
देवियो और सज्जनो !
हिंदी की राष्ट्रव्यापी गोष्ठियों से गदगद इस समय में
मैं आप सबको अभिवादन करता हूँ !
मैं कहीं चूक भी सकता हूँ इसलिए पहले ही माफ़ी की दरकार करता हूँ
चूँकि बड़े-बड़े विद्वजनों को मैंने बोलते या बोलने का अभिनय करते देखा और सुना है इसलिए जानता हूँ कि गोष्ठियों में
इस तरह की `एंटीसिपेट्री बेल´ का विशेष प्रावधान होता है
हमारे बेहद ऊबड़खाबड़ प्रदेश
और उसके इस महान कठिन परिवेश के लोकगीतों में आखिर कहाँ है स्त्री
यह खोजने हम और आप आए हैं
उत्तराखंड की
समतल
सपाट
चपटी समझ वाली राजधानी में
जहाँ शराब और भूमाफियों का राज है
राजनीति है
विधानसभा है
मैं आपसे ही पूछता हूँ इस धन्य-धन्य वातावरण में
जंगल से घास काटकर आती
थक जाती
ढलानों पर सुस्ताती
और तब अपनी बेहद गोपन आवाज़ में
लोकगीत सरीखा कुछ गाती आपकी वो प्रतिनिधि औरत
आखिर कहाँ हैं ....
मेरा यह कहना गोष्ठी के सफल संचालन में कुछ ख़लल डाल सकता है
पर कवि हूँ मैं यह कहना मेरी ज़िम्मेदारी है
गीत को छोड़िए पहले लोक को खोजिए हमारे बदहाल होते गाँवों में
बीमार उपेक्षित बूढ़ों में -
उम्र के अंतिम मोड़ पर प्रेत की तरह गाँव के ढहते घर की हिफाजत करने को
अकेली छोड़ दी गई बूढ़ी औरतों में
आपके शहर की शाहराहों पर दम तोड़ते शब्दों में कहाँ पर खड़ा है यह शब्द - लोक
बिग बाज़ार में बिकती चीज़ों में कहाँ पर पड़ा है यह शब्द - लोक
चलिए
बचे हुए लोक को
एक परिभाषा दीजिए
क्या कहेंगे आप देहरादून में रहते हुए
उसके बारे में ...
कौन बचाता है उसे जब हम-आप विमर्श कर रहे होते हैं
ऐसे ही किसी सभागार में बैठ कर
बालों में सरसों का तेल डालकर रिबन बाँध स्कूल जाती एक किशोरी बचाती है उसे
घुघुती से न बोलने की गुहार लगाती एक विरहिणी बचाती है उसे जिसका पति फौज में है और ससुराल में प्यार नहीं
धीरे-धीरे धूमिल होते, बाज़ार में बदलते कौथीग भी बचाते हैं उसे किसी हद तक
गाँव की बटिया पर बीड़ी पीते एक आवार छोकरे की किंचित प्रदूषित आत्मा भी बचाती है उसे
कोई बचाए पर हम नहीं बचाते उसे
देवियो और सज्जनो !
बुरा न मानें तो कहूँगा कि हमें तो जुगाली तक करनी नहीं आती
हम अपने भीतर के ज्ञान को भी नहीं पचा पाते
और कितना भी छुपाना चाहें छुपा नहीं पाते अपना अज्ञान
तो ज्ञान और अज्ञान की इस संधि पर मुझे माफ़ करें
देवियो और सज्जनो !
मैं अधिक कुछ बोल पाने में तो समर्थ हूँ
पर आप सबकी भावनाओं को समझ पाने में असमर्थ
इस बार जब गाँव जाऊँगा
तो आप सबको याद रखूँगा
याद रखूँगा हमारी इस असफल बौद्धिक चवर्णा और विमर्श को
हमारी विराट आयोजकीय शक्ति को याद रखूँगा
इस सबसे बढ़कर वहाँ
जब जाऊँगा जँड़दा देवी के कौथीग* में
मैं याद रखूँगा अपनी शर्म को
जो मुझे अभी `लोकगीत में स्त्री´ विषयक सेमीनार के इस पोडियम पर
खड़े होकर आयी है
और यक़ीन करें मेरे साथ सैकड़ो किलोमीटर दूर जंगल में घास काट रही
एक बूढ़ी औरत भी शर्मायी है
हालाँकि
यह किसी भी तरह की अकादमिक जानकारी नहीं है
तब भी अगर जानना चाहे कोई
तो धीरे से बता दूँ उसे
कि लोकगीतों के भीतर और बाहर वह मेरी विधवा ताई है!
