प्र.- आजकल क्या लिखना-पढ़ना चल रहा है?
उ. मैं दो उपन्यास साथ-साथ लिख रही हूं। यह शुरू से ही मेरी आदत रही है, एक साथ दो किताबों पर काम करने की।

प्र.- ‘संस्कृति’ के बारे में कुछ बताइए।
उ.- साहित्य और संस्कृति की आजकल ठेकेदारी हो गई है। किस लेखक को चढ़ाएं, किसे उतारें, किसे पुरस्कार दे-न दें, सब, कुछ लोग मिलकर तय कर लेते हैं। एक तरह का प्रायोजनवाद चल रहा है। साहित्य, संस्कृति और कला की दुनिया में भी बाजार ने जोर से दस्तक दी है। यह गंभीर बात है जिस पर हिंदी में ज्यादा सोचा नहीं गया है। पत्रकारों ने भले ही नोटिस किया हो लेकिन साहित्यकार ने इस पर गंभीरता से नहीं लिखा है कि कोई मठाधीश रूठ न जाए क्योंकि सभी की नजर किसी पुरस्कार, नियुक्ति, संस्तुति पर लगी रहती है। यही सब इस उपन्यास का मूल विषय है।
प्र.- हाल में जो कुछ पढ़ा हो!
उ.- ज्ञान प्रकाश विवेक का ‘आखेट’ पढ़ा। यह बहुत ही अच्छा लगा। इसके अलावा एक और किताब जिसके बारे में मैं कहते नहीं थकती- 1995 में आई बराक ओबामा की आत्मकथात्मक पुस्तक ‘द ड्रीम्स फ्रॉम माई फादर’। ओबामा को नोबेल पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई तो बहुत खुशी हुई। यह पुस्तक पढ़कर लगता है जैसे किसी गांधीवादी का लेखन है।
प्र.- नोबेल पुरस्कारों की बात निकली है तो- भारत में रबींद्रनाथ ठाकुर के बाद साहित्य के क्षेत्र में कोई नोबेल नहीं आया। क्या हमारा साहित्य उस स्तर तक नहीं पहुंच पाया या हम उसे वहां तक नहीं पहुंचा पाते?
उ.- हिंदी का लेखक बेचारा निहत्था, भोला-भाला होता है। उसे पता ही नहीं कि नोबेल के लिए पुस्तक कैसे भेजें। प्रकाशक को यह करना चाहिए, पर अपने लेखक के उत्थान में उसकी कोई रुचि नहीं है। किसी तरह 500 प्रतियां बिक जाएं बस। हिंदी की पुस्तक को विश्व परिदृष्य पर रखने के लिए प्रकाशकों ने कभी वैसी मेहनत की, जैसी लैटिन अमरीकी देशों के प्रकाशकों ने की? उन्होंने अपने यहां के साहित्य का पूरे संसार में वितरण करवाया। लेकिन हमारे यहां हिंदी में प्रकाशक यह जिम्मेदारी नहीं लेता।
प्र.- तो फिर लेखक खुद क्यों नहीं इसके लिए प्रयास करते, जैसा कि आपने कहा कि वे पुरस्कार आदि पाने के लिए करते हैं?
उ.- लेखक के पास साधन नहीं है, धन नहीं है और प्रकाशक पैसा खर्च नहीं करता। बुकर या नोबेल में किताब भेजने के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है। इसीलिए किसी दिन पूंजिपति उधार की पुस्तक ‘लिखकर’ नोबेल के लिए भेज देंगे। एक दिन सभी पूंजिपति लेखक बन जाएं तो आश्चर्य नहीं। प्रकाशकों को नोबेल तक पहुंचने के सारे रास्ते पता हैं, पर वे कुछ करते नहीं हैं। विचार फैलाने या भारतीय प्रतिभा के मूल्यांकन की दृष्टि से नहीं, सिर्फ मुनाफे की नजर से वे लेखक और रचना को देखते हैं।
प्र.- विषयांतर करते हैं। आजकल महिलाएं जो कुछ लिख रही हैं...
