लड़ो तो ऐसे लड़ो
राजकिशोर
सूडान की युवा पत्रकार लुबना अहमद अल हुसेन को इस अजनवी हिन्दुस्तानी का सलाम। लुबना ने यह साबित कर दिया है कि साधारण-सी बातों को ले कर किस तरह इतिहास रचा जाता है। बेशक हमारे देश में औरतों के लिए पैंट पहनना साधारण-सी बात है, यद्यपि यहाँ भी कई प्रकार के समाज-विरोधी विचार तथा संगठन इसे एक असाधारण घटना बनाने पर तुले हुए हैं। लेकिन सूडान में औरतों का पैंट पहनना अपराध है। वहाँ के नैतिक कोतवाल इसे महिलाओं के लिए ‘अभद्र’ पोशाक मानते हैं। इस अपराध के लिए उन्हें अधिकतम चालीस कोड़े लगाए जा सकते हैं और एक सौ सूडानी डॉलर की जमानत लेनी पड़ सकती है।
सूडान में ईसाई भी रहते हैं और मुसलमान भी। ईसाइयों पर यह कानून लागू नहीं होता। पर मुस्लिम औरतों पर इस तरह के कई अभद्र कानूनों का शिकंजा है। 1989 में कट्टरपंथी उमर अल बशीर द्वारा तख्ता पलट के बाद मध्ययुगीन इस्लामी कानून लागू करने की रवायत शुरू हो गई थी। इसी के तहत 1991 में औरतो के लिए भद्रता के नियम बनाए गए। इन नियमों के तहत अब तक हजारों मुसलमान लड़कियों और औरतों को गिरफ्तार कर उन्हें कोड़े लगाए जा चुके हैं। हम सभी को सूडानी महिलाओं की बहादुरी का लोहा मानना चाहिए कि कोड़े खाने का खतरा उठा कर भी वे ‘क्या पहनें, क्या न पहनें’ के अपने मूल अधिकार से समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं।
चौंतीस साल की लुबना हुसेन, जिनके पति का देहांत हो चुका है, इन्हीं साहसी औरतों में हैं। उन्हें पिछली 3 जुलाई को सूडान की राजधानी खारतूम में बारह दूसरी स्त्रियों के साथ गिरफ्तार किया गया था। इन सभी का अपराध यह नहीं था कि वे एक रेस्त्रां में संगीत के कार्यक्रम का आनंद ले रही थीं। इस पर सूडान में कोई पाबंदी नहीं है। उनकी ढीठाई यह थी कि उस समय वे ट्राउजर पहने हुए थीं। उन सभी को गिरफ्तार कर स्थानीय थाने में ले जाया गया। कमी बस यह थी कि हथकड़ियाँ नहीं पहनाई गई थीं। थाने में ज्यादातर ने अपना अपराध मंजूर कर लिया। दल-दस कोड़े मार कर उन्हें घर भेज दिया गया। लुबना तथा कई और औरतें पैंट पहनने के अपने अधिकार पर अड़ी रहीं। सो उनका मामला अदालत के सुपुर्द कर दिया गया।
सूडान की पुलिस ने कोड़े मारने का भी अपना तरीका बनाया है। ये कोड़े सिर्फ मामूली चोट पहुँचाने के लिए नहीं मारे जाते, जैसे शैतान बच्चों को पहले बेंत से मारा जाता था। चेतावनी देने से अधिक कष्ट पहुंचाने का इरादा होता है। कोड़े बनाने के लिए प्लास्टिक की रस्सियों का इस्तेमाल होता है। जहाँ कोड़ा पड़ता है, वहाँ ऐसा जख्म बनता है जिसका दाग कभी नहीं मिटता। साफ है कि मामला न्यायिक कार्रवाई का नहीं, प्रतिहिंसा का है, जिसके पीछे मजा चथाने का भाव होता है – जींस की पैंट पहनी है, तो लो, यह भी भुगतो।
सजा से बचने के लिए लुबना हुसेन के पास एक कारगर कवच था। वे संयुक्त राष्ट्र के लिए काम कर रही थीं। सूडान के कानून में ऐसे व्यक्तियों पर संयुक्त राष्ट्र की इजाजात के बिना मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। इसी बिना पर जज ने लुबना से कहा कि हम आप पर मुकदमा चलाना नहीं चाहते, आप चाहें तो जा सकती हैं। पर चट्टानी इरादों की इस सख्त औरत के लिए सवाल सिद्धांत का था, सुविधा का नहीं। उसने कहा कि मुझ पर मुकदमा चलाया जाए, ताकि मैं अदालत में अपना पक्ष रख सकूँ। इसलिए मैं राष्ट्र संघ की नौकरी छोड़ रही हूँ। लुबना ने यह नौकरी छोड़ दी, तो मुकदमे की कार्रवाई फिर से शुरू हुई। समां यह था कि जिस दिन अदालत में विचार होना था, सैकड़ों महिलाएँ अदालत के बाहर जमा हो गईं और स्त्रियों के खिलाफ भेदभाव के खिलाफ नारे लगाने लगीं। इनमें से बहुतों ने पैंट पहन रखी थी। शोर-शराबा उपद्रव में न बदल जाए, इसलिए कार्रवाई को स्थगित करना पड़ा। अगली बार भी विरोध और प्रदर्शन के कारण कार्रवाई स्थगित करनी पड़ गई।