इस तरह की `एंटीसिपेट्री बेल´ का विशेष प्रावधान होता है
हमारे बेहद ऊबड़खाबड़ प्रदेश
और उसके इस महान कठिन परिवेश के लोकगीतों में आखिर कहाँ है स्त्री
यह खोजने हम और आप आए हैं
उत्तराखंड की
समतल
सपाट
चपटी समझ वाली राजधानी में
जहाँ शराब और भूमाफियों का राज है
राजनीति है
विधानसभा है
मैं आपसे ही पूछता हूँ इस धन्य-धन्य वातावरण में
जंगल से घास काटकर आती
थक जाती
ढलानों पर सुस्ताती
और तब अपनी बेहद गोपन आवाज़ में
लोकगीत सरीखा कुछ गाती आपकी वो प्रतिनिधि औरत
आखिर कहाँ हैं ....
मेरा यह कहना गोष्ठी के सफल संचालन में कुछ ख़लल डाल सकता है
पर कवि हूँ मैं यह कहना मेरी ज़िम्मेदारी है
गीत को छोड़िए पहले लोक को खोजिए हमारे बदहाल होते गाँवों में
बीमार उपेक्षित बूढ़ों में -
उम्र के अंतिम मोड़ पर प्रेत की तरह गाँव के ढहते घर की हिफाजत करने को
अकेली छोड़ दी गई बूढ़ी औरतों में
आपके शहर की शाहराहों पर दम तोड़ते शब्दों में कहाँ पर खड़ा है यह शब्द - लोक
बिग बाज़ार में बिकती चीज़ों में कहाँ पर पड़ा है यह शब्द - लोक
चलिए
बचे हुए लोक को
एक परिभाषा दीजिए
क्या कहेंगे आप देहरादून में रहते हुए
उसके बारे में ...
कौन बचाता है उसे जब हम-आप विमर्श कर रहे होते हैं
ऐसे ही किसी सभागार में बैठ कर
बालों में सरसों का तेल डालकर रिबन बाँध स्कूल जाती एक किशोरी बचाती है उसे
घुघुती से न बोलने की गुहार लगाती एक विरहिणी बचाती है उसे जिसका पति फौज में है और ससुराल में प्यार नहीं
धीरे-धीरे धूमिल होते, बाज़ार में बदलते कौथीग भी बचाते हैं उसे किसी हद तक
गाँव की बटिया पर बीड़ी पीते एक आवार छोकरे की किंचित प्रदूषित आत्मा भी बचाती है उसे
कोई बचाए पर हम नहीं बचाते उसे
देवियो और सज्जनो !
बुरा न मानें तो कहूँगा कि हमें तो जुगाली तक करनी नहीं आती
हम अपने भीतर के ज्ञान को भी नहीं पचा पाते
और कितना भी छुपाना चाहें छुपा नहीं पाते अपना अज्ञान
तो ज्ञान और अज्ञान की इस संधि पर मुझे माफ़ करें
देवियो और सज्जनो !
मैं अधिक कुछ बोल पाने में तो समर्थ हूँ
पर आप सबकी भावनाओं को समझ पाने में असमर्थ
इस बार जब गाँव जाऊँगा
तो आप सबको याद रखूँगा
याद रखूँगा हमारी इस असफल बौद्धिक चवर्णा और विमर्श को
हमारी विराट आयोजकीय शक्ति को याद रखूँगा
इस सबसे बढ़कर वहाँ
जब जाऊँगा जँड़दा देवी के कौथीग* में
मैं याद रखूँगा अपनी शर्म को
जो मुझे अभी `लोकगीत में स्त्री´ विषयक सेमीनार के इस पोडियम पर
खड़े होकर आयी है
और यक़ीन करें मेरे साथ सैकड़ो किलोमीटर दूर जंगल में घास काट रही
एक बूढ़ी औरत भी शर्मायी है
हालाँकि
यह किसी भी तरह की अकादमिक जानकारी नहीं है
तब भी अगर जानना चाहे कोई
तो धीरे से बता दूँ उसे
कि लोकगीतों के भीतर और बाहर वह मेरी विधवा ताई है!
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*पौड़ी गढ़वाल में एक लोकदेवी, जिनके मन्दिर पर हर साल मेला लगता है। गढ़वाली में मेले को कौथीग कहते हैं।
23 comments:
"Khoob ch bhulaa!"
खूब च भुला!!!
