्लास के पहले वह हम लोगों से बोलीं, “ हमलोग बायबिल क्यों पढ़ें? हमारी अपनी धर्म- पुस्तकें हैं, रामायण, महाभारत, गीता। और भी बहुत सारी पुस्तकें हैं। इनलोगों ने हमें गुलाम बना रखा है और अपना धर्म भी हम पर थोपना चाहते हैं।”
“ गुलाम क्या होता है? हम गुलाम क्यों हैं?” मैंने पूछा।
“इन अंग्रेज़ों ने हमारे देश पर कब्ज़ा कर रखा है। हम अपने मन से कुछ नहीं कर सकते। ये जो चाहते हैं वही हमसे करवाते हैं। यह देश हमारा है, इनका नहीं, पर ये इसके मालिक बन बैठे हैं। लेकिन देखना, एक न एक दिन इन्हें यहाँ से भागना पड़ेगा,” लाखी दी ने हमें समझाया। वह काफी जोश में थीं। ज़रूर उनके घर में ऐसी बातें होती रही होंगी। उनकी समझाई हुई बातें अपनी बाल बुद्धि के हिसाब से हमें कुछ-कुछ समझ में आ रही थीं।
लाखीदी का कहना सच हुआ।अंग्रेज़ सचमुच हमारे देश से भाग गए। लाखी दी ज़रूर बहुत खुश हुई होंगी। उस साल के बाद उनका साथ छूट गया क्योंकि मैंने मिशन स्कूल दूसरी कक्षा तक पढ़ने के बाद छोड़ दिया।
3 comments:
bhut intjar ke bad post pdhne ko mili .bhrhal bhut hi rochak post ke liye badhai .agle ank ka besbri se injar rhega .
dhnywad
बेहद रोचक संस्मरण।
पढकर बचपन के दिन याद आ गये।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
rochak sansamaran, bachpan wakai bachpan hota hai
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