उ.- मैं विषय-सीमा नहीं मानती कि महिलाएं कुछ खास विषयों पर ही लिख सकती हैं। लेकिन बाजार का दबाव है कि महिलाओं से खास तरह के लेखन/साहित्य की आशा की जाती है। वे भी घर से निकलती हैं, नौकरी करती हैं और हर तरह का काम करती हैं। बल्कि उसे स्थितियां अपने अनुकल बनाने के लिए दोहरी मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन मेरा मानना है कि नैसर्गिक प्रतिभा के कारण स्त्री हमेशा बेहतर वर्कर होती है। महिलाओं ने अपनी चेतना से यह क्षमता विकसित की है कि हर काम को वे अपना पूरा समर्पण, निष्ठा देती हैं।
प्र.- स्त्री-विमर्श की शुरुआत अब हिंदी लेखन में भी हो गई है। वह भी एक स्वीकार्य विषय हो गया है।
उ.- मुश्किल ये है कि जो बातें स्त्री विमर्श में शामिल हो रही हैं वे कहानियों-साहित्य में नहीं आ रही हैं। दोनों गीत अलग-अलग सुरों में चल रहे हैं।
प्र.- लेकिन कई दशक पहले लिखे स्त्री-विमर्शात्मक साहित्य को तक फिर पूरा महत्व दिया जा रहा है, वे रचनाएं धूल झाड़ कर फिर छापी जा रही हैं। जैसे - 'सरला- एक विधवा की आत्मजीवनी' ।
उ. – हां, बिल्कुल। सरला- एक विधवा की आत्मजीवनी या एक अज्ञात हिंदू महिला...। तारा बाई शिंदे, पंडिता रमा बाई आदि ने बीसवीं सदी के शुरू में जो विषय उठाए थे, आज का नारी विमर्श उससे भटक गया है। उन्होंने अपने समय की विसंगतियों को लिखा। पर आज के नारीवादी रचनाकार देह शोषण से आगे नहीं बढ़ते। दूसरे किस्म का शारीरिक और मानसिक शोषण, देह शोशण से कम भयावह नहीं। पर उसे तवज्जो नहीं दी जा रही है।
प्र.-आपकी रचनाओं में भी महिला-जीवन के कई पहलू सामने आते हैं।
उ.- मेरी रचनाओं में नारी विमर्श थेगली की तरह नहीं आता बल्कि कहानी के साथ चलता है। वास्तविक स्त्री को जेहन में लाएं तो पाएंगे कि उसके जीवन में भी कभी खुशी तो कभी दुख है। वह सहज ही जीवन में इन सब क्षणों से गुजर रही है। वह हमेशा एक ही मनोभाव लेकर नहीं रहती, न ही घर में हमेशा नारीमुक्ति का झंडा उठाए रहती है। मैं मानती हूं कि जागरूक स्त्री अपने पास-परिवेश को बदलती और संस्कारित भी करती है।
12 comments:
ममता जी से यह बातचीत महत्वपूर्ण है । इस साक्षात्कार के शीर्षक से आकर्षित होकर भी बहुत से पुरुष(रचनाकार) यहाँ पहुचेंगे । इस मेरा यह कहना है कि स्त्री देह् हो या पुरुष देह , इस देह को ही अभी इसके सम्पूर्ण अर्थ मे देखना शेष है , और हम आत्मा के विश्लेषण का दावा करने लगे हैं ।
ममता जी के साथ बातचीत बुत सहज लगी |नारी विमर्श ही क्यों?नारी विमर्श को हम महत्वपूर्ण बनाकर नारी को अपने आप से दूर ही नही करते जा रहे है दोहरे मापदंडो के साथ ?
झंडा लेकर चलना ही आपको उस विषय के प्रति कितने जिम्मेवार है ?इमानदार है? ये नहीं दर्शाता |बल्कि झंडे कि आड़ में अपने आप को छुपाने कि बेईमान कोशिश हो रही होती है |
आशापूर्ण देवी के साहित्य में स्त्री स्वयम ने अपनी जगह बनाई है बिना किसी को गिराए |
ममताजी के विचारो में भी ऐसी ही खुशबू बिखरी है |ममताजी से मिलवाने के लिए आभार |
ममता जी से बात बहुत अच्छी लगी .. सही कहा उन्होंने की स्त्री का विमर्श देह से ऊपर नहीं उठाते लोग .. इसके पास इतनी शक्तियां हैं और उनका भी उसी तरह शोषण होता है ममताजी से मिलवाने के लिए आभार
nari kahne bhr se hi logo ke mastisk me sirf deh hi koudhti hai .kya kare nari.uskke likhe shabd pr deh hi dhoodte hai .mamtaji apka likha sahitya to barso baras yad rakha jayga.or hum jaise rachanakar apse hi sikhte hai.
बहुत अच्छा लगा यह साक्षात्कार । नारी हो यो पुरुष सुख दुख दोनो के जीवन का हिस्सा है पर उनकी प्रतिक्रियाएँ हमेशा अलग अलग होती हैं। स्त्री को देह मन का एक पैकेज समझ कर ही देखना चाहिये यहां मेरा मतलब वस्तू से बिलकुल नही पर एक संम्पूर्ण व्यक्तित्व से है ।
Nice Interview.
ममता जी से मिलवाने के लिये आभार
स्त्री का विमर्श देह से ऊपर नहीं उठाते लोग. सोचने वली बात है.
hindi lekhan mein bazar ka
mudda bahut important hai yeh.kitab ko pathako tak pahuchane ke liye lekhak publisher ke hath ki kathputli ho jjata hai maataji ke naye upnyaas ka subject samyik hai.ipratiksh hai
इस साक्षात्कार के लिए बधाई.
ममताजी के दोनों ही उपन्यासों की प्रतीक्षा है. उम्मीद करता हूं जल्द ही पाठकों के समक्ष होंगे.
Mamata ji ke vichaar padh kar achcha laga
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