(स्वप्नदर्शी माफ करें, आपके शब्द चोरी किए। लेकिन यकीन मानिए, भाव मेरे भी मूलत: यही हैं।)
सच है, लोक वो ही बचाते हैं, जो उसके बचाव का ढिंढोरा नहीं पीटते, दिखावे नहीं करते।
गद्य समझ कर आया था पर यहां मिली एक शानदार कविता।
बधाई शिरीष भाई
अच्छी , सशक्त कविता. स्त्री विमर्श के पाखण्ड को उधेड़् देते हैं ये उद्गार!
खड़ा हो कर सैल्यूट करता हूँ!
अपना विषाद थोड़ा और घना हुआ. कोई रास्ता भी है बाहर निकलने का?
बहुत खूब।
@anuradha,
chalo thodee garhwali yaaree dostee me tumaare palle padhee.
vaise mere manobhav bhupen ke jyada nazdeek hai.
आयोगों,, समाराहों, बहस -मुबाहिसों और न जाने क्या क्या में घेर ली गयी स्त्री के नाम पर ज्ञान अघाए,अपना अज्ञान उघाड़ते लोगों पर ज़बरदस्त कविता.
कविता खुद ही बहुत कुछ कह रही है,मुखरता के साथ.
आभार इस कविता को पढने का अवसर देने के लिए !
हां मित्र लोक विमर्श और अन्य विमर्शों के ऐसे पाखंडों को इसी तरह उजागर करते रहना चाहिए
शिरीष जी,
इस लय पर
इस अभिव्यक्ति पर
इस जुड़ाव पर
छटपटाहट को सँजोते
फिर बतियाते
इस काव्य पर
.. वारे गए।
क्या कहें !
मौन को ही शब्द समझें
।
उम्र के अंतिम मोड़ पर प्रेत की तरह गाँव के ढहते घर की हिफाजत करने को
अकेली छोड़ दी गई बूढ़ी औरतों में...aabhaar...bahut chehre yaad aaye abhi..
behad samvedansheel kavita hai mitra! Padhvane ke liye aabhar.
वाह!
bahut khoob
chalo ak mukhota to hta .
शिरीष जी, बहुत मर्मस्पर्शी कविता! आभार!
अच्छी कविता है शिरीष यह डिक्शन भी बढ़िया है ।
ऊर्जावान कविता. अगर हम खुद को लोक-कार्यकर्ता बनाएं यानी फील्ड में उतरें तो यह बोल हमारे पाथेय बनेंगे.
कल रात मैं कुल्लू में निरंजन और सुंदरनगर में सुरेश निशांत से बात कर रहा था. कविता की इतर भूमिका के बारे में. हमने हिमाचल मित्र के इस शरद अंक में सुरेश की कविता पर्यावरण के पन्ने पर छापी है. जंगलों पर लेख उरसेम लता ने लिखा है और यह कविता उरसेम लता के लिए है. इसी तरह आइना स्तंभ में नवनीत की अमन काचरू पर लिखी कविता है. दोनों रचनाएं परस्पर पूरक बन जाती है. और कविता का एक नया पाठ बनता है. साथ ही कविता की यह भूमिका प्रोपेगंडा कविता से अलग भी है.
हमारे ही सामने हमारे लोक से बहुत-सी चीजें खत्म हो रही है, मर रही है... अब देखें कविता इन्हें कब तक बचाए रखती है.....
''बिग बाज़ार में बिकती चीज़ों में कहाँ पर पड़ा है यह शब्द - लोक''
बधाई.
shrish bhai nainital ki mulaqat ke baad blog main milna achcha laga; behtareen kavita ke saath aap mile
aapka sahpathi Sudhir
prashansha ke saare shabd kahe ja chuke hain.lekin fir bhi kahe bina nahin raha ja raha hai-- waah!
गीत को छोड़िए पहले लोक को खोजिए हमारे बदहाल होते गाँवों में
बीमार उपेक्षित बूढ़ों में -
उम्र के अंतिम मोड़ पर प्रेत की तरह गाँव के ढहते घर की हिफाजत करने को
अकेली छोड़ दी गई बूढ़ी औरतों में....kya khoob kaha huzur, yahi tragedy us tabke ki hai jissse umeed ki jati hai ki woh vimarsh karke kuch naya samaj ko dega, pahad ki baat jahan tak hai to uska bhagya itni aasani se nai badalne wala, badlega par dheere dheere, shayad vimarsh ki badaulat nai.... ache udgar ke liye dhanyavaad.
man ko choone wali behad sunder rachana.
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