
सिंहासन खाली हो रहे हैं. जिन सिंहासनों पर आदर्श भारतीय स्त्रियां(भली स्त्रियां) विराजमान हुआ करती थीं वह अब लगभग खाली है. समाज के पैरोकार चिंता में हैं कि समाज से भली औरतें गायब हो रही हैं. कैसे बचेगा समाज, कैसे बचेंगे परिवार? सवाल बड़े हैं, उनकी चिंताएं भी जायज हैं लेकिन क्या करें, अब भलमनसाहत से चिढ़ सी होने लगी है. भले होने को लेकर जिस तरह की धारणाएं समाज में व्याप्त हैं वे कहीं न कहीं खुद को अंदर ही अंदर खत्म करने, अपनी इच्छाओं को मारने, दूसरों के सुख के लिए कुर्बान होने, बुरे को देखकर, सहकर भी चुप रहने के रूप में सामने आती हैं. बड़ी भली है फलाने की बहू, कुछ भी कह लो, मजाल है चूं करे. फलाने की लड़की तो गऊ है कभी आंख उठाकर चलते नहीं देखा. आजकल ऐसी लड़कियां मिलती कहां हैं? जैसे जुमले चुभते हुए से जान पड़ते हैं. मानो अच्छाई न हुई चाबुक हो गई सटासट पीठ पर बरस रहा है और हम अच्छे होने के कारण बस मुस्कुरा रहे हैं कि नहीं, जी कोई दर्द नहीं हो रहा है. अब यह सलीब उठाई नहीं जाती. लड़कियों ने कमर सीधी की है, आंखें मिलाना शुरू किया है. कोई भी आदेश यूं ही नहीं मान लेतीं. तर्क मांगती हैं. यहीं से रिश्तों में दरार आती है, परिवार नाम की संस्था की नींव धसकने लगती है. ये औरतें बुरी औरतें हैं. इन्होंने सिंहासन छोड़ दिया है. देवी होने से इनकार कर दिया है।
फिर भी शाइनी आहूजा की पत्नी अनुपमा जैसी भली औरतें हैं अभी समाज में उस सिंहासन की दावेदारी के लिए जो कानून, साक्ष्य, गुनाह के इकरारनामे के बावजूद अपने देवता पति में पूरी आस्था जता रही हैं. यानी सिंहासन को पूरी तरह खाली होने में वक्त लगेगा अभी.
15 comments:
आस्था का प्रथम रिश्ता भय से होता है वह पति से हो या परमेश्वर से या पति परमेश्वर से
पत्थर बन कर देवी बनने से अच्छा है साधारण स्त्री बन कर जुर्म का विरोध कर न्याय करना
वैसे भी आज इंसानों की ज़्रुरत ज़्यादा है बजाय देवी-देवताओं के।
ज़्रुरत को जरुरत पढ़ें।
यह तो आम पुरुष मानसिकता है मैम कि वह स्त्री से विरोध की अपेक्षा किसी भी सूरत में नहीं करता..और वो अगर ऐसा करती है तो उसका चरित्र शक के घेरे में आ जाता है.शायद बिना किसी विरोध के लगातार अन्याय सहना ही स्त्री चरित्र के शुचिता की कसौटी मान ली गयी है..
बिलकुल सही कहा....यही आज की सच्चाई है...
बिलकुल सत्य वचन...अनुपमा जैसी महिलाओं की वजह सी ही पुरुष का अहम् गाहे बगाहे शांत होता रहता है....
Anupama may herself be shocked and therefore, may be dealing with this problem with denial apart from other reasonable interests to save her family.
कहना बहुत आसान है कि अनुपमा ने "सिंहासन क्यों नहीं छोड़ा"। लेकिन ऐसे रैडिकल कदम उठाना उतना आसान नहीं होता। अनुपमा की आर्थिक स्थिति और जरूरतें क्या हैं, उनके बच्चे, परिवार के सदस्यों की मानसिक-आर्थिक-सामाजिक स्थिति..बहुत कुछ इसमें शामिल होता है। फिर यह डर कि उसके आस-पास का समाज उसके इस विरोध को किस तरह देखेगा। हम जानते हैं कि शाइनी ने एक गलत हरकत की है। लेकिन क्या पता अनुपमा लंबे समय से शाइनी के इस व्यवहार को देखने और उसे बचाने की आदी हो। कहानी शायद इतनी सरल-सहज नहीं होगी।
क्या किसीसे अनुपमा को संबल देने का भरोसा मिला है कि वह जो फैसला करे उसमें उसे सुरक्षा मिलेगी, आर्थिक, भावनात्मक, सामाजिक...?
bahut achhha sawaal uthaya hai, pratibha jee... lekin jo anuradhaa jee ne likha hai, woh yeh bataata hai ki sinhaansan aaj tak khaali kyun nahin hua hai...
बिलकुल सही कहा....यही आज की सच्चाई है...
samkalin parivesh men Ekdam sahi likha...
Aapne jo likha vo galat nahin hai. Badlaav ho raha hai. Ye ek purani aur bahut purani parampara hai. itni jaldi aur turant to insan bhi apna swabhav nahin chhodta fir ye to samaj hai. Lekin niraash hone ki zaroorat nahin. Ab karunamayi auratein deviyon ka singasan chhod kar Satta ki kursi par aasin ho rahi hain. Matlab kahin na kahin maansikta badal rahi hai.
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