(चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी)

डायरी से एक पेज
17 अगस्त 2005
17 अगस्त 2005
दो-तीन दिन व्यस्तता में बीते। कालेज में चल रही अंतर्महाविद्यालय शतरंज प्रतियोगिता समाप्त हुई तो कुछ राहत मिली। दूसरी चीज़ों के बारे में सोचने का वक्त मिला। इस बीच कक्षाएँ भी नहीं लगीं। न पढना हुआ न पढ़ाना।
लड़के यहाँ हिंदी साहित्य नहीं लेते। इसे लड़कियों का विषय माना जाता है। वे सब बहुत भली होती हैं। अधिकांश ग्रामीण इलाके की। अभी सितम्बर के महीने से घास काटने चली जायेंगी। उन दिनों कक्षा की उपस्थिति आधी रह जाती है। पहाड़ों में जाड़ों के लिए तैयारी पहले ही शुरू करनी पड़ती है, जिसमें ईधन के लिए चीड़ की सूखी टहनियाँ तोड़ना और पशुओं के लिए पेड़ों पर लूटा लगाना शामिल है। बरसात के तुरन्त बाद ढलानों से लंबी घास को काट कर उसे पेड़ों पर गट्ठरों में बाँधने को लूटा लगाना कहते हैं। यह घास सर्दियों भर पशुओं के आहार का मुख्य स्त्रोत होती है। इस काम में जुटी स्त्रियों की थकान का शायद ही कोई मोल हो। सीमा(पत्नी) अकसर ऐसी औरतों को चाय पिलाने बिठा लेती है। चार साल का गौतम श्रम के बारे में कुछ नहीं जानता। लेकिन वह खेल-खेल में उनकी साड़ी में चिपके कुम्मर (काँटे) निकाल देता है और वे उस पर अपनी ममता लुटाती हैं। घर से सास के हाथों पिटकर घास काटने आयी एक औरत उसकी इस कार्रवाई पर उसे चिपटा कर रोने लगी। एक बच्चा ही शायद इतनी आत्मीयता पैदा कर सकता है। इन औरतों के पति ग़रीब और कामचोर हैं। शराब उन्हें और बिगाड़ती है। विडम्बना यह कि घरों में बच्चों की सहानुभूति भी अकसर माँ के साथ नहीं होती। वे अपना दुख कहीं कह नहीं सकतीं। उन्हें काम पर जुटे देखकर लगता है कि ये खुद को ख़त्म कर देने के लिए इतनी मेहनत कर रही हैं। किसी आत्मलीन घसियारी की दराँती कभी-कभार खुद के ही हाथों पर चल जाती है। एक बार मैंने देखा कि एक औरत की दराती से घास में छुपा साँप कट गया। मैं तब बहुत छोटा था। स्त्रियों के साहस का ज़िक्र छिड़ने पर मुझे कोई ऐतिहासिक चरित्र नहीं, हाथ में काले नाग के दो टुकड़े झुलाती वह महिला ही याद आती है। अपनी ज़िन्दगी के छुपे हुए साँपो के साथ वह वैसा सलूक नहीं कर पायी। जब मैं पंद्रह साल का था, वह इलाज के अभाव और घरवालों की लापरवाही के चलते घुट-घुटकर मर गई।
मेरी डायरी में वर्तमान कम है, अतीत ज़्यादा। शायद इसलिए कि अतीत अधिक अनुभव सम्पन्न था। कवि के लिए उसका वर्तमान भी कविता में लिखे जाने तक अतीत में बदल चुका होता है। मेरी उम्र लगभग बत्तीस साल है और मेरे लिए दुनिया को अभी और प्रकट होना है। लेकिन कब? पता नहीं। अभी तो पहाड़ की महान मेहनती स्त्रियों से भरी वही दुनिया है, जो पीछे छूट गई और बहुत याद आती है। मैं बार-बार वहाँ पहुँच कर खुद को पुकारता हूँ । यह नास्टेलज़िया से कुछ अधिक है। लगभग अपरिभाषित इसमें मेरा पूरा परिवेश है। मैं आज की चीज़ों को पुराने वक्त में और तब की चीज़ों को नए वक्त में लाता ले जाता रहता हूँ। यह एलिस इन वंडरलैंड जैसा होता है। पर इससे ताकत मिलती है। मैं कविताओं में इसका अधिक जोखिम नहीं ले सकता। हालाँकि बहकता वहाँ भी हूँ। बिना अतीत की कविता का शायद ही कोई भविष्य होता हो।
(हिमाचल प्रदेश से आनेवाली पत्रिका पर्वतराग के अंक-3/2008 में छपी डायरी से एक अंश)
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6 comments:
पहाड़ की स्त्रीओं के जीवट को आपने बेहद अंतरंगता से याद किया है. कमोबेश ऐसा ही एक दिन हर श्रमिक स्त्री के जीवन का रहता होगा.अपने सर पर बोझा उठाए ये स्त्रीयां पृथ्वी को भार विहीन करने में मदद कर सकती है पर ग्रहस्थी का भार इनके लिए भी कुछ ज़्यादा हो जाता है.कुछ और पढने को मिलता ऐसी चाहना अंत में बनी रही.
पहाड़ का सच बहुत सरल भाषा में कह दिया है। ये स्त्रियाँ सबसे पहले उठती हैं सबसे बाद में सोती हैं व सबसे बाद में खाती हैं।
घुघूती बासूती
phadi striyo ko jb bhi dekha hai .koi n koi bojha dhote huye hi dekha hai .apki dari pdhne ki utkantha bni rhegi.
स्त्रियाँ सदैव ही जीवट की होती हैं।
purushon ke haraipan ke har jagah bahut se tark aur bahut se karan hain. kabhi koi pahad ke aurat ach likhegi...
प्रेरणाप्रद डायरी को पढवाकर प्रेरित करने के लिए आभार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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