मंगलेश डबराल मेरे पसंदीदा कवियों मे से है। उनकी एक कविता, उनके काव्य संकलन "पहाड़ पर लालटेन" से साभार.
अगले दिन
पहले उसकी सिहरती हुयी पीठ देखी
फ़िर दिखा चेहरा
पीठ जैसा ही निर्विर्कार
कितने सारे चहरे लांघकर आया हुआ
वह चेहरा जिस पर दो आँखे थी
सिर्फ़ देखती हुयी, कुछ न चाहती हुयी।
वह अकेली थी उस रात
वह कही जा रही थी अपना बचपन छोड़ कर
कितने सारे लोगो द्वारा आतंकित
कितने सारे लोगो द्वारा सम्मोहित
कितने सारे लोगो की तनी हुयी आँखों के नीचे
कितनी झुकी है उसकी आँखे
की वह देख नही पाती अपनी और आती मृत्यू
हर चीज़ के आख़िरी सिरे तक
वे उसके पीछे जायेंगे
जहा से एक सुरंग शुरू होती है
सुरंग मे कई पेडों मे से एक पेड़ तले
बैठा होता है उसका परिवार
माँ-बाप, भाई बहन
और पोटलिया जिनमे भविष्य बंद है
सापों की तरह
वों सारा कुछ सोच कर रखेंगे
पहले से दया, पहले से प्रेम
पहले से तैयार थरथराते हाथ
वे उसे पा लेंगे बिना परिवार के
बिना बचपन के, बिना भविष्य के
और खींच ले जायेंगे एक जगह
कोई नही जान पायेगा किस जगह
डराते मंत्रमुग्ध करते
अगले दिन उसके भीतर
मिलेंगे कितने झडे पत्ते
अगले दिन मिलेगी खुरो की छाप
अगले दिन अपनी देह लगेगी बेकार
आत्मा हो जायेगी असमर्थ
कितने कीचड कितने खून से भरी
रात होगी उसके भीतर अगले दिन
Thursday, August 20, 2009
मंगलेश डबराल की कविता- अगले दिन
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7 comments:
कविता पढ़कर सिहरन पैदा हो जाती है। अंदर तक झकझोर देने वाली कविता है।
हाशिये पर जा चुकी दहशत तमाम ,
कटघरे में बंद है सारा ईमान.
bahut hi markik hai kvita ak vishesh kanya se aam aurat banti hui eshvar ki vishesh rchna ki marmsprshi khani .
abhar ham tak is sundar abhivykti ko panhunchane ka .
हर चीज़ के आख़िरी सिरे तक
वे उसके पीछे जायेंगे
जहा से एक सुरंग शुरू होती है
सुरंग मे कई पेडों मे से एक पेड़ तले
बैठा होता है उसका परिवार
माँ-बाप, भाई बहन
और पोटलिया जिनमे भविष्य बंद है
सापों की तरह
बहुत सुंदर
तेज धूप का सफ़र
Kaphi gahra asar chodti hai yah kavita.
ek bhayaanak sach bayaan karati hai.
कितनी मार्मिक कविता है। बार बार पढ़ता हूं। कई बार पढ़ी है। इस बार फिर पढ़ी। स्त्रियों पर लिखी गई कविताओं में एक बेहतरीन कविता।
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