आज के समय में नारवादी साहित्यकारों में प्रमुख हस्ताक्षर अनामिका की कविता स्त्रियां, ओढ़नी, और मौसयां आदि हम इस ब्लॉग पर पहले भी ले चुके हैं। पिछले दिनों उनसे एक छोटी सी बातचीत हुई जिसे वाणी प्रकाशन की पत्रिका के ताजा अंक में 'पुस्तक संसार' कॉलम में छापा गया है। इस बातचीत को यहां फिर दिया जा रहा है।
कवि तथा कथाकार अनामिका से आर. अनुराधा की बातचीत
प्रश्न: क्या आपको भी लगता है कि आज मीडिया के बढ़ते प्रभाव के बीच नई पीढ़ी साहित्य से कटती जा रही है?
अनामिका: हाल ही की बात करें तो कई पत्रिकाओं के युवा विशेषांक आए हैं। भारतीय ज्ञानपीठ ने कस्बों-गाँवों के युवा लेखकों के लिए एक कारगर योजना शुरू की है, जिसमें उनकी पांडुलिपियों का निष्पक्ष मूल्यांकन होता है और श्रेष्ठ कृतियाँ पुरस्कृत और प्रकाशित होती हैं। इसमें भी युवा पूरे उत्साह से शामिल हो रहे हैं।
इसके अलावा युवा, खासकर युवतियां, रोजगार में व्यस्तता आदि के बावजूद साहित्य सृजन में लगे हैं। दरअसल जिसके पास स्मृतियाँ हैं, सपने हैं, वह अपने लिए समय और स्थान की तलाश कर ही लेता है.. जिस तरह पीपल का कोमल सा पौधा सीमेंट की परत फोड़ कर भी उपजता है, बढ़ता है। युवा अनेक लघु पत्रिकाएँ निकाल रहे हैं जो दरअसल सीमेंट फोड़ कर अपने लिए जगह बना रही हैं। यह बहुत बड़ी बात है। जो भी कंप्यूटर तक पहुँच रखता है, वह वहां भी अपने विचारों के लिए जगह तैयार कर ले रहा है। ब्लॉग, एसएमएस कविताएं, ई-मेल, फेसबुक पर टिप्पणियाँ...। टेलीविजन के लिए लेखन में भी बड़ा बदलाव घटित करने की क्षमता है, लेकिन अभी तक ऐसा हो नहीं पाया है।
लिखना यानी प्रतिरोध। निजी या सामूहिक प्रतिरोध के जरिए वैकल्पिक समाज के हक में जो संयुक्त प्रस्ताव बनाना साहित्य का काम है, वह ये लघु पत्रिकाएँ और दूसरे नए माध्यम कर रहे हैं। हालाँकि हर नन्ही गिलगरी अपनी मूँछों में दबा कर एक-एक तिनका लिए जा रही है, फिर भी यह सब तरफ हो रहा है। यह कहना गलत होगा कि युवा पीढ़ी साहित्य से कटती जा रही है।
प्रश्न: किन क्षेत्रों में साहित्य का विस्तार हो रहा है?
अनामिका: विमर्शात्मक लेखन आज के समय की विशेषता है - स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श। स्त्री विमर्श एक महीन लड़ाई है, जो दो नस्लों, जातियों, देशों-राज्यों की लड़ाइयों से अलग है, क्योंकि इसमें एक का स्थानापन्न दूसरा नहीं होता, बल्कि इसमें समानता का तर्क काम करता है। यह पीढ़ियों के संघर्ष से मिलता-जुलता है, जिसमें प्रीति-घृणा साथ चलते है। इसका प्रतिबिंब साहित्य में कई स्तरों पर देखने को मिलता है।
इस सिलसिले में आत्मकथाएँ महत्वपूर्ण दस्तावेज होती हैं जो निजी जीवन के जोड़-घटाव के साथ-साथ उस समय के समाज का भी खाका खींचती हैं। मन्नू भंडारी की आत्मकथा 'एक कहानी यह भी' में इमरजेंसी के वक्त का जिक्र है। प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या' में पश्चिम बंगाल में कामगार आंदोलन की बात है तो मैत्रेयी पुष्पा की ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में छोटे कस्बे से बड़े शहर आने वाली लड़की की व्यथा है कि किस तरह समाज में ऊचा दर्जा पाने वाले साहित्यकार-संपादक उन्हें सहज शिकार मानते हैं और किस तरह इस माहौल में लड़की की देह ही उसका आलेख बन जाती है। चंद्रकिरण सौनरेक्सा की आत्मकथा में चुप्पी ही सब कुछ कहती है और वही इस कृति की सुंदरता है। उसमें घरेलू औरत की जिंदगी की परतें धीरे-धीरे खुलती हैं जो उनके संघर्षों से परिचय करवाती है, साथ ही उनका सामना करने के तरीके भी बताती है। बिना आत्म-दया के, बिना आत्म-महिमामंडन के सहजता से अपने बारे में कहना वाकई कठिन है और ऐसा इन आत्मकथाओं ने किया है। ये सभी अपने-अपने समय का इतिहास हैं। ये लघु स्तर पर काम करके विशाल स्तर पर परिवर्तन घटित करने में सक्षम हैं।
प्रश्न: इनका असर?
