कुछ दिन पहले भारतीय रेलवे के इलाहाबाद केन्द्र ने कुलियों (भारवाहकों ) की भर्ती के लिए विज्ञापन दिया था। इस स्थान की भर्ती के लिये पहली बार महिलाओं ने आवेदन किया। कुल सत्ताइस महिलाओं ने आवेदन किया था। उनकी परीक्षा ली गई जिसमें उन्हें सिर पर पच्चीस किलो का वज़न उठा कर दो सौ मीटर चलना था। पुरुषों को यह दूरी तीन मिनट में तय करनी थी और महिलाओं को चार मिनट के अंदर। सत्ताइस महिलाओं में उन्नीस ऐसा करने में सफल रहीं।
बृंदा कारत का कहना है कि इसमें आश्चर्य की क्या बात है। महिलाएं सदा से भारी बोझ सिर पर ढोती आई हैं। राजस्थान में वे मीलों पानी के घड़े सिए और कमर पर लादे चलती हैं। फ़िर उन्हें इस नौकरी के अवसर से वंचित क्यों रखा जाए। ज्ञातव्य है कि कुली के काम के लिये महिला आवेदनकर्ताओं में से कई पढ़ी लिखी हैं, उनमें एक तो इतिहास की परास्नातक भी है।
किरन बेदी का कहना है कि भारी बोझ को किसी से भी सिर पर उठवाना अमानवीय है और सभी कुलियों को ट्राली मुहय्या कराई जानी चाहिये। गुजरात के भावनगर स्टेशन पर सदा से ( लगभग सत्तर वर्ष से, जब वह स्टेशन बना था) महिलाएं कुली का काम करती आई हैं। वहाँ के छ्ब्बीस कुलियों में बाईस महिलाएं हैं। वे यात्रियों का सामान ट्राली पर ढोती हैं।
4 comments:
महिलाएँ किसी मोर्चे पर उतरें वे पीछे नहीं रहतीं।
मैंने अखबारों में पढ़ा है कि इनमें से कुछ महिलाएँ गर्भवती थीं। ऐसी स्थिति में भार उठाना (चाहे वह किसी परीक्षा के लिए ही क्यों न हो), जोखिम भरा है। चाहे तो इसे कुदरत की ओर से किया गया पक्षपात ही समझ लें, पर गर्भावस्था में कुछ कार्यों से परहेज करना चाहिए। जान है तो जहान है।
- आनंद
Trauli jarooree hai.
ट्रॉली का सुझाव विचारणीय है। आनन्द जी ने जो बताया है वह इस पूरी सामाजिक व्यवस्था के उत्तरोत्तर अमानवीय होते चले जाने का एक और प्रमाण है।
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