" हे भगवान ! हमें इन अविवाहित औरतों -बेटियों की फौज से बचाओ "----
( हिंदू कोड बिल पर बहस के दौरान संसद में बोलते हुए कांग्रेसी विधायक एम.ए. आयंगर ,संसदीय बहस , 7 फरवरी 1951 )
अरविंद जैन कानून की दृष्टि में महिलाओं की स्थिति पर सशक्त लेखन के लिए जाने जाते हैं ! उनके द्वारा लिखा गया लेख-" उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार'" हमारे बेटी प्रेमी समाज और कानून की छिपी साजिशों को परत दर परत उधाडता है और अपनी बेटियों के प्रति हमारी कूटनीति का पर्दाफाश करता है ! हमारी बेटियां हमारे घरों में महफूज़ हैं, हम उन्हें बेटों के बराबर पढा लिखा रहे हैं और उसके लिए बेहतर वर और घर की गुंजाइशों को पुख्ता करके चल रहे हैं ! पर क्या इससे हमारी बेटियों की स्थिति बदली है ? क्या कानून उनके गाढे समय में उन्हें उनके हक समाज और परिवार की गिरफ्त से छुडवाकर दिलवा सकता है ? क्या उत्तराधिकारी के रूप मॆं हमारी बेटियों को मायके और ससुराल में उनका जायज़ हक मिल सकता है ?
सवाल बहुत हैं पर जवाब बहुत दिल दहलाने वाले हैं ! बेटा बेटी एक समान का नारा बुलंद करने वाला समाज अपनी जायदाद को अपने पुत्रों को सौंपने पर आमादा है ! अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन ( संयुक्त राष्ट्र संघ ) की एक रिपोर्ट के अनुसार ,पुरुषों के बराबर आर्थिक और राजनीतिक सत्ता पाने में औरतों को अभी हजार वर्ष लगेंगे क्योंकि दुनिया की 98 % पूंजी पर पुरुषों का कब्ज़ा है !
दुनिया की बात को छोड भी दें तो भारतीय संदर्भों में स्त्री की खासकर अविवाहित बेटियों की स्थिति बदहाल है ! अरविंद जैन अपने उपरोक्त लेख में कानून की शर्तों की पेचीदगियों को डिकोड करते हैं तो साफ हो जाता है कि अपनी बेटियों के वजूद को हम एक सीमा तक ही सह सकते हैं और उसके बाद वे हमें असहनीय हो जाती है ! स्त्री की कानून की नजरों में स्थिति विवाहिता के तौर पर ही है परंतु अविवाहिताओं ,तलाकशुदाओं और विधवा बॆटियों के लिए मायके और ससुराल में हजार कानूनी लफ्डे और पेच हैं ! अरविंद जैन द्वारा बताई गई इन कानूनी विसंगतियों में से कुछ उदाहरण देखिए--
· कानून विवाह संस्था को बहुत जरूरी मानता है पुत्र के जन्म को जरूरी मानता है , संपत्ति के बंटवारे में कम बहनों वाले भाइयों को ज्यादा फायदा मिलता है !
· यदि बिना वसीयत किए किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए तो स्त्री- पुरुष उहेराधिकारियों में बराबर बंटवारा होगा पर कृषि भूमि में स्त्री को हिस्सा नहीं मिलेगा !
· ! विधवा बेटी पिता के घर पर रह तो सकती है पर (सताई जाने के हालातों में ) जायदाद बंटवा नहीं सकती (अगर पुरुष न चाहे तो )! निस्संतान स्त्री की संपत्ति का एकमात्र उत्तराधिकारी है उसका पति , और अगर वह एकमात्र पति ही उसका हत्यारा भी हो तो ? कानून उसे अयोग्य घोषित कर देगा तो भी उस स्त्री की संपत्ति रहेगी उसके ससुराल में और पति के कानूनी वारिसों को मिलेगी !
बकौल अरविंद जैन "
जब तक या पहचान का सपना साकार होना उत्तराधिकार के कानूनों के माध्यम से तमाम उत्पादन के साधन और विवाह संस्था ( और वेश्यावृत्ति व्यवसाय ) के आधार पर उत्पत्ति के साधनों ( यानि स्त्री देह ,योनि और कोख )पर पुरुष का वर्चस्व बना रहेगा तब तक स्त्री की मुक्ति ,समानता ,न्याय , समानता, गरिमा संभव नहीं है !"
यानि समाज परिवार और कानून -सब मिलकर बेटियों को भरमा रहे हैं ! हम बेटियों की फौज से डरने वाले समाज के हिस्से मात्र हैं ! जहां छ्द्म जालों में फंसी स्त्री अपनी उस आजादी के लिए लड रही है जिसमें समाज की गर संरचना उसके खिलाफ ही है ! पिता पति और पुत्र ही उसके कानूनी सामाजिक हकों को पाने के एकमात्र आसरे हैं ,जिनके बिना उसका कोई भी वजूद नहीं है ! जी , हम बेटों की चाह में जीने वाले पुरुषवादी समाज की बात कर रहे हैं जहां बेटियों की उपस्थिति बदली है ,स्थिति नहीं और अफसोस यह है कि कानून भी हमारी बेटियों के साथ नहीं !!
ऐसे मे क्या आप तैयार हैं अपनी बेटियों को अपनी सम्पत्ति मे बराबर की हकदार बनाने के लिए या आप उन्हे शादी करके खूब सारे दहेज के साथ पराए घर भेज देने वाले है और गंगा नहाकर बोझ मुक्त हो जाना चाहते हैं ?
- नीलिमा
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3 comments:
कानून की स्थिति तो यही है।
swaal ye hai ki sachet naagrik is sthiti ko badalane ke liye kyaa kar sakte hai?
महिला अधिकार का भारतीय अध्याय शुरू होने के पहले ही अपना महत्व खो चुका है | हमारा समाज आज भी रचनात्मक बहस से डरता है | जो कानून और नियम आज से १०० साल पहले बनाये गए थे, अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं | हम आज भी एक गुलाम देश के लिए बनाये गए संविधान को लेकर विकसित होने का सपना देख रहे हैं |
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