तमाम जिरह और बहस के बाद अदालत ने लुबना को अपराधकर्ता करार दिया और उन्हें 130 सूडानी डॉलर का जुर्माना भरने का हुक्म दिया। लुबना के लिए यह एक मामूली-सी रकम थी। पर सवाल सिद्धांत का था। उन्होंने अदालत को ठेंगा दिखाते हुए कहा कि मैं एक दमड़ी भी नहीं दूँगी। जज में थोड़ी भी इनसानियत होती, तो वह जुर्माने की रकम अपने पास से भर देता और कैदी को आजाद कर देता। सजा देना उसके लिए कानूनी मजबूरी हो सकती थी, पर व्यक्तिगत कर्तव्य तो यही था कि वह एक इनसान की बुनियादी आजादियों का समर्थन करता। लेकिन किसी फासिस्ट सत्ता द्वारा नियंत्रित समाज में जिसके पास जितनी ज्यादा ताकत होती है, वह उतना ही ज्यादा डरा हुआ होता है। जुर्माना न चुकाने के कारण लुबना को 7 सितंबर को जेल भेज दिया गया। रात वहीं कटी। अगले दिन एक अफसर आया और उसने लुबना को रिहा कर दिया। लुबना ने अपने सभी दोस्तों और परिजनों को जुर्माने की रकम न भरने के लिए कहा था, पर सूडानी पत्रकारों की यूनियन ने पैसा जमा करा दिया था।
लुबना हुसेन को अपनी रिहाई की कोई खुशी नहीं है। उनका कहना है, सात सौ से ज्यादा औरतें अभी भी जेल में सड़ रही हैं, क्योंकि उनकी ओर से जुर्माना भरने के लिए कोई नहीं है। जाहिर है, यह लड़ाई लुबना हुसेन की सिर्फ अपनी नहीं है। एक पत्रकार के रूप में उनकी अच्छी-खासी साख है। वे जानती हैं कि अगर वे अपने लिए विशेषाधिकार और सुविधा के द्वीप बनाना ठीक न समझें, तो उनकी अपनी नियति उन अन्य स्त्रियों की नियति से भिन्न नहीं हो सकती जिनके बारे में और जिनके लिए वे लिखती हैं। उनके सरोकारों की इस व्यापकता के कारण ही जब उन पर मुकदमा चल रहा था, यह मुद्दा एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन गया। वेबसाइटें खुल गईँ और ‘सूडानी महिलाओं के मानव अधिकारों की रक्षा करो’ की मुहिम ने जोर पकड़ लिया।
कुछ लोग कहेंगे, औरतें पैंट पहनें या न पहनें, यह भी कोई मुद्दा है 9 लुबना का कहना है – ‘पैंट तो मात्र एक प्रतीक है। मूल सवाल औरतों की स्वतंत्रता, स्वाभिमान और आत्मनिर्णय के अधिकार का है।’ हममें से कौन है, जिसकी जबान पर यह नहीं आएगा – हाँ, लुबना, इसमें क्या शक है ! हम जहाँ भी हैं, तुम्हारी लड़ाई के साथ हैं। 000
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10 comments:
kamaal hai... aaj bhi aise khabti hote hain jo samaj ke naam par itni respectable job ko laat maar de.
indians to kabhi aisa na karen!!!
सूडानी पत्रकार लुबना को सलाम !उंनकी हिम्मत कि कहानी पढ़कर दांतों तले अंगुली दबानी पड़ी
अपने अधिकारों के लिए जोखिम उठाना और इस तरह प्रतिरोध करना काबिले तारीफ़ है. यह औरत का जज्बा है .. फर्क इतना है कि कहीं कहीं कम तो कहीं ज्यादा है.
सभी तो रहनुमा नहीं होते सौ में एक होता है .. मगर उसके दिखाए कठिन रास्ते पर चलने का हौसला रखना भी अपने आप में बड़ी बात होती है . लुबना अपनी लडाई में अकेली नहीं हैं . उनके साथ सारे विश्व कि औरतें हैं .. कुछ खुलकर सामने आजाएंगी और कुछ बोल पाने के अधिकार से भी वंचित होने के बावजूद अंकुरण को नयी पौध के लिए संभाल देंगी. इतनी अच्छी पोस्ट के लिए आपको धन्यवाद
ab inconvenienti की टिपण्णी indians तो ऐसा कभी नहीं करते .बहुत क्षोभ हों रहा है . लगता है इन्होने हिन्दुस्तान के इतिहास में औरत के बलिदानों और बहादुरी कि कहानियां न सुनीं हैं न पढीं हैं . हमारी इन्हें राय है कि कुछ पढें फिर ऐसे वाक्य लिखें
लुबना का संघर्ष और जज्बा वाकई काबिले तारिफ है
मेरा भी सलाम है इस वीरांगना को
लुबना हुसैन जी को हार्दिक बधाई ..........हम उनके साथ हैं, सवाल यहाँ पैंट का नही है सवाल तो हमारी स्वतंत्रता का है .....आखिर कब तक ये मनुवादी हमारे पीछे पड़े रहेंगे ???
A Salute for her..
हां लुबना हम तुम्हारी लड़ाई में तुम्हारे साथ हैं। तुम्हारा जज्बा वाकई सलाम बजवाता है।
लुबना को सलाम !
इस टिप्पणी के माध्यम से आपको, सहर्ष यह सूचना दी जा रही है कि आपके ब्लॉग को प्रिंट मीडिया में स्थान दिया गया है।
अधिक जानकारी के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं।
बधाई।
बी एस पाबला
Selute Lubna
अगर हमारे उत्तराखण्ड के गाँवों में आज से 100 साल पहले कोई महिला पैन्ट पहन लेती तो शायद यहां भी एक जलजला आजाता पर आज स्थिति वो नहीं है खाने पहनने की महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता है कि वो क्या खाएं क्या पहनें
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