अनामिका: आज पुरुष साहित्यकार सेंसिटाइज्ड हैं जो खाना अच्छा न बनने पर थाली उठा कर नहीं फेक देते। वे घर-बार सँभालते हैं, बच्चा उठाते हैं। उनकी भाषा और लहजा मुलायम है। पहले के पुरुष साहित्यकारों की भाषा-लहजे में परिपक्वता नहीं थी। उनके साहित्य की ऊपरी सतहों को कुरेदें तो निचली पर्तों में वही पुरुष विद्यमान होता था। पर अब के साहित्यकारों की भाषा अलग है। साहित्यकार समाज के सबसे सेंसिटाइज्ट सदस्य माने जाते हैं, और यह आज के रचनाकारों में दिखता है। दलित प्रश्न पर भी वे ज्यादा संवेदनशील हैं, सचेत हुए हैं और समझते हैं कि अब साथ चलने का समय है।
प्रश्न: और किन हिस्सों में और काम करने की जरूरत है?
अनामिका: सबसे ज्यादा कमी अखरती है, खुली गोष्ठियों की। इस तरह की परंपरा डालनी चाहिए जहाँ लोगों को विमर्श-बहस का मंच मिले और जिनका उद्देश्य बिना किसी दुर्मंशा के सिर्फ और सिर्फ जुड़ना हो। भाषण मालाओं की जगह संवाद मालाएँ हों जहां पब्लिक एजेंडा पर बात हो। छोटे मंच, लघु पत्रिकाएँ मिल कर चलें। सस्ती किताबों की मुहिम भी शुरू होनी चाहिए।
हिंदी साहित्य के साथ ही जुड़ा हुआ है भारतीय अंग्रेजी साहित्य। आज के बच्चों से दस साहित्यकारों के नाम पूछे गए तो उन्होंने टैगोर और प्रेमचंद के अलावा सभी अंग्रेजी साहित्यकारों के नाम बताए। चेतन भगत, विक्रम सेठ और अरुंधति राय जैसे नामों से आगे वे नहीं जानते। अंग्रेजी अखबारों, पेज-3-टेलीविजन के नायकों और पुरस्कार-अलंकृतों को ही वे साहित्यकार के रूप में जानते हैं, जिन्होंने पॉप, कॉफीटेबल किताबें लिखी हों। इसीलिए जरूरी हो गया है अलाव पर बैठक, अनौपचारिक खुली चर्चाओं के मंच बनें।
साहित्यकारों को अपनी भगिनी कलाओं से भी संबंध रखना चाहिए। मूर्तिकार, नर्तक, चित्रकार सभी मिल कर ही वैकल्पिक समाज की रचना कर सकते हैं।
प्रश्न: क्या आज का साहित्य एक वैकल्पिक समाज का खाका बनाने में अपना योगदान कर पा रहा है?
अनामिका: साहित्य मूल्य-विस्तार का अपना काम ठीक से नहीं कर पा रहा है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि लोकप्रिय माध्यम यानी मीडिया में इसका दखल नहीं हो पा रहा है। हालाँकि उसमें भी कई स्तरों पर छोटी-छोटी कोशिशें हो रही हैं। फिल्मों में प्रतिदिन के जीवन के बिंबों में बात कही जाती है। टेलीविजन पर कोई बड़ा बदलाव घटित नहीं हुआ है हालाँकि सार्थक लेखन वहाँ भी है। अगर लोगों का सोच सिकुड़ रहा है, सपनों की सरहदें छोटी पड़ रही हैं तो इसका दोष सपनों के सौदागरों को ही जाएगा, क्योकि सपने जगाना, स्मृतियाँ जिलाना साहित्य का काम है।
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9 comments:
अनामिका इस समय की महत्वपूर्ण कवि हैं .....वह दुनियाभर में कविता के क्षेत्र में क्या हो रहा है इससे वाकिफ रहती हैं..सीखने और जानने की बात यह है कि हिन्दी में लेखन करने वाले सभी स्त्री-पुरुषों को अंग्रेज़ी के माध्यम से ही सही दुनिया भर के लेखन की विविधताओं से परिचित रहना चाहिए...हिन्दी में श्रेष्ठ और स्तरीय लेखन तभी संभव हो पाएगा . हिन्दी में पुस्तकें कम बिक रहीं हैं........बिहार आदि अपवादों को छोड दें तो......... जिनकी जेब में खरीदने की ताकत है वे सारा खर्चा गैजेट्स पर कर रहे हैं....इंटरनेट पर वक्त लगा रहे हैं..... ब्लाग्स के ज़रिए उन्हें भी संस्कारित किया जा सकता है........स्त्रियों के लिए लिखे गए ब्लाग्स पुरुष अधिक पढते हैं........अच्छी सामग्री दे कर उन्हें संस्कारित करना घाटे का काम नहीं होगा........अनामिका से चर्चा करने के लिए ..धन्यवाद .
अनामिका जी से मुलाकात का अच्छा ब्यौरा दिया है आभार.
महत्वपूर्ण साक्षात्कार!
Badiya!!
सार्थक बातचीत के लिए बधाई.
इस तरह के महत्वपूर्ण संवाद चोखेर बाली पर नियमित रूप से आने चाहिए। पर एक भी चीड भरती की न हो ।
अच्छा इंटरव्यू
सिर्फ़ 10 साल मे बना लेगा मानव मस्तिष्क!
sargrbhit sakshtkarka.aise sakshatkar prernadyi hote hai.
abhar
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